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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    आ न॒ इन्द्रो॒ हरि॑भिर्या॒त्वच्छा॑र्वाची॒नोऽव॑से॒ राध॑से च। तिष्ठा॑ति व॒ज्री म॒घवा॑ विर॒प्शीमं य॒ज्ञमनु॑ नो॒ वाज॑सातौ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । इन्द्रः॑ । हरि॑ऽभिः । या॒तु॒ । अच्छ॑ । अ॒र्वा॒ची॒नः । अव॑से । राध॑से । च॒ । तिष्ठा॑ति । व॒ज्री । म॒घऽवा॑ । वि॒ऽर॒प्शी । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अनु॑ । नः॒ । वाज॑ऽसातौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ न इन्द्रो हरिभिर्यात्वच्छार्वाचीनोऽवसे राधसे च। तिष्ठाति वज्री मघवा विरप्शीमं यज्ञमनु नो वाजसातौ ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। इन्द्रः। हरिऽभिः। यातु। अच्छ। अर्वाचीनः। अवसे। राधसे। च। तिष्ठाति। वज्री। मघऽवा। विऽरप्शी। इमम्। यज्ञम्। अनु। नः। वाजऽसातौ ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽर्वाचीनो मघवा वज्री विरप्शीन्द्रो हरिभिस्सह नोऽवसे राधसे चाऽच्छाऽऽयात्विमं यज्ञन्नो वाजसातौ चानुतिष्ठाति तमेव राजानं स्वीकुरुत ॥२॥

    पदार्थः

    (आ) (नः) अस्मानस्माकं वा (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् राजा (हरिभिः) प्रशस्तैर्नरैस्सह (यातु) आयातु प्राप्नोतु (अच्छ) (अर्वाचीनः) इदानीन्तनः (अवसे) अन्नाद्याय। अव इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (राधसे) धनाय (च) (तिष्ठाति) तिष्ठेत् (वज्री) शस्त्राऽस्त्रवित् (मघवा) न्यायार्जितधनत्वात् पूजनीयः (विरप्शी) महान् (इमम्) (यज्ञम्) प्रजापालनाख्यम् (अनु) (नः) अस्माकम् (वाजसातौ) संग्रामे ॥२॥

    भावार्थः

    यो राजोत्तमैस्सभ्यैः प्रजासुखायाऽन्नधने बहुले कृत्वा संग्रामे विजयी न्यायकारी भवेत् स खलु राजा भवितुमर्हेत् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अर्वाचीनः) इस काल में उत्पन्न (मघवा) न्याय से इकट्ठे किये हुए धन के होने से आदर करने योग्य (वज्री) शस्त्रों और अस्त्रों का जाननेवाले (विरप्शी) बड़ा (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाला राजा (हरिभिः) श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ (नः) हम लोगों को वा हम लोगों के (अवसे) अन्न आदि के (च) और (राधसे) धन के लिये (अच्छ) उत्तम प्रकार (आ, यातु) प्राप्त हो (इमम्) इस (यज्ञम्) प्रजापालनरूप यज्ञ का (नः) हम लोगों के (वाजसातौ) सङ्ग्राम में (अनु, तिष्ठाति) अनुष्ठान करे, उसी को राजा मानो ॥२॥

    भावार्थ

    जो राजा उत्तम सभा के जनों से प्रजा के सुख के लिये अन्न और धन बहुत करके सङ्ग्राम में जीतनेवाला न्यायकारी होवे, वही राजा होने को योग्य होवे ॥२॥

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    विषय

    अवसे राधसे च

    पदार्थ

    [१](इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु (नः) = हमें (हरिभिः) = उत्तम इन्द्रियाश्वों के साथ (अर्वाचीन:) अभिमुख प्राप्त होनेवाले होकर (आयातु) = आएँ । वे प्रभु हमारे (अवसे) = रक्षण के लिए हों च और राधसे कार्यों में सफलता के लिए हों। प्रभु द्वारा प्राप्त इन उत्तम इन्द्रियाश्वों से ही तो हम जीवनयात्रा को पूर्ण कर पाएँगे। [२] वे (वज्री) = क्रियाशीलता रूप वज्रवाले, (मघवा) = ऐश्वर्यशाली, (विरप्शी) = महान् व सब विज्ञानों का उपदेश देनेवाले वे प्रभु (वाजसातौ) = शक्ति को प्राप्त कराने के निमित्त (नः) = हमारे (इमं यज्ञं अनु) = इस जीवनयज्ञ को लक्ष्य करके (तिष्ठाति) = स्थित होते हैं। प्रभु के रक्षण से ही यह यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण होता है। प्रभुकृपा के बिना यज्ञ की पूर्ति सम्भव नहीं है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें उत्तम इन्द्रियाश्वों के साथ प्राप्त हों। वे ही हमारा रक्षण करते हैं, वे ही हमें सफल बनाते हैं। वे ही इस जीवनयज्ञ को पूर्ण कराते हैं।

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    विषय

    राजा के प्रजा पालन के धर्मों का उपदेश।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (अवसे) रक्षा और (राधसे च) धनैश्वर्य की वृद्धि के लिये (अर्वाचीनः) वर्त्तमान में भी वा विनयपूर्वक (हरिभिः) उत्तम पुरुषों सहित (नः अच्छ आयातु) हमें प्राप्त हो । (वज्री) शस्त्रास्त्रों का स्वामी, बल वीर्यवान् (मघवा) धनैश्वर्य से सम्पन्न (विरप्शी) महान् आज्ञापक, (वाजसातौ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये (नः) हमारे (इमं) इस (यज्ञं) यज्ञ, परस्पर संगति, राज्य प्रबन्ध को (अनु तिष्ठाति) विधिपूर्वक चलावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः। ७, ९ स्वराट् पंक्तिः। ११ निचृत्पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा प्रजेच्या सुखासाठी सभेद्वारे अन्न व धनाचा संग्रह करणारा, युद्धात जिंकणारा, न्यायी असेल तोच राजा होण्यायोग्य आहे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Indra, lord great and glorious, commanding wealth, honour and excellence, wielding thunderous arms of latest design and power, come to us with his forces, come well at the fastest for our protection and all round success, and may he, we pray, stand by us in the conduct of this yajna of ours for victory in our battle of peace and progress in the field of production, development of energy, and advancement in arts and sciences.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the Indra are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the new king endowed with much wealth, is respectable on account of the riches earned with justice, is knower of weapons and missiles and is great. May he come with admirable noble men for our protection and enrichment ? He comes to this our Yajna in the form of the protection of the people and in the battle. You should accept only such a virtuous person as your king.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He deserves to be a king, who multiplies the food materials and wealth of the people for their happiness with the help of good members of the assembly, and is victorious in the battles and is just.

    Translator's Notes

    Three parts of Yajna-honor of the enlightened persons, association with good men and charity-are essential in the real sense. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ( Stph 1, 7, 1, 5 ) यज्ञौ वै विशः । यज्ञेहि सर्वाणि भूतानि विष्टानि (Stph 8, 7, 3, 21)।

    Foot Notes

    (हरिभिः) प्रशस्तैर्नरैस्सह । हरय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3) = With admirable persons. (विरप्शी) महान् । विरशीति महन्नाम (NG 3, 3) Great. (यज्ञम् ) प्रजापालनाख्यम् । = Yajna in the form of the protection of the people. (वाजसातौ) सङ्ग्रामे | = In the battle.

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