ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
मा नो॑ मर्धी॒रा भ॑रा द॒द्धि तन्नः॒ प्र दा॒शुषे॒ दात॑वे॒ भूरि॒ यत्ते॑। नव्ये॑ दे॒ष्णे श॒स्ते अ॒स्मिन्त॑ उ॒क्थे प्र ब्र॑वाम व॒यमि॑न्द्र स्तु॒वन्तः॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । म॒र्धीः॒ । आ । भ॒र॒ । द॒द्धि । तत् । नः॒ । प्र । दा॒शुषे॑ । दात॑वे । भूरि॑ । यत् । ते॒ । नव्ये॑ । दे॒ष्णे । श॒स्ते । अ॒स्मिन् । ते॒ । उ॒क्थे । प्र । ब्र॒वा॒म॒ । व॒यम् । इ॒न्द्र॒ । स्तु॒वन्तः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो मर्धीरा भरा दद्धि तन्नः प्र दाशुषे दातवे भूरि यत्ते। नव्ये देष्णे शस्ते अस्मिन्त उक्थे प्र ब्रवाम वयमिन्द्र स्तुवन्तः ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। मर्धीः। आ। भर। दद्धि। तत्। नः। प्र। दाशुषे। दातवे। भूरि। यत्। ते। नव्ये। देष्णे। शस्ते। अस्मिन्। ते। उक्थे। प्र। ब्रवाम। वयम्। इन्द्र। स्तुवन्तः ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं नो मा मर्धीर्नस्तदाऽऽभर यत्तेऽस्मिन् नव्ये देष्णे ते शस्त उक्थे भूरि द्रव्यमस्ति तद्दाशुषे दातवे प्रभर सर्वेभ्यो नोऽस्मभ्यं दद्धि। स्तुवन्तो वयमिदं त्वां प्र ब्रवाम ॥१०॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (नः) अस्मान् (मर्धीः) उन्दितान् मा कुरु (आ) (भर) धर (दद्धि) देहि (तत्) धनम् (नः) अस्मभ्यम् (प्र) (दाशुषे) दानशीलाय (दातवे) दातुम् (भूरि) बहु (यत्) (ते) तव (नव्ये) नवीने (देष्णे) दातुं योग्ये (शस्ते) प्रशंसिते (अस्मिन्) (ते) तुभ्यम् (उक्थे) वक्तव्ये (प्र) (ब्रवाम) उपदिशेम (वयम्) (इन्द्र) राजन् (स्तुवन्तः) ॥१०॥
भावार्थः
हे राजंस्तुभ्यं कर्त्तव्यं कर्म्म यद्यद्वदेम तत्तदाचर प्रजाऽमात्यराज्योन्नतये बहु धनं विद्यान्यायौ च प्रसारय ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! आप (नः) हम लोगों को (मा) मत (मर्धीः) गीला कीजिये हम लोगों के लिये (तत्) उस धन को (आ, भर) धारण कीजिये (यत्) जो (ते) आपके (अस्मिन्) इस (नव्ये) नवीन (देष्णे) देने और (ते) आपके (शस्ते) प्रशंसित (उक्थे) कहने योग्य व्यवहार में (भूरि) बहुत द्रव्य है वह (दाशुषे) दानशील के लिये (दातवे) देने को (प्र) अत्यन्त धारण कीजिये और (नः) हम सब लोगों के लिये (दद्धि) दीजिये और (स्तुवन्तः) स्तुति करते हुए (वयम्) हम लोग यह आपको (प्र, ब्रवाम) उपदेश करें ॥१०॥
भावार्थ
हे राजन् ! आपके लिये करने योग्य कर्म्म जो-जो कहें उस-उसका आचरण करो और प्रजा, मन्त्री और राज्य की उन्नति के लिये बहुत धन, विद्या और न्याय को फैलाओ ॥१०॥
विषय
'न हिंसित होने देनेवाले' प्रभु
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (नः) = हमें (मा मर्धी:) = काम-क्रोध आदि से नष्ट मत होने दीजिए। (आभरा) = हमारा सब प्रकार से भरण करिए । (नः) = हमारे लिए (तत्) = उस धन को (भूरि) = बहुत (प्रदद्धि) = दीजिए, (यत्) = जो (ते) = आपका धन (दाशुषे) = आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (दातवे) = देने के लिए है। जो धन आप (दाश्वान्) = पुरुष को देते हैं, वह धन हमें दीजिए। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (नव्ये) = अत्यन्त स्तुत्य, (देष्णे) = दान में प्रेरित करनेवाले (शस्ते) = प्रशस्त (अस्मिन्) = इस (ते) = आपके (उक्थे) = स्तोत्र में (वयम्) = हम (प्रब्रवाम) = आपके नामों व गुणों का उच्चारण करें। यह प्रभु के नामों का उच्चारण हमें प्रशस्त जीवनवाला बनाता है। इस से हमारे अन्दर धन को देने की वृत्ति बनती है। प्रभु हमें देते हैं और इसीलिए देते हैं कि हम धन को देनेवाले बनें। वस्तुतः देनेवाले बनकर ही हम प्रभु का स्तुवन्तः स्तवन करनेवाले होते हैं। कोई भी व्यक्ति धन को न देनेवाला प्रभु का स्तोता नहीं बन पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें सब धन देते हैं और इस प्रकार हमें हिंसित नहीं होने देते।
विषय
उससे रक्षा, समृद्धि की याचना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! राजन् ! (नः) तू हमें (मा) मत (मर्धीः) विनाश कर। (दातवे) अपने को तेरे प्रति समर्पण करने वाले जन के लिये (यत् ते) जो तेरा (दातवे) देने योग्य (भूरि) बहुत सा है (तत् आभर) उसी को प्राप्त कर और (नः दद्धि) हमें प्रदान कर। (अस्मिन्) इस (नव्ये) अति उत्तम, (देष्णे) दान योग्य, (शस्ते) अति प्रशस्त (ते) तेरे (उक्थे) वचन में रहते हुए (वयम्) हम लोग (स्तुवन्तः) गुणानुवाद करते हुए, (प्र ब्रवाम) अच्छी प्रकार बतलावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः। ७, ९ स्वराट् पंक्तिः। ११ निचृत्पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तुझ्यासाठी जे योग्य कर्म सांगितलेले आहे त्याचे आचरण कर व प्रजा, मंत्री व राज्याच्या उन्नतीसाठी पुष्कळ धन, विद्या व न्याय प्रसृत कर. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of majesty and generosity, we pray, forsake us not, bear and bring and give us that plenty and variety of wealth which is yours meant for a gift to the generous devotee in this new, productive, admirable and well directed yajnic song of celebration in your honour, and may we, we pray, continue to speak and sing in praise of your glory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! do not make us wet or devoid of splendor. Do not harm us. Bestow upon and grant us your abundant wealth so that we give donations for admirable and deserving causes. While praising you, we thus seek welfare from you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should discharge your duties when we seek you for the advancement and welfare of the subjects and officials of the State. Extend much wealth, knowledge and justice to them.
Foot Notes
(मर्धीः) उन्दितान् मा कुरु । = Make us wet or derived of splendor. Do not harm us. (देष्णे) दातूं योग्ये। = Worth giving.
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