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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - मरुद्गणः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०
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    अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑। सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत॑: । प॒रि॒ऽज्म॒न् । आ । ग॒हि॒ । दि॒व: । वा॒ । रो॒च॒नात् । अधि॑ ॥ सम् । अ॒स्मि॒न् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । गिर॑: ॥७०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत: । परिऽज्मन् । आ । गहि । दिव: । वा । रोचनात् । अधि ॥ सम् । अस्मिन् । ऋञ्जते । गिर: ॥७०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    विषय

    १-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अतः) इसलिये, (परिज्मन्) हे सर्वत्र गतिवाले शूर ! (दिवः) विजय की इच्छा से (वा) और (रोचनात्) प्रीति भाव से (अधि) ऊपर (आ गहि) आ, (अस्मिन्) इस [वचन] में (गिरः) हमारी स्तुतियाँ (सम्) ठीक-ठीक (ऋञ्जते) सिद्ध होती हैं ॥॥

    भावार्थ

    पूर्वोक्त प्रकार से आवश्यकता जताकर श्रेष्ठ प्रजागण धीर-वीर पुरुष को उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करें ॥॥

    टिप्पणी

    −(अतः) अस्मात् पूर्वोक्तात् कारणात् (परिज्मन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। परि+अज गतिक्षेपणयोः-मनिन्, अकारलोपः। हे सर्वतो गतिशील (आ गहि) आगच्छ (दिवः) दिवु विजिगीषायाम्-क्विप्। विजयेच्छायाः सकाशात् (वा) चार्थे (रोचनात्) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च युच्। प्रीतिभावात् (अधि) उपरि (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) वचसि (ऋञ्जते) ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा-निरु० ६।२१। प्रकर्षेण सिध्यन्ति (गिरः) स्तुतयः-निरु० १।१० ॥

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    विषय

    सर्वत्र प्रभु की महिमा का दर्शन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का आराधक प्रभु से आराधना करते हुए कहता है कि (परिज्मन्) = हे चारों ओर गये हुए सर्वव्यापिन् प्रभो! (आगहि) = आप हमें प्राप्त होइए। अत: इस पृथिवीलोक से (दिवःवा) = या द्युलोक से (रोचनात् अधि) = इस चन्द्र व विद्युत् की दीसिवाले अन्तरिक्ष से [आगहि] आप हमें प्राप्त होइए, अर्थात् पृथिवीस्थ अग्नि आदि देवों का चिन्तन करता हुआ मैं उन देवों में स्थापित किये गये देवत्व का दर्शन करूँ। इसी प्रकार अन्तरिक्ष के देवों में मैं आपकी महिमा का दर्शन करूँ तथा घुलोक के देवों में मुझे आपका प्रकाश मिले। २. इस प्रकार सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखनेवाले (गिरः) = स्तोता लोग (अस्मिन्) = इस परमात्मा में (समृञ्जते) = अपने जीवन को सुभूषित करते हैं। प्रभु के अनुरूप बनने का प्रयत्न करते हुए ये स्तोता लोग सुन्दर जीवनवाले बन जाते हैं।

    भावार्थ

    हम सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखें। प्रभु में स्थित हुए-हुए, प्रभु के अनुरूप बनने का प्रयत्न करते हुए अपने जीवन को सुन्दर बना पाएँ।

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    भाषार्थ

    (परिज्मन्) हे सर्वगत परमेश्वर! अथवा हे समग्र भूमि के परिपालक परमेश्वर! आप (अतः) इस हृदय से (आ गहि) प्रकट हूजिए, हमें प्राप्त हूजिए (वा) या (दिवः रोचनात् अधि) प्रकाशमान मस्तिष्क के सहस्रार-चक्र से प्रकट हूजिए, हमें प्राप्त हूजिए। (अस्मिन्) इस उपासक में (गिरः) आपकी स्तुतियाँ, (सम्) सम्यक् रुप में (ऋञ्जते) परिपक्व हो रही हैं।

    टिप्पणी

    [जभ गतौ (निरु০ ३.१.६)। अथवा ज्मा पृथिवी (निघं০ १.१)। ऋञ्जते=ऋजि (भर्जने)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    The currents of energy, Maruts, travel up from here, the earth, to the region of the sun, and from up there down to the earth. And in this space they sustain all the objects of the world and all the voices divine and human.

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    Translation

    This sun from the space or from the luminous heavenly region spreads itself encompassing the earth, the praises are meaningful in it.

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    Translation

    This sun from the space or from the luminous heavenly region spreads itself encompassing the earth, the praises are meaningful in it.

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    Translation

    O Omnipresent Lord, setting in motion all the spheres of the universe, come (to us, the devotees) from this brilliant and shining heavens (i.e., be realised by us). All of our Vedie praises do unite well in Thee.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(अतः) अस्मात् पूर्वोक्तात् कारणात् (परिज्मन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। परि+अज गतिक्षेपणयोः-मनिन्, अकारलोपः। हे सर्वतो गतिशील (आ गहि) आगच्छ (दिवः) दिवु विजिगीषायाम्-क्विप्। विजयेच्छायाः सकाशात् (वा) चार्थे (रोचनात्) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च युच्। प्रीतिभावात् (अधि) उपरि (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) वचसि (ऋञ्जते) ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा-निरु० ६।२१। प्रकर्षेण सिध्यन्ति (गिरः) स्तुतयः-निरु० १।१० ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৯ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অতঃ) এই হেতু, (পরিজ্মন্) হে সর্বত্র গতিশীল বীর ! (দিবঃ) বিজয় লাভের ইচ্ছায় (বা) এবং (রোচনাৎ) প্রীতি ভাবনাপূর্বক (অধি) উপরে (আ গহি) আগমন করো/অধিষ্ঠিত হও/এসো, (অস্মিন্) এই [বচন] দ্বারা যেন (গিরঃ) আমাদের স্তুতি (সম্) সম্যক্ (ঋঞ্জতে) সিদ্ধ হয় ॥৫॥

    भावार्थ

    পূর্বোক্ত প্রকারে আবশ্যকতা উল্লেখ করে শ্রেষ্ঠ প্রজাগণ ধীর-বীর পুরুষকে উত্তম কর্মে প্রবৃত্ত করবে/করুক ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (পরিজ্মন্) হে সর্বগত পরমেশ্বর! অথবা হে সমগ্র ভূমির/সংসারের পরিপালক পরমেশ্বর! আপনি (অতঃ) এই হৃদয় থেকে (আ গহি) প্রকট হন, আমাদের প্রাপ্ত হন (বা) বা (দিবঃ রোচনাৎ অধি) প্রকাশমান মস্তিষ্কের সহস্রার-চক্র থেকে প্রকট হন, আমাদের প্রাপ্ত হন। (অস্মিন্) এই উপাসকের মধ্যে (গিরঃ) আপনার স্তুতি, (সম্) সম্যক্ রুপে (ঋঞ্জতে) পরিপক্ব হচ্ছে।

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