अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
अ॑नव॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒व॒द्यै: । अ॒भिद्यु॑ऽभिर: । म॒ख: । सह॑स्वत् । अ॒र्च॒ति॒ ॥ ग॒णै: । इन्द्र॑स्य । काम्यै॑: ॥७०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति। गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठअनवद्यै: । अभिद्युऽभिर: । मख: । सहस्वत् । अर्चति ॥ गणै: । इन्द्रस्य । काम्यै: ॥७०.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(अनवद्यैः) निर्दोष, (अभिद्युभिः) सब ओर से प्रकाशमान और (काम्यैः) प्रीति के योग्य (गणैः) गणों [प्रजागणों] के साथ (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] का (मखः) यज्ञ [राज्य व्यवहार] (सहस्वत्) अति दृढ़ता से (अर्चति) सत्कार पाता है ॥४॥
भावार्थ
सब राज-काज उत्तम विद्वान् लोगों के मेल से अच्छे प्रकार सिद्ध होते हैं ॥४॥
टिप्पणी
३, ४-मन्त्रौ व्याख्यातौ अथ० २०।४०।१०२ ॥
विषय
"निर्दोष-ज्ञानमय-प्रशंसनीय' जीवन
पदार्थ
१. प्रभु की उपासना करनेवाला यह उपासक (मखः) = [मख गतौ]-गतिशील-कर्मनिष्ठ होता है। यह मरुतों [प्राणों] के साथ उस प्रभु की (सहस्वत्) = [बलोपेतं यथा स्यात्तथा]-सबल (अर्चति) = अर्चना करता है। प्रभु की अर्चना की वस्तुतः पहचान ही यह है कि उपासक में 'सहस्' की उत्पत्ति हुई या नहीं। २. जिन प्राणों की साधना करता हुआ इन्द्र प्रभु की अर्चना करता है, वे प्राण (अनवद्यैः) = अवद्य-निन्दनीय पाप से रहित हैं। प्राणसाधना वासना-विनाश द्वारा साधक को निष्पाप बनाती है। (अभिद्युभिः) = ये प्राण प्रकाश की ओर ले-जानेवाले हैं। वासनारूप वृत्र [आवरण] का विनाश करके ये ज्ञान को अनावृत्त कर देते हैं। (गणै:) = ये प्राण संख्यान के योग्य है-प्रशंसनीय हैं। [गण to praise] (इन्द्रस्य काम्यैः) = जीवात्मा के चाहने योग्य हैं। वस्तुत: इन प्राणों के द्वारा ही 'हम निर्दोष-ज्ञानमय-प्रशंसनीय' जीवनवाले बनते हैं।
भावार्थ
यज्ञमय जीवनवाले बनकर प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का अर्चन करें। यह अर्चन हमें 'सहस्वान्' बनाएगा। प्राणसाधना से हम 'निर्दोष-ज्ञानयुक्त-प्रशंसनीय' जीवनवाले बनेंगे।
भाषार्थ
देखो—२०.४०.२।
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
The yajnic dynamics of nature’s currents of energy, Maruts, so potent and effective, illuminate the world and do homage to the Lord of creation with the immaculate blazing radiations of glorious sun light.
Translation
The powerful and perfectly performed Yajna through the airs (Maruts) which are blameless, splendid, lustrous and wellin- groups strengthen the sun.
Translation
The powerful and perfectly performed Yajna through the airs (Maruts) which are blameless, splendid, lustrous and well-in-groups strengthen the sun.
Translation
The powerful sacrifice (i.e., the creation of the universe) of the mighty Lord is highly praised by the brilliant blameless and lovable learned persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३, ४-मन्त्रौ व्याख्यातौ अथ० २०।४०।१०२ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-৯ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(অনবদ্যৈঃ) নির্দোষ, (অভিদ্যুভিঃ) সকল দিকে প্রকাশমান এবং (কাম্যৈঃ) প্রীতিযোগ্য (গণৈঃ) গণ [প্রজাগণের] সাথে (ইন্দ্রস্য) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান রাজার] (মখঃ) যজ্ঞ [রাজ্য ব্যবহার] (সহস্বৎ) অতি দৃঢ়তার সাথে (অর্চতি) সৎকার পায়॥৪॥
भावार्थ
সকল রাজকার্য উত্তম বিদ্বান লোকেদের মাধ্যমে ভালোভাবে সিদ্ধ হয় ॥৪॥
भाषार्थ
দেখো—২০.৪০.২।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal