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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 15
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सु॒ब॒र्हिर॒ग्निः पू॑षण्वान्त्स्ती॒र्णब॑र्हि॒रम॑र्त्यः।बृ॒ह॒ती छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं त्रि॑व॒त्सो गौर्वयो॑ दधुः॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ब॒र्हिरिति॑ सु॒ऽब॒र्हिः। अ॒ग्निः। पू॒ष॒ण्वानिति॑ पूष॒ण्ऽवान्। स्ती॒र्णब॑र्हिरिति॑ स्ती॒र्णऽब॑र्हिः। अम॑र्त्यः। बृ॒ह॒ती। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। त्रि॒व॒त्स इति॑ त्रिऽव॒त्सः। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुबर्हिरग्निः पूषण्वान्त्स्तीर्णबर्हिरमर्त्यः । बृहती छन्दऽइन्द्रियन्त्रिवत्सो गौर्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुबर्हिरिति सुऽबर्हिः। अग्निः। पूषण्वानिति पूषण्ऽवान्। स्तीर्णबर्हिरिति स्तीर्णऽबर्हिः। अमर्त्यः। बृहती। छन्दः। इन्द्रियम्। त्रिवत्स इति त्रिऽवत्सः। गौः। वयः। दधुः॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 15
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    यथा पूषण्वान् स्तीर्णबर्हिरमर्त्यः सुबर्हिरग्निरिव जना बृहती छन्दश्चेन्द्रियं दध्यात् त्रिवत्सो गौरिव वयो दध्यात् तथैतद् दधुः॥१४॥

    पदार्थः

    (सुबर्हिः) सुशोभनं बर्हिरन्तरिक्षं यस्मात् सः (अग्निः) पावकः (पूषण्वान्) पूषाणः पुष्टिकरा गुणा विद्यन्ते यस्मिन् (स्तीर्णबर्हिः) स्तीर्णं बर्हिरन्तरिक्षं येन सः (अमर्त्यः) स्वस्वरूपेण मृत्युधर्मरहितः (बृहती) (छन्दः) (इन्द्रियम्) (त्रिवत्सः) त्रीणि देहेन्द्रियमनांसि वत्सा इवानुचराणि यस्य सः (गौः) धेनु (वयः) येन व्येति व्याप्नोति तत् (दधुः) दध्युः॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाग्निरन्तरिक्षे चरति तथा विद्वांसः सूक्ष्मनिराकारपदार्थविद्यायां चरन्ति, यथा गोरनुकूलो वत्सो भवति, तथा विद्वदनुकूला अविद्वांसश्चरन्त्विन्द्रियाणि च वशमानयेयुः॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जैसे (पूषण्वान्) पुष्टि करने हारे गुणों से युक्त (स्तीर्णबर्हिः) आकाश को व्याप्त होने वाला (अमर्त्यः) अपने स्वरूप से नाशरहित (सुबर्हिः) आकाश को शुद्ध करने हारा (अग्निः) अग्नि के समान जन और (बृहती) बृहती (छन्दः) छन्द (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को धारण करें और (त्रिवत्सः) त्रिवत्स अर्थात् देह, इन्द्रिय, मन जिस के अनुगामी वह (गौः) गौ के समान मनुष्य (वयः) तृप्ति को प्राप्त करें, वैसे इस को सब लोग (दधुः) धारण करें॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि अन्तरिक्ष में चलता है, वैसे विद्वान् लोग सूक्ष्म और निराकार पदार्थों की विद्या में चलते हैं, जैसे गाय के पीछे बछड़ा चलता है, वैसे अविद्वान् जन विद्वानों के पीछे चला करें और अपनी इन्द्रियों को वश में लावें॥१५॥

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    भावार्थ

    ( पूषण्वान् ) पृथिवी को धारण करने वाला (अग्नि) सूर्य जिस प्रकार (सु बर्हि) उत्तम रीति से आकाश में व्याप्त है वैसे पुष्टिकारक भूमि और अन्नों से युक्त, अथवा पोषक जनों से युक्त, अग्रणी, ज्ञानवान् पुरुष (सु-बर्हि) उत्तम प्रजा से युक्त होता है । (स्तीर्णबर्हिः) वह पुरुष यज्ञ में वेदि पर कुशाओं को बिछाने वाले यज्ञकर्त्ता के समान पृथिवी पर अपनी प्रजाओं को फैला देता है । वह (अमर्त्यः) अमर हो जाता है । वह सदा प्रजा रूप से जीता रहता है। इसी प्रकार तेजस्वी राजा उत्तम प्रजा वाला, धनधान्य सम्पन्न पोषक अन्न सम्पत्ति और भूमियों और प्रजाओं के पोषक अधिकारियों से युक्त हो । वह शत्रु के नाशकारी क्षात्रबल को फैला कर बैठे वह नाश को प्राप्त नहीं होता । ( बृहती छन्दः ) छत्तीस अक्षरों के बृहती छन्द के समान ३६ वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालक पुरुष ये सब और (त्रिवत्सः गौः) तीन वर्ष के हृष्टपुष्ट बैल के समान युवा पुरुष,(इन्द्रियम् ) ब्रह्मचर्य बल और दीर्घ जीवन को धारण करते हैं । उसी समान - प्रजागण भी राष्ट्र में बल, वीर्य, अन्न और दीर्घ जीवन धारण करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    त्रिवत्सो गौः

    पदार्थ

    १. स्वस्त्यात्रेय के लिए (इन्द्रियम्) = प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति को तथा (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधुः) = धारण करते हैं। कौन ? २. (सुबर्हिः) = [ ओषधयो बर्हिः - ऐ० ५।२८] उत्तम ओषधियों का सेवन करनेवाला, (अग्निः) = उदरस्थ वैश्वानर अग्नि [जाठराग्नि] जो (पूषण्वान्) = हमारा उत्तम पोषण करता है। वस्तुतः शक्ति व उत्कृष्ट जीवन का बहुत कुछ निर्भर इस जाठराग्नि पर ही है। यदि इस जाठराग्नि को उत्तम सात्त्विक ओषधीय भोजन ही प्राप्त होते रहें तभी शरीर का उत्तम पोषण होता है। ३. (स्तीर्णबर्हिः) = [पशवो वै बर्हिः - ऐ० २।४ कामः पशुः, क्रोधः : पशु:, स्तृ= to kill ] नष्ट किये हैं काम-क्रोधादि पशु जिसने, ऐसा (अमर्त्यः) = विषयों के पीछे न मरनेवाला मनुष्य अथवा (स्तीर्ण) = बिछाई है (बर्हिः) = कुशा जिसने, ऐसा यज्ञवेदि पर कुशादि को बिछानेवाला (अमर्त्यः) = रोगों से न मरनेवाला यज्ञशील पुरुष, ४. (बृहती छन्दः) = [बृहि वृद्धौ] निरन्तर बढ़ने की प्रबल भावना, तथा ५. (गौ:) = वह ज्ञान की रश्मि जोकि (त्रिवत्स:) = [त्रीन् वदति ] 'प्रकृति, जीव, परमात्मा' तीनों का ज्ञान देती है। इन तीनों को समझने पर हमारा जीवन-मार्ग निश्चय से प्रशस्त होता है और हम उत्कृष्ट जीवनवाले बनकर अपनी शक्ति का ठीक रक्षण कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. वानस्पतिक पौष्टिक भोजन २. वासना - विनाश व यज्ञशील जीवन ३. निरन्तर आगे बढ़ने की इच्छा, ४. प्रकृति, जीव व परमात्मा का ज्ञान देनेवाली ज्ञानरश्यिमाँ हमारे जीवन को सशक्त व उत्कृष्ट बनाती हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अंतरिक्षात सूक्ष्म अग्नी असतो. तशी विद्वान लोकांची सूक्ष्म व निराकार पदार्थविद्येमध्ये गती असते. जसे पाडस गाईच्या मागे चालते तसे अविद्वान लोकांनी विद्वानांचे अनुसरण करावे व आपल्या इंद्रियांना ताब्यात ठेवावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पूषण्वान्‌) पोषकगुणांनी युक्त (स्तीर्णबर्हिः) आकाशात व्याप्त असणाऱ्या आणि (सुबर्हिः) आकाश शुद्ध करणाऱ्या (अग्निः) अग्नी प्रमाणे (तेजस्वी) असलेल्या (अमर्त्यः) स्वरूपेण अविनाशी असलेला एक महान मनुष्य ज्याप्रमाणे (बृहती) बृहती (छन्दः) (छंदातील मंत्रातील विचारांद्वारे) (इन्द्रियम्‌) जीवनाची लक्षणें धारण करतो आणि (त्रिवत्सः) गायीच्या मागे जसे तिचे वासरू, त्याप्रमाणे तीन पदार्थ म्हणजे शरीर, इंद्रिये आणि मन हे तीन पदार्थ ज्याचे अनुगामी आहेत (हे तीन ज्याला वशीभूत आहेत) तो (गौः) गायी प्रमाणे (शांत व सुस्वभावी) मनुष्य (वयः) तृप्ती व संतोष भाव प्राप्त करतो, सर्व लोकांनी त्याच्याप्रमाणे तृप्ती व संतोषभाव धारण केला पाहिजे ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. जसा अग्नी अंतरिक्षात सर्वत्र गती करतो, तसे विद्वज्जनांची सूक्ष्म आणि निराकार पदार्थांच्या विद्येत (भौतिकशास्त्र अथवा अध्यात्मशास्त्र) गती असते. ज्याप्रमाणे वासरू गायीच्या मागे मागे जातो, तद्वत अविद्वान लोकांनी विद्वानांचे अनुगमन केले पाहिजे ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a learned person, brilliant like fire, air-minded, immortal by nature, gracing the space, and Brihati-metre, realise the significance of soul, and just as persons docile like a cow, control their bodies, organs and minds, so should we all do.

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    Meaning

    Agni, divine light and knowledge omnipresent in space, blazing and beautiful, immortal existence and source of sustenance, and the sagely scholar, master of his body, mind and soul, and the divine speech, these hold the knowledge and the mind and senses for the seekers.

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    Translation

    May the Barhih (i. e. sacred grass) with spread out tresses and the immortal Pusan (the nourisher), the Brhati metre, and the three years old steer bestow long life and vigour (on the aspirant). (1)

    Notes

    Subarhiḥ, शोभनं बर्हि: कांति: यस्य, one with fine splendour. Puṣaṇvān,पूष्णा युक्त:, nourisher. Stirnabarhiḥ, with spread out sacred grass. Or, with spreading flames. Trivatsaḥ, three years old.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যেমন (পূষন্বান্) পুষ্টিকারক গুণে যুক্ত (স্তীর্ণবর্হিঃ) আকাশে যাহা ব্যাপ্ত হয়, সে (অমর্ত্যঃ) স্ব স্বরূপে নাশরহিত (সুবর্হিঃ) আকাশের শুদ্ধ কারক (অগ্নিঃ) অগ্নি সদৃশ ব্যক্তি এবং (বৃহতী) বৃহতী (ছন্দঃ) ছন্দ (ইন্দ্রিয়ম্) জীবের চিহ্নকে ধারণ করিবে এবং (ত্রিবৎসঃ) ত্রিবৎস অর্থাৎ দেহ, ইন্দ্রিয়, মন যাহার অনুগামী সেই (গৌঃ) গো সদৃশ মনুষ্য (বয়ঃ) তৃপ্তি প্রাপ্ত করিবে সেইরূপ ইহাকে সকলে (দধুঃ) ধারণ করিবে ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন অগ্নি অন্তরিক্ষে গমন করে সেইরূপ বিদ্বান্গণ সূক্ষ্ম ও নিরাকার পদার্থ সমূহের বিদ্যায় গমন করে, যেমন গাভির পিছনে বৎস চলে সেইরূপ অবিদ্বান্গণ বিদ্বান্দিগের পিছনে চলিবে এবং স্বীয় ইন্দ্রিয় সকলকে বশে আনিবে ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সু॒ব॒র্হির॒গ্নিঃ পূ॑ষণ্বান্ৎস্তী॒র্ণব॑র্হি॒রম॑র্ত্যঃ ।
    বৃ॒হ॒তী ছন্দ॑ऽইন্দ্রি॒য়ং ত্রি॑ব॒ৎসো গৌর্বয়ো॑ দধুঃ ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সুবর্হিরিত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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