अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 6
त्वं हि वि॑श्वतोमुख वि॒श्वतः॑ परि॒भूर॑सि। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । वि॒श्व॒त॒:ऽमु॒ख॒ । वि॒श्वत॑: । प॒रि॒ऽभू: । असि॑ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । विश्वत:ऽमुख । विश्वत: । परिऽभू: । असि । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(हि) जिस कारण से (विश्वतोमुख) हे सब ओर मुखवाले [मुख के समान सर्वोपदेशक, सर्वोत्तम] परमेश्वर ! (त्वम्) तू (विश्वतः) सब ओर से (परिभूः) व्यापक (असि) है। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर के समान (विश्वतोमुख) होकर सदा चैतन्य रहें और अनिष्टों को मिटा कर अपनी वृद्धि करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(त्वम्) (हि) (विश्वतोमुख) हे मुखवत् सर्वोपदेशक, सर्वोत्तम, परमात्मन् (विश्वतः) सर्वतः (परिभूः) अ० ३।२१।४। ग्रहीता व्यापकः (असि) अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
विश्वतोमुख प्रभु का उपासन
पदार्थ
१. हे (विश्वतोमुख) = सब ओर मुखोंवाले परामात्मन्! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (विश्वत:) = सब और से (परिभू:) = हमारे रक्षक (असि) = हैं [परिभू-परिग्रहीता]। चारों ओर से आक्रमण करनेवाले इन शत्रुओं को विश्वतोमुख आप ही नष्ट कर सकते हो। २.हे प्रभो। आपके रक्षण में (अघम्) = यह पाप (न:) = हमसे (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए। किसी भी ओर से पाप का आक्रमण हो, ये विश्वतोमुख प्रभु उसका नाश करते ही हैं। अन्दर-ही-अन्दर पैदा हो जानेवाले [मनसिज] कामादि शत्रु भी हृदयस्थ प्रभु के तेज से दग्ध हो जाते हैं।
भावार्थ
विश्वतोमुख प्रभु का उपासन हमें सब ओर से रक्षित करता है, हमपर पापों का आक्रमण नहीं होने देता।
भाषार्थ
(विश्वतोमुख) हे सब ओर मुखोंवाले परमेश्वराग्नि! (त्वम्) तू (हि) निश्चय से (विश्वतः) विश्व में (परिभूः) सब ओर सत्तावाला (असि) है। (अप नः शोशुचत् अघम्) परमेश्वराग्नि पापों को अपगत करके, दग्ध करके, उसकी शोचि या परमेश्वराग्नि हमें पवित्र कर देती है।
टिप्पणी
[विश्वतः= सार्वविभक्तिक: तसि, अत: विश्वतः है विश्वस्मिन्। परमेश्वर विश्वतोमुख है, परमेश्वर की सत्ता को पवित्र जानकर, उसकी प्रत्येक रचना द्वारा उपासक, उसके सदुपदेशों को मानो सुनता है, अतः प्रत्येक रचना को मुख कहा है। इन सदुपदेशों को सुननेवालों के पाप दग्ध हो जाते हैं, और वे पवित्र हो जाते हैं। परिभूः= परि+भू सत्तायाम् (भ्वादिः)।]
विषय
पाप नाश करने की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (विश्वतः-मुख) सर्वव्यापक, सब ओर से एक २ वस्तु से उपदेश देने वाले ! आप (विश्वतः) सब प्रकार से (परि-भूः असि) सर्वत्र व्यापक और सब पर शक्तिशाली हो, इसलिये आप (नः अधम् अप शोशुचत्) हमारे पापों को दूर करो।
टिप्पणी
“सहस्रशीर्षाः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्” इति (यजुर्वेद अ० ३६)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। पापनाशनोऽग्निर्देवता। १-८ गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cleansing of Sin and Evil
Meaning
Agni, you are the light, universal presence, all watching lord supreme over the worlds of existence. Burn off our sins and let us shine in purity.
Translation
You, with your face tumed in all-directions, are circumbient from all sides. May your light flash our pain away. (Alsc Rg. 1.97.6)
Translation
O God ! Thy face is everywhere and Thou art pervading all directions. Remove our evils far from us.
Translation
O All-pervading God, Thou art triumphant everywhere. Destroy Thou our sins! (850)
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(त्वम्) (हि) (विश्वतोमुख) हे मुखवत् सर्वोपदेशक, सर्वोत्तम, परमात्मन् (विश्वतः) सर्वतः (परिभूः) अ० ३।२१।४। ग्रहीता व्यापकः (असि) अन्यत् पूर्ववत् ॥
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