अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 15
य एक॑श्चर्षणी॒नां वसू॑नामिर॒ज्यति॑। इन्द्रः॒ पञ्च॑ क्षिती॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । एक॑: । च॒र्ष॒णी॒नाम् । वसू॑नाम् । इ॒र॒ज्यति॑ ॥ इन्द्र॑: । पञ्च॑ । क्षि॒ती॒नाम् ॥७०.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति। इन्द्रः पञ्च क्षितीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एक: । चर्षणीनाम् । वसूनाम् । इरज्यति ॥ इन्द्र: । पञ्च । क्षितीनाम् ॥७०.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (एकः) अकेला (चर्षणीनाम्) चलनेवाले मनुष्यों और (वसूनाम्) श्रेष्ठ गुणों का (इरज्यति) स्वामी है, (इन्द्रः) वही इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश] से सम्बन्धवाले (क्षितीनाम्) चलते हुए लोकों का [स्वामी है] ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा सब प्राणियों, सब श्रेष्ठ गुणों और सब लोकों का स्वामी है, मनुष्य उसकी भक्ति से अपना सामर्थ्य बढ़ावे ॥१॥
टिप्पणी
१−(यः) परमेश्वरः (एकः) अद्वितीयः (चर्षणीनाम्) अ० १।।४। चरणशीलानां मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (वसूनाम्) श्रेष्ठगुणानाम् (इरज्यति) इरज इर्ष्यायाम्, कण्वादिः। इरज्यतिरैश्वर्यकर्मा-निघ० २।२१। ईष्टे (इन्द्रः) स परमेश्वरः (पञ्च) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१७। पचि व्यक्तीकरणे-कनिन्। पृथिवीजलतेजोवाय्वाकाशपञ्चभूतसम्बद्धानाम् (क्षितीनाम्) क्षि निवासगत्योः-क्तिन्। क्षितिः पृथिवीनाम-निघ० १।१। गतिशीलानां लोकानाम् ॥
विषय
चर्षणीनाम्-वसूनाम्
पदार्थ
१. प्रभु वे हैं (य:) = जो (एक:) = अकेले ही (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के व (वसूनाम्) = सब धनों के (इरज्यति) = ईश हैं। 'श्रमशील मनुष्य' भी प्रभु के हैं, 'वसु' भी प्रभु के । प्रभु इन श्रमशील मनुष्यों को सब वसु प्राप्त कराते हैं। श्रमशील मनुष्य ही प्रभु को प्रिय हैं। इनसे भिन्न मनुष्य प्राकृतिक भोगों में फंस जाते हैं। २. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (पञ्च क्षितीनाम्) = पाँचों मनुष्यों के स्वामी हैं। मानव-समाज पाँच भागों में बँटा है, 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद'। प्रभु इन सबके स्वामी हैं। सभी का हित करनेवाले हैं।
भावार्थ
प्रभु अपनी सर्वशक्तिमत्ता से सब मनुष्यों के ईश हैं। श्रमशील मनुष्यों के लिए सब वसुओं-धनों को प्राप्त करानेवाले हैं।
भाषार्थ
(यः) जो (एकः) एक (चर्षणीनाम्) सब मनुष्यों का, (वसूनाम्) सब वस्तुओं का, तथा (पञ्च) पांच या विस्तृत (क्षितीनाम्) पृथिवियों या ग्रहों का (इरज्यति) अधीश्वर है, (इन्द्रः) वह परमेश्वर है।
टिप्पणी
[चर्षणयः=मनुष्याः (निघं০ २.३)। इरज्यति=ऐश्वर्यकर्मा (निघं০ २.२१)। पञ्च=पच् विस्तारे। वसवः=अग्नि, पृथिवी; वायु, अन्तरिक्ष; चन्द्रमा, नक्षत्र; सूर्य, द्यौः। पञ्च=मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्वर (?) क्षिति=निवासयोग्य भूमि। चन्द्र, पृथिवी का उपग्रह है; सूर्य अतितप्त है—इसलिए इन दो का ग्रहण नहीं किया।]
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
One and only one without a second is Indra, lord supreme of the universe, the lord who rules and guides humanity, showers treasures of wealth, and sustains and ultimately disposes the five orders of the universe.
Translation
He who alone controls the living beings and abiding objects, is the Alimighty God of men classified in five categories.
Translation
He who alone controls the living beings and abiding objects, is the Almighty God of men classified in five categories.
Translation
He is the Mighty God, Who all alone controls all the worlds, giving place of shelter to all the creatures, all the subjects, consisting of five sorts of classes of people, i.e., Brahman, Kshatrya, Vaishya, Shudra and Nishad.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यः) परमेश्वरः (एकः) अद्वितीयः (चर्षणीनाम्) अ० १।।४। चरणशीलानां मनुष्याणाम्-निघ० २।३। (वसूनाम्) श्रेष्ठगुणानाम् (इरज्यति) इरज इर्ष्यायाम्, कण्वादिः। इरज्यतिरैश्वर्यकर्मा-निघ० २।२१। ईष्टे (इन्द्रः) स परमेश्वरः (पञ्च) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१७। पचि व्यक्तीकरणे-कनिन्। पृथिवीजलतेजोवाय्वाकाशपञ्चभूतसम्बद्धानाम् (क्षितीनाम्) क्षि निवासगत्योः-क्तिन्। क्षितिः पृथिवीनाम-निघ० १।१। गतिशीलानां लोकानाम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১০-২০ পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে পরমেশ্বর (একঃ) এক-অদ্বিতীয় (চর্ষণীনাম্) চলনশীল মনুষ্যগণের এবং (বসূনাম্) শ্রেষ্ঠ গুণসমূহের (ইরজ্যতি) স্বামী , (ইন্দ্রঃ) সেই ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ জগদীশ্বর] (পঞ্চ) পঞ্চ [পৃথিবী, জল, তেজ, বায়ু, আকাশ]-এর সাথে সম্বন্ধযুক্ত (ক্ষিতীনাম্) গতিশীল লোকসমূহের [স্বামী] ॥১৫॥
भावार्थ
পরমাত্মা সকল প্রাণী, সকল শ্রেষ্ঠ গুণ এবং পৃথিব্যাদি লোকের স্বামী, মনুষ্য তাঁর ভক্তি দ্বারা নিজ সামর্থ্য বৃদ্ধি করুক ॥১৫॥
भाषार्थ
(যঃ) যে (একঃ) এক (চর্ষণীনাম্) সব মনুষ্যদের, (বসূনাম্) সকল বস্তু-সমূহের, তথা (পঞ্চ) পঞ্চ বা বিস্তৃত (ক্ষিতীনাম্) পৃথিবী বা গ্রহ-সমূহের (ইরজ্যতি) অধীশ্বর, (ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।
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