यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 50
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - अश्व्यादयो देवताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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दे॒वीऽउ॒षासा॑व॒श्विना॑ सु॒त्रामेन्द्रे॒ सर॑स्वती।बलं॒ न वाच॑मा॒स्यऽउ॒षाभ्यां॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५०॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वीऽइति॑ दे॒वी। उ॒षासौ॑। उषसा॒वित्यु॒षसौ॑। अ॒श्विना॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। इन्द्रे॑। सर॑स्वती। बल॑म्। न। वाच॑म्। आ॒स्ये᳖। उ॒षाभ्या॑म्। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५० ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवीऽउषासावश्विना सुत्रामेन्द्रे सरस्वती । बलन्न वाचमास्य उषाभ्यान्दधुरिन्द्रियँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवीऽइति देवी। उषासौ। उषसावित्युषसौ। अश्विना। सुत्रामेति सुऽत्रामा। इन्द्रे। सरस्वती। बलम्। न। वाचम्। आस्ये। उषाभ्याम्। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यथा देवी उषासौ सुत्रामा सरस्वत्यश्विना वसुवने वसुधेयस्येन्द्रे बलं नास्ये वाचमुषाभ्यमिन्द्रियं च दधुः सर्वान् व्यन्तु च तथा त्वं यज॥५०॥
पदार्थः
(देवी) देदीप्यमाने (उषासौ) सायंप्रातः सन्धिवेले अत्रान्येषामपीत्युपधादीर्घः (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (सुत्रामा) सुष्ठु रक्षकौ (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (सरस्वती) विज्ञाननिमित्ता स्त्री (बलम्) (न) इव (वाचम्) (आस्ये) मुखे (उषाभ्याम्) उभयवेलाभ्याम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः (दधुः) दध्युः (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) धनसेविने (वसुधेयस्य) धनाधारस्य (व्यन्तु) (यज)॥५०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पुरुषार्थिनो मनुष्याः सूर्यचन्द्रसन्ध्यावन्नियमेन प्रयतन्ते, सन्धिवेलायां शयनाऽऽलस्यादिकं विहायेश्वरस्य ध्यानं कुर्वन्ति ते पुष्कलां श्रियं प्राप्नुवन्ति॥५०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जैसे (देवी) निरन्तर प्रकाश को प्राप्त (उषासौ) सायंकाल और प्रातःकाल की सन्धिवेला वा (सुत्रामा) भलीभांति रक्षा करने वाले (सरस्वती) विशेष ज्ञान की हेतु स्त्री (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (वसुवने) धन की सेवा करने वाले के लिए (वसुधेयस्य) जिस में धन धरा जाय उस व्यवहारसम्बन्धी (इन्द्रे) उत्तम ऐश्वर्य में (न) जैसे (बलम्) बल को वैसे (आस्ये) मुख में (वाचम्) वाणी को वा (उषाभ्याम्) सायंकाल और प्रातःकाल की वेला से (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें और सब को (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुषार्थी मनुष्य सूर्य-चन्द्रमा सांयकाल और प्रातःकाल की वेला के समान नियम के साथ उत्तम उत्तम यत्न करते हैं तथा सायंकाल और प्रातःकाल की वेला में सोने और आलस्य आदि को छोड़ ईश्वर का ध्यान करते हैं, वे बहुत धन को पाते हैं॥५०॥
विषय
उक्त अधिकारियों के स्थान, मान, पद और उनका ऐश्वर्यवृद्धि का कर्तव्य ।
भावार्थ
( सरस्वती देवी उषासा) स्त्री जिस प्रकार प्रकाशमान प्रातः और सायं दोनों कालों को (इन्द्रे) उत्तम परिपालक पति के निमित्त अर्पण करती हैं उसी प्रकार (सरस्वती) विद्वत्सभा (उपासा देवी) दिव्य गुण - वाली दिन रात्रि प्रातः सायं दोनों कालों को (इन्द्रे) इन्द्र, राजा के निमित्त व्यय करे । और (सुत्रामा) उत्तम रक्षक स्वरूप (अश्विना) प्राण और उदान जिस प्रकार शरीर में ( आस्ये वाचम् ) मुख में वाणी को धारण कराते हैं उसी प्रकार उक्त अश्वी, पदाधिकारी ( उषाभ्याम् ) दोनों कालों, दिन और रात ( बलं दधतुः) बल को धारण करावें । और . (इन्द्रियं वसुबने ० ) पूर्ववत् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिष्टुप | धैवतः ॥
विषय
मुख में वाक्शक्ति
पदार्थ
१. (देवी) = दिव्य गुणों से युक्त व देदीप्यमान (उषासौ) = [सायं प्रातः संधिवेले- द०] सायं व प्रात: के सन्धिकाल तथा (सुत्रामा) = उत्तमता से त्राण व रक्षण करनेवाले (अश्विना) = प्राणापान तथा (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता (इन्द्रे) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता पुरुष के (आस्ये) = मुख में (बलम्) = बल को (न) = और (वाचम्) = वाणी की शक्ति को धारण करते हैं। २. ये प्राणापान तथा ज्ञान (उषाभ्याम्) = इन सन्धिवेलाओं के साथ इसमें (इन्द्रियम्) = सब इन्द्रियों के बल को (दधुः) = धारण करते हैं। प्रातः - सायं वाणी उद्गीथ का गायन करती है और यह गायन उसे बल प्राप्त कराता है। ३. (वसुवने) = निवासक तत्त्वों को प्राप्त करने के लिए (वसुधेयस्य) = वीर्य का (व्यन्तु) = पान करें, अर्थात् उसे शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें। ४. इसी दृष्टिकोण से प्रभु कहते हैं कि यज हे मनुष्य! तू यज्ञशील बन।
भावार्थ
भावार्थ- प्रात:- सायं उद्गीथ का गायन करनेवाली वाणी प्राणापान की साधना से तथा ज्ञान की आराधना से सबल बनती है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी पुरुषार्थी माणसे सूर्य, चंद्र, प्रातःकाळी सायंकाळ या वेळेप्रमाणे नियमात राहून प्रयत्न करत असतात, तसेच सकाळी व संध्याकाळी निद्रा आणि आळस सोडून ईश्वराचे ध्यान करतात त्यांना खूप धन प्राप्त होते.
विषय
मनुष्यांनी कसे वागावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान्, ज्याप्रमाणे (देवीः) निरंतर प्रकाशित असणाऱ्या (उषासौ) सायंकाळ आणि प्रातःकाळाच्या दोन वेळा तसेच (सुत्रामा) उत्तमप्रकारे रक्षा करणारे (सैनिक वा राजपुरूष) आणि (सरस्वती) विशेष ज्ञानवती स्त्री आणि (अश्विना) सूर्य-चंद्र हे दोघे (वसुवने) धन-प्राप्ती व धनोपभोग करणाऱ्या मनुष्यासाठी (वसुधेयस्य) (असे कर्म वा व्यवहार करण्यास प्रवृत्त करतात की) त्यामुळे धन-संपदा मिळते. (धन प्राप्तीसाठी इच्छुक व्यक्ती सायंकाळी, सकाळी, सूर्य-चंद्राच्या प्रकाशात दिवसा-रात्री यत्न करत विदुषी स्त्रियांचे मार्गदर्शन घेतात व राजपुरुषांचे रक्षण मिळवतात) (तसे तूही यत्न कर) (इन्द्रे) श्रेष्ठ ऐश्वर्य मिळाल्या नंतर (न) ज्याप्रमाणे (बलम्) शक्ती तसेच (आस्ये) मुखात (याचम्) उत्तम वाणी (यावी) त्याप्रमाणे (उषाभ्याम्) सायंकाळी व प्रातःकाळी (इन्द्रियम्) धनाला धारण करावे (अर्जनासाठी यत्न करावेत, आणि त्यामुळे सर्वांना तो धन (व्यन्तु) प्राप्त व्हावे. (वा होते) हे विद्वान, आपणदेखील त्याप्रमाणे आपले व्यवहार वा कर्म नियमित करा. ॥50॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. ज्याप्रमाणे सूर्य आणि चंद्र सकाळी व संध्याकाळी निश्चित नियमांप्रमाणे सर्वांच्या कल्याणासाठी यत्न करतात (प्रकाश, उष्णता व प्रेरणा देतात) त्याप्रमाणे जे लोक सायंकाळी वा प्रातःकाळी निद्रा आणि आलस्य आदीचा त्याग करून ईश्वराचे ध्यान धरतात, ते प्रभूत धनाची प्राप्ती करण्यात यशस्वी होतात ॥50॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, just as lustrous morning and evening, protection-affording sun, moon and an educated wife, for one aspiring after the acquisition of wealth, for his acquiring the treasure of riches, like speech in the mouth, grant him strength and wealth morning and evening, and behave likewise unto all, so shouldst thou be conversant with all dealings.
Meaning
The divine energy of the early dawn and the evening twilight, the protective Ashvinis, health powers of sunlight and the moon-rays, and Sarasvati, enlightened mother spirit of life, with the morning¬ evening cycle of time, bless Indra, man of yajna with strength, noble speech in the mouth as also the lustre of life for glory. Thus, to the blessed man come all the wealths of existence for the enjoyment of life. Man of yajna, live on with the spirit of sacrifice and enlightenment. Relent not ever.
Translation
The two divine Usas, the twin healers, that are good protectors, and the divine Doctress give to the aspirant force and speech in his mouth and through two Usas, they give him manly vigour. At the time of distribution of wealth, may they obtain store of wealth (for us). Offer oblations. (1)
Notes
Uşāsau, नक्तोषासौ, night and dawn. Sutrāmā, शोभनत्राणौ, good protectors, or life-savers. Balain na vācamāsye, मुखे बलं वाणीं च, strength and power of speech in his mouth.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যাঃ কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্য কেমন ব্যবহার করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! যেমন (দেবী) নিরন্তর প্রকাশ প্রাপ্ত (উষাসৌ) সায়ংকাল ও প্রাতঃকালের সন্ধিবেলা অথবা (সুত্রামা) ভালমত রক্ষাকারী (সরস্বতী) বিশেষ জ্ঞানের হেতু নারী (অশ্বিনা) সূর্য্য ও চন্দ্র (বসুবনে) ধনের সেবাকারীদের জন্য (বসুধেয়স্য) যন্মধ্যে ধন পূর্ণ করা হয় সেই ব্যবহার সম্বন্ধীয় (ইন্দ্রে) উত্তম ঐশ্বর্য্যে (ন) যেমন (বলম্) বলকে সেইরূপ (আস্যে) মুখে (বাচম্) বাণীকে অথবা (উষাভ্যাম্) সায়ংকাল ও প্রাতঃকালের বেলা দ্বারা (ইন্দ্রিয়ম্) ধনকে (দধুঃ) ধারণ করিবে এবং সকলকে (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হউক সেইরূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সঙ্গতি করিতে থাক ॥ ৫০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব পুরুষকার সম্পন্ন মনুষ্য সূর্য্য, চন্দ্র, সায়ংকাল ও প্রাতঃকালের বেলার সমান নিয়ম সহ উত্তমোত্তম চেষ্টা করে তথা সায়ংকাল ও প্রাতঃকালের বেলায় শয়ন ও আলস্যাদি ত্যাগ করিয়া ঈশ্বরের ধ্যান করে, তাহারা পুষ্কল ধন প্রাপ্ত করে ॥ ৫০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বীऽউ॒ষাসা॑ব॒শ্বিনা॑ সু॒ত্রামেন্দ্রে॒ সর॑স্বতী । বলং॒ ন বাচ॑মা॒স্য᳖ऽউ॒ষাভ্যাং॑ দধুরিন্দ্রি॒য়ং ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য ব্যন্তু॒ য়জ॑ ॥ ৫০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবী উষাসাবিত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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