अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
प्र यद्भन्दि॑ष्ठ एषां॒ प्रास्माका॑सश्च सू॒रयः॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । भन्दि॑ष्ठ: । ए॒षा॒म् । प्र । अ॒स्माका॑स: । च॒ । सू॒रय॑: । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्भन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरयः। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । भन्दिष्ठ: । एषाम् । प्र । अस्माकास: । च । सूरय: । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जिस प्रकार से (एषाम्) इन प्राणियों के मध्य (भन्दिष्ठः) अत्यन्त सुखी होकर (प्र) प्रकृष्ट [होजाऊँ] (च) और (अस्माकासः) हमारे (सूरयः) विद्वान् लोग (प्र) प्रकृष्ट [होवें] [उसी प्रकार से] (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य शुभ कर्मों में प्रवृत्त होकर दरिद्रता आदि दुःखों को मिटावें ॥३॥
टिप्पणी
३−(प्र) प्रकर्षेण भवानि (यत्) यथा (भन्दिष्ठः) भदि कल्याणे सुखे स्तुतौ च-तृच्, इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१५४। इति तृ लोपः। भन्दना भन्दतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ५।२। स्तोतृतमः सुखितमः (एषाम्) मनुष्यादिप्राणिनां मध्ये (प्र) प्रकर्षेण भवन्तु (अस्माकासः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति अस्मद्-अण्। तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ। पा० ४।३।२। इति अस्माकादेशः। अणि वृद्ध्यभावश्छान्दसः। असुगागमश्च। आस्माकः। अस्मदीयाः (च) (सूरयः) अ० २।११।४। विद्वांसः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
लोकहितप्रवृत्ति व सजन-संग
पदार्थ
१. (यत्) = क्योंकि मैं (एषाम) = इन मनुष्यों का (प्रभन्दिष्ठः) = [भदि कल्याणे सुखे च] अधिक से-अधिक कल्याण व सुख करनेवाला हूँ च और (अस्माकास:) = हमारे साथ मेलवाले लोग (प्रसूरयः) = प्रकृष्ट ज्ञानी हैं, अर्थात् हम ज्ञानियों के सम्पर्क में ही उठते-बैठते हैं, अत: (न:) = हमारा (अघम्) = पाप (अप) = हमसे पृथक होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए। २. पाप को दूर करने के लिए आवश्यक है कि [क] हम लोकहित के कर्मों में लगे रहें, आराम की वृत्ति आई तो पाप भी आये, [ख] हम सदा ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें, उन्हीं के साथ हमारा उठना बैठना हो। सत्सङ्ग पाप से बचाता है, कुसंग पाप में फँसाता है।
भावार्थ
पाप से बचने के लिए हम लोकहित के कामों में लगे रहें और सदा सत्संग में रहें।
भाषार्थ
(एषाम्) इनमें से (यद्) जो मैं (प्र) प्रकृष्ट (भन्दिष्ठः) कल्याणकारी हूँ, (च) और (अस्माकास:) हमारे (सूरय:) प्रेरक विद्वान् भी (प्र) प्रकृष्ट हैं, [इसलिए] (अघम्) पाप को (अप) अपगत करके (नः शोशुचत्) मुझ अग्नि की शोचि या तू अग्नि-परमेश्वर हमें पवित्र करता है।
टिप्पणी
[पवित्रता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को भी प्रकृष्ट कल्याण-मार्गी होना चाहिए, और समाज के प्रेरक विद्वानों को भी कल्याणमार्गी होना चाहिए, तब हम सबको परमेश्वर पवित्र कर देता है। परमेश्वर अग्नि है, अग्नि दाहक गुणवाला है। वह हम सबके पापों को दग्ध कर हमें पवित्र कर देता है। भन्दिष्टः= भदि कल्याणे सुखे च (भ्वादिः)। सुरय:= षू प्रेरणे (तुदादिः), प्रेरक विद्वान्। प्रेरक विद्वान् जब कल्याणमार्गी हो जाते हैं, तब प्रजाजन भी कल्याण मार्गी हो जाते हैं]
विषय
पाप नाश करने की प्रार्थना।
भावार्थ
(एषां) इन हमारे समस्त विद्वान् कल्याणकारियों में से (यत्) क्योंकि प्रभो ! आप ही (भन्दिष्ठः) सब से अधिक सुखकारी और कल्याणकारी हैं और (अस्माकासः सूरयः च) हमारे विद्वान् भी कल्याणकारी हैं। उनके संग में रख कर (नः अधम् अप शोशुचत्) हमारे पापों को दूर करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। पापनाशनोऽग्निर्देवता। १-८ गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cleansing of Sin and Evil
Meaning
O Agni, lord of light and power, burn off our sins and let us shine in purity. As you are the highest honoured and exalted of these that are your radiations, which are our heroes too and brilliant guides, pray cleanse us of our sins and evil and let us shine in purity.
Translation
Among our people, here is the most devoted worshipper who speaks highly of you, and similarly, all our learneds pay you alone their homage. May your light gleam away our sins. (Also Rg. 1.97.3)
Translation
O Lord ! As you are the most benevolent our these Wells wishers and our learned men are also favorable to us so remove our evils far from us.
Translation
O God, of all our well-wishers, Thou art the best. May learned persons he our well-wishers. Keeping us in their company, destroy Thou our sins!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(प्र) प्रकर्षेण भवानि (यत्) यथा (भन्दिष्ठः) भदि कल्याणे सुखे स्तुतौ च-तृच्, इष्ठन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१५४। इति तृ लोपः। भन्दना भन्दतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ५।२। स्तोतृतमः सुखितमः (एषाम्) मनुष्यादिप्राणिनां मध्ये (प्र) प्रकर्षेण भवन्तु (अस्माकासः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति अस्मद्-अण्। तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ। पा० ४।३।२। इति अस्माकादेशः। अणि वृद्ध्यभावश्छान्दसः। असुगागमश्च। आस्माकः। अस्मदीयाः (च) (सूरयः) अ० २।११।४। विद्वांसः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal