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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 40
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
    0

    होता॑ यक्षद॒ग्नि स्वाहाज्य॑स्य स्तो॒काना॒ स्वाहा॒ मेद॑सां॒ पृथ॒क् स्वाहा॒ छाग॑म॒श्विभ्या॒ स्वाहा॒॑ मे॒षꣳ सर॑स्वत्यै॒ स्वाह॑ऽऋष॒भमिन्द्रा॑य सि॒ꣳहाय॒ सह॑सऽइन्द्रि॒यꣳ स्वाहा॒ग्निं न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॒ सोम॑मिन्द्रि॒यꣳ स्वाहेन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णꣳ सवि॒तारं॒ वरु॑णं भि॒षजां॒ पति॒ꣳ स्वाहा॒ वनस्पतिं॑ प्रि॒यं पाथो॒ न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॑ दे॒वाऽआ॑ज्य॒पा जु॑षा॒णोऽअ॒ग्निर्भे॑ष॒जं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वाहा॑। आज्य॑स्य। स्तो॒काना॑म्। स्वाहा॑। मेद॑साम्। पृथ॑क्। स्वाहा॑। छाग॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। स्वाहा॑। मे॒षम्। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। ऋ॒ष॒भम्। इन्द्रा॑य। सि॒ꣳहाय॑। सह॑से। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। सोम॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। स॒वि॒तार॑म्। वरु॑णम्। भि॒षजा॑म्। पति॑म्। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। भे॒ष॒जम्। पयः॑। सोमः॑ प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदग्निँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाँ स्वाहा मेदसाम्पृथक्स्वाहा छागमश्विभ्याँ स्वाहा मेषँ सरस्वत्यै स्वाहऽऋषभमिन्द्राय सिँहाय सहसऽइन्द्रियँ स्वाहाग्निन्न भेषजँ स्वाहा सोममिन्द्रियँ स्वाहेन्द्रँ सुत्रामाणँ सवितारँवरुणम्भिषजाम्पतिँ स्वाहा वनस्पतिम्प्रियम्पाथो न भेषजँ स्वाहा देवा आज्यपा जुषाणो अग्निर्भेषजम्पयः सोमः परिस्रुता घृतम्मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। अग्निम्। स्वाहा। आज्यस्य। स्तोकानाम्। स्वाहा। मेदसाम्। पृथक्। स्वाहा। छागम्। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। स्वाहा। मेषम्। सरस्वत्यै। स्वाहा। ऋषभम्। इन्द्राय। सिꣳहाय। सहसे। इन्द्रियम्। स्वाहा। अग्निम्। न। भेषजम्। स्वाहा। सोमम्। इन्द्रियम्। स्वाहा। इन्द्रम्। सुत्रामाणमिति सुऽत्रामाणम्। सवितारम्। वरुणम्। भिषजाम्। पतिम्। स्वाहा। वनस्पतिम्। प्रियम्। पाथः। न। भेषजम्। स्वाहा। देवाः। आज्यपा इत्याज्यऽपाः। जुषाणः। अग्निः। भेषजम्। पयः। सोमः परिस्रुतेति परिऽस्रुता। घृतम्। मधु। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 40
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे होतर्यथा होताऽऽज्यस्य स्वाहा स्तोकानां मेदसां स्वाहाऽग्निं पृथक्स्वाहाश्विभ्यां छागं सरस्वत्यै स्वाहा मेषमिन्द्राय स्वाहर्षभं सहसे सिंहाय स्वाहेन्द्रियं स्वाहाग्निं न भेषजं सोममिन्द्रियं स्वाहा सुत्रामाणमिन्द्रं भिषजां पतिं सवितारं वरुणं स्वाहा वनस्पतिं स्वाहा प्रियं पाथो न भेषजं यक्षद् यथावाज्यपा देवा भेषजं जुषाणोऽग्निश्च यक्षत् तथा यानि परिस्रुता पयः सोमो घृतं मधु व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज॥४०॥

    पदार्थः

    (होता) आदाता (यक्षत्) यजेत् (अग्निम्) पावकम् (स्वाहा) सुष्ठु क्रियया (आज्यस्य) प्राप्तुमर्हस्य (स्तोकानाम्) स्वल्पानाम् (स्वाहा) सुष्ठु रक्षणक्रियया (मेदसाम्) स्निग्धानाम् (पृथक्) (स्वाहा) उत्तमरीत्या (छागम्) दुःखं छेत्तुमर्हम् (अश्विभ्याम्) राज्यस्वामिपशुपालाभ्याम् (स्वाहा) (मेषम्) सेचनकर्त्तारम् (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्तायै वाचे (स्वाहा) परमोत्तमया क्रियया (ऋषभम्) श्रेष्ठं पुरुषार्थम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (सिंहाय) यो हिनस्ति तस्मै (सहसे) बलाय (इन्द्रियम्) धनम् (स्वाहा) शोभनया वाचा (अग्निम्) पावकम् (न) इव (भेषजम्) औषधम् (स्वाहा) उत्तमया क्रियया (सोमम्) सोमलताद्योषधिगणम् (इन्द्रियम्) मनः प्रभृतीन्द्रियमात्रम् (स्वाहा) सुष्ठु शान्तिक्रियया विद्यया च (इन्द्रम्) सेनेशम् (सुत्रामाणम्) सुष्ठु रक्षकम् (सवितारम्) ऐश्वर्य्यकारकम् (वरुणम्) श्रेष्ठम् (भिषजाम्) वैद्यानाम् (पतिम्) पालकम् (स्वाहा) निदानादिविद्यया (वनस्पतिम्) वनानां पालकम् (प्रियम्) कमनीयम् (पाथः) पालकमन्नम् (न) इव (भेषजम्) औषधम् (स्वाहा) सुष्ठु विद्यया (देवाः) विद्वांसः (आज्यपाः) य आज्यं विज्ञानं पान्ति रक्षन्ति ते (जुषाणः) सेवमानः (अग्निः) पावक इव प्रदीप्तः (भेषजम्) चिकित्सनीयम् (पयः) उदकम् (सोमः) ओषधिगणः (परिस्रुता) (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) दातः (यज)॥४०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या विद्याक्रियाकौशलयत्नैरग्न्यादिविद्यां विज्ञाय गवादीन् पशून् संपाल्य सर्वोपकारं कुर्वन्ति, ते वैद्यवत्प्रजादुःखध्वंसका जायन्ते॥४०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (होतः) देने हारे जन! जैसे (होता) ग्रहण करने हारा (आज्यस्य) प्राप्त होने योग्य घी की (स्वाहा) उत्तम क्रिया से वा (स्तोकानाम्) स्वल्प (मेदसाम्) स्निग्ध पदार्थों की (स्वाहा) अच्छे प्रकार रक्षण क्रिया से (अग्निम्) को (पृथक्) भिन्न-भिन्न (स्वाहा) उत्तम रीति से (अश्विभ्याम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करने वालों से (छागम्) दुःख के छेदन करने को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (मेषम्) सेचन करने हारे को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए (स्वाहा) परमोत्तम क्रिया से (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (सहसे) बल (सिंहाय) और जो शत्रुओं का हननकर्त्ता उस के लिए (स्वाहा) उत्तम वाणी से (इन्द्रियम्) धन को (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (अग्निम्) पावक के (न) समान (भेषजम्) औषध (सोमम्) सोमलतादि ओषधिसमूह (इन्द्रियम्) वा मन आदि इन्द्रियों को (स्वाहा) शान्ति आदि क्रिया और विद्या से (सुत्रामाणम्) अच्छे प्रकार रक्षक (इन्द्रम्) सेनापति को (भिषजाम्) वैद्यों के (पतिम्) पालन करने हारे (सवितारम्) ऐश्वर्य के कर्त्ता (वरुणम्) श्रेष्ठ पुरुष को (स्वाहा) निदान आदि विद्या से (वनस्पतिम्) वनों के पालन करने हारे को (स्वाहा) उत्तम विद्या से (प्रियम्) प्रीति करने योग्य (पाथः) पालन करने वाले अन्न के (न) समान (भेषजम्) उत्तम औषध को (यक्षत्) संगत करे वा जैसे (आज्यपाः) विज्ञान के पालन करनेहारे (देवाः) विद्वान् लोग और (भेषजम्) चिकित्सा करने योग्य को (जुषाणः) सेवन करता हुआ (अग्निः) पावक के समान तेजस्वी जन संगत करे, वैसे जो (परिस्रुता) चारों ओर से प्राप्त हुए रस के साथ (पयः) दूध (सोमः) औषधियों का समूह (घृतम्) घी (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उन के साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन किया कर॥४०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य क्रिया, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सब के उपकार को करते हैं, वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं॥४०॥

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    विषय

    अधिकार प्रदान और नाना दृष्टान्तों से उनके और उनके सहायकों के कर्तव्यों का वर्णन । अग्नि, तनूनपात्, नराशंस, बर्हि, द्वार, सरस्वती, उषा, नक्ता, दैव्य होता, तीन देवी, त्वष्टा, वनस्पति, अश्विद्वय इन पदाधिकारियों को अधिकारप्रदान ।

    भावार्थ

    (होता) पूर्वोक्त उचित पुरुषों को नियुक्त करने वाला होता विद्वान् (अग्निम् ) अग्रणी सेनापति को (स्वाहा ) उत्तम रीति, सुख्याति और उत्तम वृत्ति से ( यक्षत् ) पद पर नियुक्त करे । (आज्यस्य) प्राप्त होने योग्य, विजयकारी सेनाबल साधन के लिये ( स्तोकानाम् ) खोटी वृत्ति वालों को भी (सु-आहा ) उत्तम शिक्षा द्वारा ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( मेदसाम् ) सिंह आदि के तुल्य एक स्थान पर मिलकर न रहने वाले हिंसक पुरुषों को ( पृथक् ) पृथक् (स्वाहा ) उत्तम शिक्षा और व्यवस्था से युक्त करे । ( अश्विभ्याम्) अश्वि, राष्ट्र में व्यापक, बड़े दो पदों के लिये ( छागम् ) प्रजाओं के दुःखों और दुष्टों के गर्वों के काटने में समर्थ पुरुष को (स्वाहा ) उत्तम वृत्ति देकर ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( सरस्वत्यै मेषम् ) सरस्वती, प्रशस्त ज्ञान वाली स्त्री के लिये जिस प्रकार वीर्यवान् समर्थ पुरुष को प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों की विद्वत्सभा के लिये (मेषम् ) प्रतिष्पर्द्धा से टक्कर लेने वाले, ज्ञान जलों के वर्षक और विद्वान् पुरुषों को नियुक्त करे । (इन्द्राय) इन्द्र, राजा पद के लिये ( ऋषभम् ) मेघ के समान प्रजाओं पर सुखवर्षक, सौम्य पुरुप को ( यक्षत् ) नियुक्त करे । इसी प्रकार (सिंहाय) सिंह के समान बलशाली पुरुष के योग्य (सहसे) शत्रु को पराभव करने वाले बल कार्य के लिये ( इन्द्रियम् ) इन्द्र महाराज पद योग्य, ऐश्वर्यवान्, शत्रु के पराजेता बली पुरुष को (स्वाहा ) उत्तम वृत्ति, भूमि एवं मान द्वारा ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( अग्निं न ) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानी पुरुष को (भेषजम् ) दोष को दूर करने वाले औषध के समान (स्वाहा ) उत्तम आदर से (यक्षत् ) नियुक्त करे । (सोमम् इन्द्रियम् ) सोम, राजा पद को भी इन्द्र, शत्रुनाशक बलधारी पुरुष के समान ही (स्वाहा ) उत्तम मान आदर से (यक्षत् ) युक्त करे । (इन्द्रम् ) शत्रुहन्ता, (सुत्रामाणाम् ) उत्तम प्रजा के रक्षक, ( सवितारम् ) सब के प्रेरक ( वरुणम् ) सर्वश्रेष्ठ सबके वरण योग्य पुरुष को ( भिषजां पतिम् ) सर्व दोषों के चिकित्सकों ज्ञानवान् पुरुषों के भी पालक बनाकर उनको ( स्वाहा ) उत्तम रीति से ( यक्षत् ) नियुक्त करे । ( प्रियम् पार्थः न ) प्रिय, मनोहारी अन्न के समान, (वनस्पति) महावृक्ष के समान सर्वाश्रय दाता ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( भेष- जम् ) उपद्रवों को शान्त करने वाले औषध के समान जानकर ( स्वाहा ) आदर से ( यक्षत् ) रक्खे । (देवाः) देव, विजिगीषु लोग सभी (आज्यपाः) संग्राम के विजयकारी पदों के पालक हों । (जुषाणः) आदरपूर्वक नियुक्त (अग्नि) ज्ञानी विद्वान् नेता ही ( भेषजम् ) औषध के समान राष्ट्र शरीर के सब अंगों को शान्त स्वस्थ रखता है । ( पयः सोमः ० इत्यादि) पूर्ववत् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निचृदत्यष्टिः । गान्धारः ।

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    विषय

    अग्नि-यजन

    पदार्थ

    १. (होता) = यज्ञ करके यज्ञशेष खानेवाला व्यक्ति (अग्निं यक्षत्) = अग्नि का यजन करता है, अर्थात् अग्निहोत्र करता है। इस अग्निहोत्र के लिए वह (स्वाहा) = [स्व + हा] अपने धन व स्वार्थ का त्याग करता है, सारा स्वयं ही नहीं खा लेता। २. यह अग्निहोत्र के समय अग्नि में (आज्यस्य स्तोकानां स्वाहा) = घृत के कणों की आहुति देता है और (मेदसां पृथक् स्वाहा) = विविध ओषधियों के (मेदस्) = गूदे की अलग-अलग आहुति देता है। उदाहरणार्थ (अश्विभ्याम्) = प्राणापान की वृद्धि के उद्देश्यसे होनेवाले यज्ञ में (छागं स्वाहा) = अजमोद ओषधि के मेदस् की आहुति देता है। सरस्वत्यै ज्ञानाधिदेवता के लिए (मेषं स्वाहा) = मेढ़ासिंगी ओषधि के गूदे की आहुति देता है। इन्द्राय इन्द्र की शक्ति के विकास के लिए (सिंहाय) = सिंह के समान शत्रुओं का अभिभव करनेवाला बनने के लिए तथा (सहसे) = अत्यन्त बलवान्, बलरूप बनने के लिए (भेषजं स्वाहा) = ऋषभक ओषधि के मेदस् की आहुति देता है । [ मेदस् वह भाग है जिसमें medicinal = ओषध के गुण प्रचुर मात्रा में निहित होते हैं। ] ३. (इन्द्रियं स्वाहा) = इस स्वाहा की क्रिया से, अर्थात् अग्निहोत्र से यह होता (इन्द्रियं यक्षत्) = प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति को अपने साथ सङ्गत करता है। ४. (अग्निं न भेषजं स्वाहा) = [न=च] और इस अग्निहोत्र से उस अग्नि को अपने साथ सङ्गत करता है जो उसके लिए औषध के समान होता है । ५. (सोमम् इन्द्रियं स्वाहा) = इस यज्ञक्रिया से यह उस सोम को, वीर्य को, अपने साथ सङ्गत करता है जो सोम इसकी इन्द्रिय-शक्तियों को बढ़ानेवाला होता है। ६. (स्वाहा) = इस स्वार्थत्यागरूप यज्ञ की क्रिया से यह (इन्द्रम्) = उस आत्मशक्ति को अपने साथ सङ्गत करता है जो आत्मशक्ति (सुत्रामाणम्) = बड़ी उत्तमता से अपना त्राण करती है और इस मानव-जीवन को रोगों व वासनाओं का शिकार नहीं होने देती । (सवितारम्) = यह अपने साथ सविता - निर्माण की देवता को सङ्गत करता है जो निर्माण की देवता (वरुणम्) = वरुण है, सब प्रकार के द्वेषों का निवारण करनेवाली है और (भिषजा पतिम्) = सबसे मुख्य वैद्य है। मनुष्य निर्माणात्मक कार्यों में लगे हों तो जहाँ वे परस्पर द्वेष नहीं करते वहाँ नाना प्रकार के रोगों के शिकार भी नहीं होते। द्वेष व रोग आलसियों को ही अपना शिकार बनाते हैं। ७. (स्वाहा) = यज्ञक्रिया से यह होता (वनस्पतिम्) = वनस्पति को अपने साथ सङ्गत करता है जो वनस्पति (प्रियं पाथः) = बड़ा तृप्तिकारक व कमनीय अन्न होता है [पाथ:- शरीररक्षक अन्न] (न) = और (भेषजम्) = औषध होता है। ८. (देवा:) = देव लोग (आज्यपाः) = घृत का पान करनेवाले होते हैं, वे घृत का सेवन करते हैं। यह घृत का विधिवत् प्रयोग उनके मलों का क्षरण करनेवाला होता है और उनके ज्ञान को दीप्त करता है । ९. (जुषाणः अग्निः) = प्रीतिपूर्वक सेवन किया जाता हुआ (अग्निः भेषजम्) = औषध होता है। अग्निहोत्र सब रोगों को दूर करनेवाला होता है। १०. यह होता प्रार्थना करता है कि (पयः सोमः) = दूध व सोमरस (परिस्स्रुता) = फलों के रस के साथ (घृतं मधु) = घृत और शहद (व्यन्तु) = हमें प्राप्त हों। ११. प्रभु इस होता से कहते हैं कि (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू (आज्यस्य यज) = घृत का यजन करनेवाला बन। खा, परन्तु अग्निहोत्र अधिक कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- होता पुरुष प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, अग्नि में घृत के कणों को डालता है और साथ ही प्राणापान के लिए अजमोद आदि ओषधियों के मध्यभाग की भी आहुतियाँ देता है, ज्ञानवृद्धि के लिए मेढ़ासिंगी तथा इन्द्र शक्ति के विकास के लिए ऋषभक ओषधि की आहुतियाँ भी देता है। देव लोग घृतादि सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करते हैं, परन्तु उनकी आहुतियाँ अधिक देते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्या व कर्मकुशलतेद्वारे प्रयत्नपूर्वक अग्निविद्या जाणतात, तसेच गाई इत्यादी पशूंचे चांगल्याप्रकारे पालन करून सर्वांवर उपकार करतात ती वैद्याप्रमाणे प्रजेचे दुःख नाहीसे करतात.

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    विषय

    पुनश्च, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -हे (होतः) दान देण्याचा (स्वभाव) असलेल्या मनुष्या, (तू हे लक्षात घे की) ज्याप्रमाणे (होता) कोणी ग्रहण करणारा (चांगले ते स्वीकारण्याची प्रवृत्ती असलेला) माणूस (आज्यस्य) हवन करण्यास योग्य अशा तुपाची (स्वाहा) उत्तमप्रकारे आहुती देतो (अथवा तुपापासून उत्तम लाभ घेतो) आणि (स्तोकानाम्‌) (मेदसाम्‌) किंचित स्निग्ध असलेल्या पदार्थांचे (स्वाहा) उत्तम पद्धतीने रक्षण करतो (तसे तूही करीत जा) तसेच (अग्निम्‌) अग्नी या भौतिक पदार्थाचा (पृथक) वेगवेगळ्या (स्वाहा) पद्धतीने आणि (अश्विभ्याम्‌) राज्याधिपती व पशुपालक लोकांद्वारे (छागम्‌) दुःखाचा नाश करून घेण्यासाठी (सरस्वतै) विज्ञान मुक्त वाणीचा (मधुर व ज्ञान पूर्णभाषेचा) (स्वाहा) उत्तमप्रकारे उपयोग करतो (तद्वत तूही करीत जा) (मेषम्‌) सेचन करणाऱ्या पासून (उत्पत्ति वा निर्माण करण्यास सक्षम अशा) लोकांपासून (इन्द्राय) परमेश्वर्य प्राप्तीसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया (करून घ्यावी) तसेच (ऋषभस्य) श्रेष्ठ पुरूषार्थासाठी (सहसे) बलप्राप्ती आणि (सिंहाय) शत्रूहन्ता वीरासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करावी. (इन्द्रियम्‌) धनासाठी (स्वाहा) उत्तम कर्में करावीत (अग्निम्‌) (न) अग्नीप्रमाणे (भेषजम्‌) औषधी (सोमलता आदी) औषधीसमूह (यांच्यावर उत्तम क्रिया करावी) (इन्द्रियम्‌) अथवा मन आदी इंद्रियांना (स्वाहा) शांत रीतीने आणि योग्य पद्धतीने (वशीभूत करावे) (सुत्रामाणम्‌) श्रेष्ठ रक्षणकर्ता (इन्द्रम्‌) सेनापतीला आणि (भिषजाम्‌) वैद्यांचे (पतिम्‌) पालकाला तसेच (सवितारम्‌) ऐश्वर्यदाता (वरूणम्‌) श्रेष्ठ पुरूषाला (स्वाहा) (निदान, माणूस-परीक्षण-आपले-परके असे भेद ओळखून) (आपलेसे करावे) (वनस्पतिम्‌) वनांचे पालन (वा रक्षण) करणाऱ्याला (स्वाहा) उत्तम विद्या (देऊन आपले करावे) (प्रियम्‌) सर्वांना प्रिय आणि (पाथः) पालन करणाऱ्या अन्ना (न) प्रमाणे (भेषजम्‌) उत्तम औषधींच्या (यक्षत्‌) संग्रह करावा अशाप्रकारे (आज्यपाः) विश्रामानुसार वागणाऱ्या (देवाः) विद्वानांनी (भेषजम्‌) उपचार व योग्य व्यवहारचे (जुषाणः) सेवन करीत (अग्निः) अग्नीप्रमाणे संयोग करावा. (तसेच, हे यजमान) तुम्हाला (परिस्रुता) सर्व प्रदेशांतून आणलेले रस, (पयः) दूध, (सोमः) औषधी समूह (घृतम्‌) तूप आणि (मधु) मध (व्यन्तु) प्राप्त होतील, त्या पदार्थांसह तू (आज्यस्य) तुपाने (यज) होम करीत जा. ॥40॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. जे लोक विद्या (तंत्रज्ञान), क्रिया-कौशल्य (शास्त्रोक्त पद्धती) आणि प्रयत्न यांद्वारे अग्नी आदी पदार्थांचे पूर्ण ज्ञान प्राप्त करतात, गौ आदी पशूंचे चांगल्याप्रकारे पालन करतात आणि अशाप्रकारे सर्वांवर उपकार करतात, ते लोक वैद्यजन जसे रोगांचा नाश करतात, तद्वत प्रजेच्या दुःखांचा नाश करतात ॥40॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a learned person makes the best use of ghee, takes due care of minor unctuous objects, uses fire in diverse nice ways, takes the help of state officials and cattle-breeders for the removal of suffering through cultured speech ; properly utilises a well built person for acquiring supremacy, avails of enterprise send strength for helping the slayer of foes, amasses wealth by honest means, treats fire as a healer like medicine, pacifies mind with tranquillity and knowledge, cures through pathology the army general, a good guardian j and a wealthy person, a patron of physicians ; instructs with his knowledge the protectors of forests, and endears like corn a lovable medicine ; and just as learned devotees of science, brilliant like fire, serve and consult a physician, so shouldst thou O sacrificer, procure juices, milk, medicinal herbs, ghee and honey, and perform Havan with them and chiefly butter.

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    Meaning

    Let the man of yajna perform the yajna in honour of Agni in all sincerity. Let him in truth of word and action offer ghee in a stream of libations. Let him offer libations of fat and meda plant and roots in all sincerity with reverence. Let him faithfully offer sanative and palliative materials for the Ashvinis, protectors of society. Let him work on the clouds and rain with the light of the divine word of knowledge. Let him offer sincere drive and action in the service of the mighty Indra, the ruler. Let him offer money and materials for the strength and perseverance of the human nation in sincerity of word and action. Let him work on agni, heat and fire with love and faith, taking energy as saviour. Let him serve the lord of peace and joy in service of his grace and majesty with full faith. Let him serve Indra, lord of power, saviour and protector, Savita, giver of life and light, Varuna, the supreme lord, and the lord president of all physicians, with all might and honesty. Let him make the oblations for the chief of forests, vegetation and water, a darling friend and fellow traveller, with love, as for a soothing medicine. And all the powers of divinity, lovers, protectors and promoters of food and nourishments, and Agni, lord of light and energy, would bring around restorative and curative medicaments, milk and delicious drinks, soma, the nectar juice distilled from nature, butter and ghee and honey. These would follow and flow upon the earth. Man of yajna, make the yajna offers with the best of ghee

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    Translation

    Let the priest offer oblations to Agni (fire) with the utterance of svaha. Drops of melted butter; swaha. Separately the drops of fatty oil; svaha. A goat to the twin healers; svaha. A ram to the divine Doctress; svaha. A strong bull to the resplendent one; svaha. Manly vigour to the courageous lion; svaha. Fire and the remedy; svaha. Cure-juice and manly vigour; svaha. The resplendent one, the good protector, the impeller, the venerable, the lord of physicians; svaha. The Lord of vegetation, pleasing food, the medicine; svaha. The enlightened ones,enjoyers of melted butter, the adorable accepting the medicine; svaha. Let them enjoy milk, pressed out cure-juice,butter and honey. O priest, offer oblations of melted butter. (1)

    Notes

    Ājyasya stokānām, drops of ghee. Medasām, (drops) of fatty oil. Chagam, goat. Meşam, ram. Rṣabham, bull. Indrāya sinhāya sahase, सिंहरूपाय बलात्मकाय इन्द्राय, to Indra, who is lion-like, and the strength incarnate. Na is to be interpreted as ca, meaning 'and'. Somam indriyam, सोमं इंद्रियं बलं च,cure-juice and manly vigour. Priyam pathaḥ,इष्टं अन्नं, pleasing food. Varuņam bhiṣajām patim, to Varuna, the Lord of physi cians. Agnir bhesajam juṣāṇaḥ, the adorable one taking medi cine or treatment.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহণকারী (আজ্যস্য) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য ঘৃতের (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা অথবা (স্তোকানাম্) স্বল্প (মেদসাম্) স্নিগ্ধ পদার্থের (স্বাহা) উত্তম রীতিপূর্বক রক্ষণ ক্রিয়া দ্বারা (অগ্নিম্) অগ্নিকে (পৃথক্) ভিন্ন-ভিন্ন (স্বাহা) উত্তম রীতি পূর্বক (অশ্বিভ্যাম্) রাজ্যের স্বামী এবং পশুপালনকারীদের দ্বারা (ছাগম্) দুঃখছেদন করিবার জন্য (সরস্বত্যৈ) বিজ্ঞানযুক্ত বাণীর জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়াপূর্বক (মেষম্) সেচনকারীকে (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য হেতু (স্বাহা) পরমোত্তম ক্রিয়া দ্বারা (ঋষভম্) শ্রেষ্ঠ পুরুষার্থকে (সহসে) বল (সিংহায়) এবং যে শত্রুহন্তা তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম বাণী দ্বারা (ইন্দ্রিয়ম্) ধনকে (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া পূর্বক (অগ্নিম্) পাবকের (ন) সমান (ভেষজম্) ঔষধ (সোমম্) সোমলতাদি ওষধিসমূহ (ইন্দ্রিয়ম্) বা মনাদি ইন্দ্রিয়কে (স্বাহা) শান্তি আদি ক্রিয়া ও বিদ্যা দ্বারা (সুত্রামাণম্) উত্তম প্রকার রক্ষক (ইন্দ্রম্) সেনাপতিকে (ভিষজাম্) বৈদ্যদিগের (পতিম্) পালনকারী (সবিতারম্) ঐশ্বর্য্যের কর্ত্তা (বরুণম্) শ্রেষ্ঠ পুরুষকে (স্বাহা) নিদানাদি বিদ্যা দ্বারা (বনস্পতিম্) বনগুলিকে পালনকারীকে (স্বাহা) উত্তম বিদ্যা দ্বারা (প্রিয়ম্) প্রীতি করিবার যোগ্য (পাথঃ) পালনকারী অন্নের (ন) সমান (ভেষজম্) উত্তম ঔষধকে (য়ক্ষৎ) সঙ্গতি করিবে অথবা যেমন (আজ্যপাঃ) বিজ্ঞানের পালনকর্ত্তা (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ এবং (ভেষজম্) চিকিৎসা করিবার যোগ্যকে (জুষাণঃ) সেবা করিয়া (অগ্নিঃ) পাবক সমান তেজস্বী ব্যক্তি সঙ্গতি করিবে, সেইরূপ যাহা (পরিস্রুতা) চারি দিক্ দিয়া প্রাপ্ত রস সহ (পয়ঃ) দুধ (সোমঃ) ওষধিসমূহ (ঘৃতম্) ঘৃত (মধু) মধু (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হউক তাহাদিগের সহিত বর্ত্তমান তুমি (আজ্যস্য) ঘৃতের (য়জ) হবন করিতে থাক ॥ ৪০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্যগণ বিদ্যা, ক্রিয়া-কুশলতা ও প্রযত্ন দ্বারা অগ্ন্যাদি বিদ্যাকে জানিয়া গাভি আদি পশুদিগের ভাল প্রকার পালন করিয়া সকলের উপকার করে, তাহারা বৈদ্যের সমান প্রজার দুঃখনাশক হইয়া থাকে ॥ ৪০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হোতা॑ য়ক্ষদ॒গ্নিᳬं স্বাহাऽऽজ্য॑স্য স্তো॒কানা॒ᳬं স্বাহা॒ মেদ॑সাং॒ পৃথ॒ক্ স্বাহা॒ ছাগ॑ম॒শ্বিভ্যা॒ᳬं স্বাহা॑ মে॒ষꣳ সর॑স্বত্যৈ॒ স্বাহ॑ऽঋষ॒ভমিন্দ্রা॑য় সি॒ꣳহায়॒ সহ॑সऽইন্দ্রি॒য়ꣳ স্বাহা॒গ্নিং ন ভে॑ষ॒জꣳ স্বাহা॒ সোম॑মিন্দ্রি॒য়ꣳ স্বাহেন্দ্র॑ꣳ সু॒ত্রামা॑ণꣳ সবি॒তারং॒ বর॑ুণং ভি॒ষজাং॒ পতি॒ꣳ স্বাহা॒ বনস্পতিং॑ প্রি॒য়ং পাথো॒ ন ভে॑ষ॒জꣳ স্বাহা॑ দে॒বাऽআ॑জ্য॒পা জু॑ষা॒ণোऽঅ॒গ্নির্ভে॑ষ॒জং পয়ঃ॒ সোমঃ॑ পরি॒স্রুতা॑ ঘৃ॒তং মধু॒ ব্যন্ত্বাজ্য॑স্য॒ হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । পূর্বস্য বিরাডত্যষ্টিশ্ছন্দঃ, স্বাহেন্দ্রমিত্যুত্তরস্য চাত্যষ্টিশ্ছন্দঃ । উভয়ত্র গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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