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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    कया॒ तच्छृ॑ण्वे॒ शच्या॒ शचि॑ष्ठो॒ यया॑ कृ॒णोति॒ मुहु॒ का चि॑दृ॒ष्वः। पु॒रु दा॒शुषे॒ विच॑यिष्ठो॒ अंहोऽथा॑ दधाति॒ द्रवि॑णं जरि॒त्रे ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कया॑ । तत् । शृ॒ण्वे॒ । शच्या॑ । शचि॑ष्ठः । यया॑ । कृ॒णोति॑ । मुहु॑ । का । चि॒त् । दृ॒ष्वः । पु॒रु । दा॒शुषे॑ । विऽच॑यिष्ठः । अंहः॑ । अथ॑ । द॒धा॒ति॒ । द्रवि॑णम् । ज॒रि॒त्रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कया तच्छृण्वे शच्या शचिष्ठो यया कृणोति मुहु का चिदृष्वः। पुरु दाशुषे विचयिष्ठो अंहोऽथा दधाति द्रविणं जरित्रे ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कया। तत्। शृण्वे। शच्या। शचिष्ठः। यया। कृणोति। मुहु। का। चित्। ऋष्वः। पुरु। दाशुषे। विऽचयिष्ठः। अंहः। अथ। दधाति। द्रविणम्। जरित्रे ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वदुपदेशगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथा शचिष्ठो विचयिष्ठ ऋष्वो विद्वानंहः पृथक्कृत्याऽथा जरित्रे दाशुषे पुरु द्रविणं दधाति यानि का चिदुत्तमानि कर्म्माणि यया कया शच्या मुहु कृणोति तत्तया शृण्वे ॥९॥

    पदार्थः

    (कया) (तत्) तानि (शृण्वे) शृणुयाम् (शच्या) प्रज्ञया क्रियया वा (शचिष्ठः) अतिशयेन प्राज्ञः (यया) (कृणोति) (मुहु) वारं वारम् (का) कानि (चित्) अपि (ऋष्वः) महान् (पुरु) बहु (दाशुषे) दात्रे (विचयिष्ठः) अतिशयेन वियोजकः (अंहः) अपराधम् (अथा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दधाति) (द्रविणम्) धनम् (जरित्रे) स्तावकाय ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणां योग्यतास्ति यथाऽऽप्ताः पापानि विहाय धर्म्माचरणङ्कृत्वा प्रमात्मकञ्ज्ञानं धृत्वा जगत्कल्याणाय पुष्कलं विज्ञानं प्रसारयन्ति तथैव यूयमाचरत ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वानों के उपदेशगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (शचिष्ठः) अत्यन्त बुद्धिमान् (विचयिष्ठः) अत्यन्त वियोग करनेवाला (ऋष्वः) बड़ा विद्वान् (अंहः) अपराध को पृथक् करके (अथा) अनन्तर (जरित्रे) स्तुति करने और (दाशुषे) देनेवाले के लिये (पुरु) बहुत (द्रविणम्) धन को (दधाति) धारण करता है और जिन (का) किन्हीं (चित्) भी उत्तम कर्म्मों को (यया) जिस (कया) किसी (शच्या) बुद्धि वा क्रिया से (मुहु) बार-बार (कृणोति) सिद्ध करता है (तत्) उन्हें उससे (शृण्वे) सुनूँ ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों की योग्यता है कि जैसे यथार्थवक्ता जन पापों का त्याग, धर्म्म का आचरण और यथार्थ ज्ञानस्वरूप ज्ञान को धारण करके जगत् के कल्याण के लिये बहुत ज्ञान को फैलाते हैं, वैसे ही आप लोग आचरण करो ॥९॥

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    विषय

    पापविनाशक प्रभु

    पदार्थ

    [१] (तत्) = वे प्रभु कया किसी (अद्भुत) = [अनिर्वचनीय] अथवा आनन्दमय (शच्या) = प्रज्ञान व कर्म से (शृण्वे) = सुने जाते हैं-प्रसिद्ध हैं। (शचिष्ठः) = अत्यन्त शक्तिशाली व प्रज्ञानवाले हैं। वह (ऋष्वः) = महान् प्रभु (यया) = जिस शक्ति द्वारा (मुहु) = फिर-फिर (काचित्) = [कानिचित्] किन्हीं कर्मों को (कृणोति) = करते हैं। सृष्टि के उत्पत्ति, धारण व प्रलय रूप कर्म प्रभु अपनी इसी शची [शक्ति व प्रज्ञान] द्वारा करते हैं । [२] ये प्रभु (दाशुषे) = आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (अंहः) = पाप को (पुरु) = अत्यन्त (विचयिष्ठः) = विनष्ट करनेवाले हैं। अथा और अब, पाप को विनष्ट करके, ये प्रभु (जरित्रे) = स्तोता के लिए (द्रविणम्) = धन को (दधाति) = धारण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अद्भुत शक्ति व प्रज्ञानवाले हैं। वे महान् प्रभु स्तोता के पापों को विनष्ट करके उसके लिए आवश्यक धन प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    प्रभु का महान् सामर्थ्य।

    भावार्थ

    (तत्) वह राजा वा परमेश्वर (शचिष्ठः) सबसे अधिक बुद्धि, शक्ति और वाणी से युक्त ज्ञानमय, सर्व शक्तिमान् वाक् स्वरूप, (कया शच्या) किस वाणी शक्ति और बुद्धि से युक्त है। उत्तर—(यया) जिससे (ऋष्वः) वह महान् (का चित्) कई अनेक कार्य (मुहु) वार २ (कृणोति) करता है, और (दाशुषे) आत्मसमर्पण करने वा कर आदि देने वाले प्रजाजन और स्तुतिकर्त्ता विद्वान् धर्मोपदेष्टा के लिये (पुरु अंहः) बहुत सा पाप, अपराध (विचयिष्ठः) खूब दूर कर देता है, (अथ) और उसके बाद (द्रविणं) ऐश्वर्य भी (दधाति) प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः। ७, ९ स्वराट् पंक्तिः। ११ निचृत्पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक पापाचा त्याग, धर्माचे आचरण व यथार्थ ज्ञान धारण करून जगाच्या कल्याणासाठी पुष्कळ विज्ञान प्रसृत करतात तसे तुम्ही वागा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    What is that knowledge and expertise, what sort after all, by which, let me hear, you, mighty majestic and most versatile, somehow achieve success and victory again and again, and by which, being the greatest breaker and destroyer of sin and evil and crime, you bear and bring plenty of wealth for the generous celebrant?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a highly learned preachers are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! the wisest great scholar can thoroughly distinguish between the untruth and truth. He gives wealth to a liberal devotee for blotting out away all sin and guilt. He performs repeatedly all good actions with great wisdom and power. I heard your reputation about it and try to follow your example.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty to emulate the absolutely truthful learned persons by giving up sins, observing the rules of righteousness, in order to acquire true and positive knowledge and thereafter to disseminate that special knowledge among others for the welfare of the whole world, and the community.

    Foot Notes

    (शचिष्ठः ) अतिशयेन प्रासः । शचीति प्रज्ञानाम् ( NG 3, 9 ) शचीति नाम (NG 2, 1) = The wisest. (विचयिष्ठः) अतिशयेन वियोजकः । = Effacer, He who blots out.

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