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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न यस्य॑ व॒र्ता ज॒नुषा॒ न्वस्ति॒ न राध॑स आमरी॒ता म॒घस्य॑। उ॒द्वा॒वृ॒षा॒णस्त॑विषीव उग्रा॒स्मभ्यं॑ दद्धि पुरुहूत रा॒यः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यस्य॑ । व॒र्ता । ज॒नुषा॑ । नु । अस्ति॑ । न । राध॑सः । आ॒ऽम॒री॒ता । म॒घस्य॑ । उ॒त्ऽव॒वृ॒षा॒णः । त॒वि॒षी॒ऽवः॒ । उ॒ग्र॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । द॒द्धि॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । रा॒यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यस्य वर्ता जनुषा न्वस्ति न राधस आमरीता मघस्य। उद्वावृषाणस्तविषीव उग्रास्मभ्यं दद्धि पुरुहूत रायः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यस्य। वर्ता। जनुषा। नु। अस्ति। न। राधसः। आऽमरीता। मघस्य। उत्ऽववृषाणः। तविषीऽवः। उग्र। अस्मभ्यम्। दद्धि। पुरुऽहूत। रायः। ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे पुरुहूतोग्र राजन् ! यस्य जनुषा वर्त्ता कोऽपि नास्ति यस्य मघस्य राधस आमरीता न विद्यते। उद्वावृषाणस्तविषीवो विजयी स त्वमस्मभ्यं रायो नु दद्धि ॥७॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (यस्य) (वर्त्ता) निवारकः (जनुषा) जन्मना (नु) (अस्ति) (न) निषेधे (राधसः) धनाऽन्नस्य (आमरीता) समन्ताद्विनाशकः (मघस्य) धनस्य (उद्वावृषाणः) उत्कृष्टतया भृशम्बलकरस्य (तविषीवः) बलवत्सेनावन् (उग्र) प्रतापिन् (अस्मभ्यम्) (दद्धि) देहि (पुरुहूत) बहूनामाह्वयक (रायः) धनानि ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यस्योत्तमकुले जन्म यस्य कुलं प्रशंसितं कर्म्म कृतवद् यस्य संग्रामे विचारे वा रोधको न विद्यते स एव सुखदाता राजाऽस्माकम्भवेदिति वयमिच्छेम ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुतों के पुकारनेवाले (उग्र) प्रतापी राजन् (यस्य) जिसका (जनुषा) जन्म से (वर्त्ता) निवारण करनेवाला कोई भी (न) नहीं (अस्ति) है जिसके (मघस्य) धन और (राधसः) धनरूप अन्न का (आमरीता) सब प्रकार नाश करनेवाला (न) नहीं विद्यमान है। हे (उद्वावृषाणः) उत्तमता से अत्यन्त बल करनेवाले की (तविषीवः) बलयुक्त सेनावान् जीतनेवाला वह आप (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (रायः) धनों को (नु) निश्चय से (दद्धि) दीजिये ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जिसका उत्तम कुल में जन्म और जिसका कुल प्रशंसित कर्म्म किये गये के समान और जिसका संग्राम में वा विचार में रोकनेवाला नहीं है, वही सुख देनेवाला राजा हम लोगों का होवे, ऐसी हम लोग इच्छा करें ॥७॥

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    विषय

    न वर्ता-न आमरीता

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (यस्य) = जिन आपका (वर्ता) = निवारण करनेवाला-आपको अपने कार्यों से रोकनेवाला (जनुषा) = जन्म से स्वभाव से ही (नु) = निश्चयपूर्वक (न अस्ति) = नहीं है । हे प्रभो ! आपके (राधसः) = कार्यों को सिद्ध करनेवाले (मघस्य) = ऐश्वर्य का (आमरीता न) = विनाश करनेवाला कोई नहीं। आपकी शक्ति अप्रतिहत है आपका ऐश्वर्य अनन्त है। [२] हे (तविषीव:) = बलवन् प्रभो ! (उग्र) = तेजस्विन् (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (उद्वावृषाण:) = अत्यन्त धनों का वर्षण करते हुए आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (राय:) = इन दान देने योग्य धनों को (दद्धि) = दीजिए। इन धनों को दान में विनियुक्त करते हुए तपस्वी जीवनवाले हम भी हे प्रभो! आपके ही समान तेजस्वी बनने का यत्न करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अनन्तशक्ति व अनन्त-ऐश्वर्यवाले हैं। प्रभु हमें कार्यसाधक धनों को प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    सेनापति इन्द्र।

    भावार्थ

    (यस्य) जिसका (जनुषा उ) जन्म से ही (वर्त्ता न अस्ति) निवारण करने वाला कोई नहीं है और जिसके (मघस्य) पूज्य ऐश्वर्य और (राधसः) धन अन्नादि का भी (आमरीता न) नाश करने वाला नहीं। हे (तविषीवः) बलवती सेना के स्वामिन् ! हे (उग्र) बलवन् ! हे (पुरुहूत) बहुतों से स्तुत्य ! तू (उद्वावृषाणः) उत्तम सुखों को मेघवत् वर्षाता हुआ या उत्तम पद पर राज्य-प्रबन्ध करता हुआ (अस्मभ्यं) हमें (रायः) नाना धनों को (दद्धि) प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः। ७, ९ स्वराट् पंक्तिः। ११ निचृत्पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्याचा उत्तम कुलात जन्म झालेला असेल व ज्याच्या कुलाने प्रशंसित कर्म केलेले असेल व ज्याला युद्धात किंवा विचारात रोखता येत नाही तोच सुख देणारा आमचा राजा व्हावा अशी आम्ही इच्छा बाळगावी. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    By birth and by nature, there is none to resist him and to turn his back, none to destroy the wealth and power of his glory and majesty. Ever pouring forth the showers of favours, blazing with forces under command, O lord of might and passion, universally invoked and exalted, bear and bring for us the wealths and honours of the good life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the ministers are further highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty king ! you invoke many and are unmatched since you were borne. None can destroy your wealth and food materials, which accomplish many works. Powerful and master of a mighty army, you conquer your enemies and bestow upon us riches.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! we desire to have a king, who gives happiness, who is borne in a noble family, with a glorious past and who is unmatched in the battle or consultation or religions bout.

    Foot Notes

    (राधसः) धनन्नस्य । राध इति धननाम (NG 2, 10) = Of wealth and food materials. (पुरुहूत) बहूनामाह्वयक | = Invoker of many. (वर्त्ता) निवारकः । = Restrainer, opposer. Besides possessing the essential virtues of a king, he should be born in a noble and glorious family of great heroes. It is an additional qualification, but mere birth in a good family is of no use.

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