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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि यो र॑र॒प्श ऋषि॑भि॒र्नवे॑भिर्वृ॒क्षो न प॒क्वः सृण्यो॒ न जेता॑। मर्यो॒ न योषा॑म॒भि मन्य॑मा॒नोऽच्छा॑ विवक्मि पुरुहू॒तमिन्द्र॑म् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । यः । र॒रप्शे । ऋषि॑ऽभिः । नवे॑भिः । वृ॒क्षः । न । प॒क्वः । सृण्यः॑ । न । जेता॑ । मर्यः॑ । न । योषा॑म् । अ॒भि । मन्य॑मानः । अच्छ॑ । वि॒व॒क्मि॒ । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । इन्द्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि यो ररप्श ऋषिभिर्नवेभिर्वृक्षो न पक्वः सृण्यो न जेता। मर्यो न योषामभि मन्यमानोऽच्छा विवक्मि पुरुहूतमिन्द्रम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। यः। ररप्शे। ऋषिऽभिः। नवेभिः। वृक्षः। न। पक्वः। सृण्यः। न। जेता। मर्यः। न। योषाम्। अभि। मन्यमानः। अच्छ। विवक्मि। पुरुऽहूतम्। इन्द्रम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो नवेभिर्ऋषिभिर्वि ररप्शे वृक्षो न पक्वः सृण्यो न जेता मर्य्यो योषां न प्रजामभिमन्यमानोऽस्ति तं पुरुहूतमिन्द्रं यथाऽहमच्छा विवक्मि तथैनं यूयमप्युपदिशत ॥५॥

    पदार्थः

    (वि) (यः) (ररप्शे) स्तूयते। अत्र रभधातोर्लिटि सस्य शः। (ऋषिभिः) वेदार्थविद्भिः (नवेभिः) नूतनाऽध्ययनैः (वृक्षः) (न) इव (पक्वः) परिपक्वफलादिः (सृण्यः) प्राप्तबलाः सुशिक्षिताः सेनाः (न) इव (जेता) जेतुं शीलः (मर्यः) मनुष्यः (न) इव (योषाम्) स्त्रियम् (अभि) आभिमुख्ये (मन्यमानः) जानन् (अच्छा) संहितायामिति दीर्घः। (विवक्मि) विशेषेणोपदिशामि (पुरुहूतम्) बहुभिः स्तुतम् (इन्द्रम्) प्रशंसितगुणधरम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! ये आप्तेषु प्राप्तप्रशंसो वृक्ष इव दृढोत्साहफल एकाकी सेनावद्विजयमानः पतिव्रता भार्यावत् प्रजाप्रीतो भवेत् तं प्रशंसितं राजानं यूयम्मन्यध्वम् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (नवेभिः) नवीन अध्ययनकर्त्ता (ऋषिभिः) वेदार्थ के जाननेवालों से (वि, ररप्शे) स्तुति किये जाते हो (वृक्षः) वृक्ष के (न) सदृश (पक्वः) पके हुए फल आदि युक्त (सृण्यः) बल को प्राप्त उत्तम प्रकार शिक्षित सेना के (न) सदृश (जेता) जीतनेवाला (मर्य्यः) मनुष्य (योषाम्) स्त्री के (न) तुल्य प्रजा को (अभि, मन्यमानः) प्रत्यक्ष जानता हुआ वर्तमान है, उस (पुरुहूतम्) बहुतों से स्तुति किये गये (इन्द्रम्) प्रशंसित गुणों के धारण करनेवाले को जैसे मैं (अच्छा) उत्तम प्रकार (विवक्मि) विशेष करके उपदेश करता हूँ, वैसे इसको आप लोग भी उपदेश दीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जो यथार्थवक्ता जनों में प्रशंसा को प्राप्त, वृक्ष के सदृश दृढ़ उत्साहरूप फलवान्, अकेला सेना के सदृश जीतनेवाला, पतिव्रता स्त्री के सदृश प्रजा में प्रसन्न होवे, उस प्रशंसित को राजा आप लोग मानो ॥५॥

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    विषय

    वृक्षा न पक्व:

    पदार्थ

    [१] मैं (पुरुहूतम्) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी जिसकी आराधना हमारा पालन व पूरण करती है, उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (अच्छा) = लक्ष्य करके (विवक्मि) = स्तुति शब्दों का उच्चारण करता हूँ। (यः) = जो प्रभु (नवेभिः) = [नव् गतौ] गतिशील-क्रियाशील (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (विररप्शे) = विविध रूपों में स्तुति किया जाता है। वस्तुतः प्रभु का उपासन इसी में है कि हम क्रियाशील बनें और तत्त्वदर्शन के लिए यत्नशील हों। [२] वे प्रभु [क] (वृक्षः न पक्व:) पके हुए फलोंवाले वृक्ष के समान हैं। जिस प्रकार परिपक्व वृक्ष मधुरतम फलों को देनेवाला है, इसी प्रकार वे प्रभु हमारे लिए हितकर मधुर फलों को प्राप्त कराते हैं । [ख] (सृण्वः न जेता) = आयुध [सृणि अंकुश] कुशल पुरुष की तरह वे विजेता हैं। जैसे अंकुश-प्रहार- प्रवीण आधोरण [महावत] मदमत्त हाथी को भी वशीभूत करनेवाला है, उसी प्रकार वे प्रभु सारे ब्रह्माण्ड के वशीभूत करनेवाले हैं। प्रभु का स्मरण हमारी प्रबल वासनाओं को भी कुचल देनेवाला है। [२] वे प्रभु (मर्यः न योषां अभिमन्यमानः) = एक मनुष्य जिस प्रकार पत्नी का आदर करता है, इसी प्रकार हम जीवों का आदर करनेवाले हैं। हमारी उत्तम इच्छाओं को पूर्ण करना ही हमारा आदर है- प्रभु हमारी सब हितकर इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। प्रभु पति हैं, हम पत्नी के रूप में।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु परिपक्व वृक्ष की तरह हमारे लिए मधुर फलों को देनेवाले हैं। आयुध-कुशल पुरुष की तरह हमारी वासनाओं को पराजित करनेवाले हैं। प्रभु पति हैं, हम पत्नी के रूप में। सूचना – यहाँ हम अन्तिम उपमाएँ में रहस्यवादी कविताओं के बीज को पाते हैं।

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    विषय

    पति पत्नी, राजा प्रजा का प्रेम व्यवहार। पति इन्द्रपद वाच्य।

    भावार्थ

    (यः) जिसकी (नवेभिः ऋषिभिः) नये अध्यापक, अध्येता, ज्ञानद्रष्टा पुरुष भी (ररप्श) स्तुति करते हैं। जो (पक्वः वृक्षः न) पके वृक्ष के समान परिपक्व मधुर फलों को देने वाला (सृण्यः जेता न) वेग से जाने वाली सेना, वा आयुधों के सञ्चालन में कुशल पुरुष के तुल्य (जेता) समरविजयी, (योषाम्) युवति को (अभि मन्यमानः) अपनी प्रिय मानने वाले (मर्यः न) पुरुष के समान अपनी प्रजा को अपना मानता हुआ हो। उस (इन्द्रं) ऐश्वर्यवान् (पुरुहूतम्) बहुतों से स्तुत्य पुरुष को (अच्छ विवक्मि) अच्छी प्रकार उपदेश कर वा उसको मैं बहुस्तुत्य ‘इन्द्र’ नाम से पुकारता हूं । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः। ७, ९ स्वराट् पंक्तिः। ११ निचृत्पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो आप्त लोकात प्रशंसित, वृक्षाप्रमाणे दृढ उत्साही फळ देणारा, एकटा सेनेसारखा जिंकणारा, पतिव्रता स्त्रीप्रमाणे प्रजेत प्रसन्न असतो त्या प्रशंसिताला तुम्ही राजा माना. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mighty and full abundant is Indra who is praised and celebrated by the latest sages and scholars like a tree laden with ripe fruit, like a victor putting the enemy to flight. Like a man loving and honouring his beloved, knowing, loving and respecting Indra at the closest and highest, I too celebrate and exalt Indra invoked and glorified by the whole humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of ministers are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I tell you particularly about that virtuous king, who is advised by the new and old ministers, Rishis- students and knowers of the meaning of the Vedas like a tree full of ripe fruits and like the conquering army. He is (happy) like a husband approaching his chaste wife with the desire and getting good progeny.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should accept that noble king who enjoys the praise from absolutely truthful and learned persons. He is like a tree, full of the juicy fruit. He is the conqueror of an army even when single handed, and who is loved by his subjects as a chaste wife is loved by her husband.

    Foot Notes

    (ररप्शे ) स्तूयते = Being praised. (सुण्यः) प्राप्तबला: सुशिक्षिता: सेनाः।सुणिरीति पदनाम (NG 4,2) = Powerful and trained armies. (ऋषिभिः) वेदार्थविदिभिः = By the knowers of the meaning of Vedas.

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