ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
ए॒ष दिवं॒ वि धा॑वति ति॒रो रजां॑सि॒ धार॑या । पव॑मान॒: कनि॑क्रदत् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । दिव॑म् । वि । धा॒व॒ति॒ । ति॒रः । रजां॑सि । धार॑या । पव॑मानः । कनि॑क्रदत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष दिवं वि धावति तिरो रजांसि धारया । पवमान: कनिक्रदत् ॥
स्वर रहित पद पाठएषः । दिवम् । वि । धावति । तिरः । रजांसि । धारया । पवमानः । कनिक्रदत् ॥ ९.३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एषः) उक्तः परमात्मा (दिवम्) द्युलोकम् (वि) नानाप्रकारेण (रजांसि) परमाणुपुञ्जस्य (धारया) प्रबलवेगेन (तिरोधावति) आच्छादयति (पवमानः) सर्वेषां पविता परमात्मा (कनिक्रदत्) स्वीयप्रबलगत्या सर्वत्र गर्जति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एषः) उक्त परमात्मा (दिवम्) द्युलोक को (वि) नानाप्रकार से (रजांसि) परमाणुपुञ्ज के (धारया) प्रबल वेगों से (तिरो वि धावति) ढक देता है। (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला परमात्मा (कनिक्रदत्) अपनी प्रबल गति से सर्वत्र गर्ज रहा है ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा नाना प्रकार के परमाणुओं से द्युलोकादि लोक-लोकान्तरों का आच्छादन करता है और अपनी सत्ता से सर्वत्र विराजमान हुआ सबको शुभ मार्ग की ओर बुला रहा है ॥७॥
विषय
रजोगुण से ऊपर
पदार्थ
[१] (एषः) = यह सोम (धारया) = अपनी धारणशक्ति के द्वारा (रजांसि तिरः) = सब राजस भावों को तिरस्कृत करके (दिवम्) = प्रकाशमय सात्त्विकभावों की ओर [सत्वस्य लक्षणं ज्ञानम्] (विधावति) = विशेषरूप से गतिवाला होता है । सोमरक्षण से हम रजोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में प्रवेश करते हैं । [२] यह (पवमानः) = हमारे हृदयों को पवित्र करनेवाला सोम (कनिक्रदत्) = हमारे अन्दर ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करता है मन्त्र पाँच के अनुसार 'आविष्कृणोति वग्वनुम्' । [३] दो मन्त्र में 'अपो विगाहते' इन शब्दों से तमोगुण से ऊपर उठने का संकेत था । यहाँ 'रजांसि तिरः' इन शब्दों से रजोगुण से ऊपर उठने का निर्देश हुआ है। इस प्रकार यह सोम हमें सत्त्वगुण में स्थापित करता है । हम नित्य सत्त्वस्थ बनकर प्रभु के प्रीति पात्र होते हैं ।
विषय
राजा का प्रयाण, विजय और अभिषेक प्राप्ति ।
भावार्थ
(एष:) वह (पवमानः) राष्ट्र को स्वच्छ, एवं शत्रु पर आक्रमण करता हुआ वीर (धारया) वाणी वा शस्त्र की धारा वा अश्वादि की धारा गति से (रजांसि) समस्त लोकों को (तिरः) पराजित करता हुआ (कनिक्रदत्) गर्जता हुआ, (दिवं वि धावति) विजयार्थ विशेष वेग से जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २ विराड् गायत्री। ३, ५, ७,१० गायत्री। ४, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This spirit with the waves of its power rushes and radiates unto the heavens across the skies and atomic oceans of space, pure, purifying and roaring like thunder.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा नाना प्रकारच्या परमाणूंनी द्युलोक इत्यादी लोकलोकान्तरांचे आच्छादन करतो व आपल्या सत्तेने सर्वत्र विराजमान होऊन सर्वांना शुभ मार्गाकडे जाण्याचे संकेत देतो ॥७॥
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