ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
ईक्षे॑ रा॒यः क्षय॑स्य चर्षणी॒नामु॒त व्र॒जम॑पव॒र्तासि॒ गोना॑म्। शि॒क्षा॒न॒रः स॑मि॒थेषु॑ प्र॒हावा॒न्वस्वो॑ रा॒शिम॑भिने॒तासि॒ भूरि॑म् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठईक्षे॑ । रा॒यः । क्षय॑स्य । च॒र्ष॒णी॒नाम् । उ॒त । व्र॒जम् । अ॒प॒ऽव॒र्ता । अ॒सि॒ । गोना॑म् । शि॒क्षा॒ऽन॒रः । स॒म्ऽइ॒थेषु॑ । प्र॒हाऽवा॒न् । वस्वः॑ । रा॒शिम् । अ॒भि॒ऽने॒ता । अ॒सि॒ । भूरि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईक्षे रायः क्षयस्य चर्षणीनामुत व्रजमपवर्तासि गोनाम्। शिक्षानरः समिथेषु प्रहावान्वस्वो राशिमभिनेतासि भूरिम् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठईक्षे। रायः। क्षयस्य। चर्षणीनाम्। उत। व्रजम्। अपऽवर्ता। असि। गोनाम्। शिक्षाऽनरः। सम्ऽइथेषु। प्रहाऽवान्। वस्वः। राशिम्। अभिऽनेता। असि। भूरिम् ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यतः शिक्षानरस्त्वं प्रहावान् समिथेषु वस्वो भूरिं राशिमभिनेताऽसि चर्षणीनां रायः क्षयस्योत गोनाञ्च व्रजमपवर्त्ताऽसि तमहं राजानमीक्षे ॥८॥
पदार्थः
(ईक्षे) पश्यामि (रायः) धनस्य (क्षयस्य) निवासस्य (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (उत) अपि (व्रजम्) शस्त्राऽस्त्रम् (अपवर्त्ता) अपवारयिता। अत्र तृन् प्रत्ययः। (असि) (गोनाम्) स्तोतॄणाम् (शिक्षानरः) विद्योपादानेन नेता (समिथेषु) संग्रामेषु (प्रहावान्) विजयं प्राप्तवान् (वस्वः) धनस्य (राशिम्) समूहम् (अभिनेता) आभिमुख्यं प्रापयिता। अत्रापि तृन्। (असि) (भूरिम्) बहुविधम् ॥८॥
भावार्थः
स एव राजा दिक्षु कीर्तिमान् भवेद्यो मनुष्येभ्यो विद्यां धनं सुवासं च दत्वा संग्रामादिषु सततं सर्वान् रक्षेत् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जिस कारण (शिक्षानरः) विद्या के देने से नायक आप (प्रहावान्) विजय को प्राप्त तथा (समिथेषु) संग्रामों में (वस्वः) धन के (भूरिम्) बहुत प्रकार के (राशिम्) समूह को (अभिनेता) सम्मुख पहुँचानेवाले (असि) हो और (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (रायः) धन (क्षयस्य) निवास (उत) और (गोनाम्) स्तुति करनेवालों के सम्बन्धी (व्रजम्) शस्त्र-अस्त्रों को (अपवर्त्ता) दूर करनेवाले (असि) हो उनको मैं राजा होने को (ईक्षे) देखता हूँ ॥८॥
भावार्थ
वही राजा दिशाओं में यशस्वी होवे कि जो मनुष्यों को विद्या, धन और उत्तम वास देकर संग्रामादिकों में निरन्तर सब की रक्षा करे ॥८॥
विषय
समिथेषु प्रहावान्
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (रायः) = धनों के तथा (क्षयस्य) = गृहों के (ईक्षे) = देखनेवाले हैं। आप इस बात का ध्यान करते हैं कि श्रमशील मनुष्य को आवश्यक धन व गृह की कमी न रहे 'उसका योगक्षेम ठीक से चलता जाये' इस बात का ध्यान प्रभु करते हैं। (उत) = और आप इन श्रमशील मनुष्यों के (गोवां व्रजम्) = इन्द्रियों के समूह को (अपवर्ता असि) = विषयों से अपावृत्त करनेवाले हैं। इन की इन्द्रियों को आप विषय-वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देते। [२] हे प्रभो! आप (शिक्षानरः) = शिक्षा द्वारा ज्ञान द्वारा प्रजाओं को आगे ले चलनेवाले हैं [नृ नये] । समिथेषु-काम-क्रोध आदि से संग्राम होने पर आप ही प्रहावान् इन शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले अस्त्रोंवाले हैं। इस प्रकार हमारा ज्ञान बढ़ाकर तथा काम-क्रोध आदि को विनष्ट करके आप भूरिम्- बहुत अधिक अथवा भरण-पोषण के लिए पर्याप्त वस्वः राशिम् धनराशि को अभिनेता असि प्राप्त करानेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु श्रमशील मनुष्य को योगक्षेम से वञ्चित नहीं करते। इनकी इन्द्रियों को विषयों से आक्रान्त नहीं होने देते। भरण-पोषण के लिए पर्याप्त धन प्राप्त कराते हैं ।
विषय
दण्ड नायक पालक।
भावार्थ
तू (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (क्षयस्य) रहने के निवास-स्थान राष्ट्र को (ईक्ष) स्वयं देखता है । (उत) और (गोनाम्) गौओं, वाणियों और भूमियों के (व्रजम्) बीच जाने योग्य उत्तम पुर आदि या मार्गों को गौओं के बाड़े को गोपाल के समान (अपवर्त्तासि) रक्षा करने वा खोलने वाला है। तू (समिथेषु) संग्रामों में (शिक्षा-नरः) सब मनुष्यों का शिक्षक, दण्ड नायक ! और (प्रहावान्) प्रेरणा करने, विजय प्राप्त करने हारा और (वस्वः) धनैश्वर्य, राज्य में बसे प्रजाजन के (भूरिम् राशिम्) बहुत बड़े समूह का (अभिनेता) लाने और ले चलने हारा उत्तम नायक (असि) है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८, १० त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः। ७, ९ स्वराट् पंक्तिः। ११ निचृत्पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणसांना विद्या, धन व उत्तम निवास देऊन युद्ध इत्यादींमध्ये निरन्तर सर्वांचे रक्षण करतो, तोच राजा सगळीकडे यशस्वी होतो. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I see you watch over the treasures of the wealth and home of the people and open up the treasures of the languages and learning of the earths. You are the leader of knowledge and education, warrior and victor of wars, and director of the circulation of the collective wealth and assets of the world in many ways.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The essentials of a king are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you are leader of men on account of receiving good education. Being a conqueror in battles, you convey to men much heap of wealth. You never strike weapons over the devoted good men, and guard wealth and dwellings of the people. Therefore, I look upon you as a true king.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only such a king can be illustrious from all yardsticks who protects his people during the battles. He constantly gives knowledge, wealth and dwelling places to men.
Foot Notes
(गोनाम् ) स्तोतणाम् । गौरितिस्तोतनाम (NG 3, 16 ) = Of devotees. (समिथेषु) सङ्ग्रामेषु । समिथे इति संग्राम नाम (NG 2, 17 ) = In battles. (प्रहावान् ) विजयं प्राप्तवान् | = Having achieved victory.
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