अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
ऋषिः - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
5
सोमो॒ राजा॑ प्रथ॒मो ब्र॑ह्मजा॒यां पुनः॒ प्राय॑च्छ॒दहृ॑णीयमानः। अ॑न्वर्ति॒ता वरु॑णो मि॒त्र आ॑सीद॒ग्निर्होता॑ हस्त॒गृह्या नि॑नाय ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑: । राजा॑ । प्र॒थ॒म: । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । पुन॑: । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । अहृ॑णीयमान: । अ॒नु॒ऽअ॒र्ति॒ता । वरु॑ण: । मि॒त्र: । आ॒सी॒त् । अ॒ग्नि: । होता॑ । ह॒स्त॒ऽगुह्य॑ । आ । नि॒ना॒य॒ ॥१७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छदहृणीयमानः। अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निर्होता हस्तगृह्या निनाय ॥
स्वर रहित पद पाठसोम: । राजा । प्रथम: । ब्रह्मऽजायाम् । पुन: । प्र । अयच्छत् । अहृणीयमान: । अनुऽअर्तिता । वरुण: । मित्र: । आसीत् । अग्नि: । होता । हस्तऽगुह्य । आ । निनाय ॥१७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(अहृणीयमानः) क्रोध नहीं करते हुए, (प्रथमः) मुख्य (राजा) राजा (सोमः) बड़े ऐश्वर्यवान् परमात्मा ने (पुनः) अवश्य (ब्रह्मजायाम्) ब्रह्मविद्या को (प्रायच्छत्) दान किया है। (वरुणः) श्रेष्ठ, (मित्रः) सर्वप्रेरक (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुष (अन्वर्तिता) अनुकूलगामी और (होता) ग्रहीता (आसीत्) था और (हस्तगृह्य) हाथ में लेकर [वही उसे] (आ निनाय) लाया ॥२॥
भावार्थ
परम कुपालु परमात्मा ने वेदविद्या प्रदान की है, जिसको बुद्धिमान् पुरुष आदरपूर्वक ग्रहण करते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(सोमः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (राजा) शासकः (प्रथमः) मुख्यः (ब्रह्मजायाम्) जनेर्यक्। उ० ५।१११। इति जन जनने−यक् आत्वम्, टाप् च। यद्वा। जायतिर्गतिकर्मा−निघ० २।१४। जै गतौ−घञ्, टाप्। ये धातवो गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः। जनयति उत्पादयति सुखानि या, यद्वा, जायति जानाति यया सा जाया विद्या। ब्रह्मणः परमेश्वरस्य जायां वेदविद्याम् (पुनः) अवश्यम् (प्र) प्रकर्षेण (अयच्छत्) अदात् (अहृणीयमानः) हृणीङ् रोषे लज्जायां च−शानच्। अक्रुध्यन् (अन्वर्तिता) ऋत गतौ−तृच्। अनुकूलं गन्ता (वरुणः) श्रेष्ठः (मित्रः) प्रेरकः (आसीत्) अभवत् (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुषः (होता) आदाता (हस्तगृह्य) नित्यं हस्ते पाणावुपयमने। पा० १।४।७७। इति हस्ते शब्दस्य गतिसंज्ञायां ग्रह−ल्यप्, एकारलोपश्छान्दसः। हस्ते गृहीत्वा (आ निनाय) आनीतवान् ॥
विषय
हस्तगृह्या निनाय
पदार्थ
१. जीव यद्यपि प्रभु को भूल जाता है तो भी प्रभु उसपर (अहृणीयमानः) क्रोध नहीं करते [हणीयते-to be Angry]| प्रभु राजा-शासक है, परन्तु (सोमः) = अत्यन्त सौम्य हैं, शान्त है। (प्रथम:) = वे अधिक-से-अधिक विस्तारवाले [सर्वव्यापक] हैं। प्रभु इस व्यक्ति के लिए (ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छत) = वेदवाणीरूप पत्नी को फिर से प्राप्त कराते हैं। २. वे प्रभु (वरुण:) = सब बुराइयों का निवारण करनेवाले, (मित्र:) = मृत्यु व पाप से बचानेवाले हैं। वे प्रभु रक्षा के लिए (अन्वर्तिता आसीत्) = हमारे पीछे-पीछे आनेवाले हैं। माता छोटे बच्चे के साथ-साथ चलती है, ताकि गिरने लगे तो वह उसे बचा ले। इसीप्रकार ये वरुण व मित्र प्रभु हमारे साथ-साथ चल रहे हैं। वे होता-सब साधनों के देनेवाले (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (हस्तगृह्या) = हाथ से पकड़कर (निनाय) = मार्ग पर ले-चलते हैं। माता जिस प्रकार बालक की अंगुली पकड़कर चलाती है, उसी प्रकार प्रभु इसे आश्रय देकर आगे ले-चलते हैं।
भावार्थ
प्रभु शासक होते हुए भी क्रोध नहीं करते। वे प्ररेणा व आश्रय देकर हमें आगे ले-चलते हैं।
भाषार्थ
(राजा) राजमान (सोमः) सौम्य स्वभाव ( प्रथम: ) प्रथम था, जिसने कि (अहृणीयमानः) विना लज्जा के (ब्रह्मजायाम्) ब्रह्म और वेद के वेत्ता को जाया को (पुनः) फिर (प्रायच्छत्) वापस कर दिया। इसके (अन्वतिता) पश्चात् आनेवाला (आमीत्) था (वरुणः) कमों में श्रेष्ठपन, (मित्रः) और मित्र भावना; परन्तु ( अग्निः) यज्ञाग्नि (होता) निजहस्त प्रदान कर, (हस्तगृह्य) पाणिग्रहणपूर्वक, (आनिनाय) अपने गृह में इसे ले आया।
टिप्पणी
[शैशवावस्था में कन्या सौम्यस्वभाववाली होती है, अतः उसका पति या अधिपति सोम कहा है [पति= पा रक्षणे ]। तदनन्तर उसमें सदाचार और अनाचार की विवेक-भावना जागरित होती है। जिसेकि वरुण द्वारा सूचित किया है, वरुण =श्रेष्ठ। कालान्तर में मित्र अर्थात् स्नेही-जीवन-संगी की कामना प्रकट होती है। अन्त में वैवाहिक अग्नि, मानो होता बनकर, पाणिग्रहण की विधिपूर्वक उसे विवाहित कर पतिगृह में ले-आती है। मन्त्र में इस प्रक्रम की अवस्थाओं को पुरुषरूप में वर्णित किया है। इन अवस्थाओं के अधिक वर्णन के लिए देखें (अथर्व० १४।२।१-४)१। ब्रह्मजाया= ब्रह्मणः जाया। मन्त्र में 'अवदन्' द्वारा संवाद का कथन हुआ है। उस संवाद में जो निर्णय हुआ उसका कथन मन्त्र २ से सुक्त की समाप्ति तक में है। होता= हु दाने, हस्तप्रदान करना, विवाहार्थ अवलंब प्रदान करना।] [१. अग्नि में पूर्व के पतियों के सम्बन्ध में "हस्तगृह्य" अर्थात् पाणिग्रहण विधि का वर्णन नहीं हुआ। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वकाल के पति "सोम" आदि काल्पनिक हैं, वास्तनिक नहीं, वे केवल कन्या की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से रक्षक मात्र है, विवाहित पति नहीं।]
विषय
ब्रह्मजाया या ब्रह्मशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(सोमः राजा प्रथमः) राष्ट्र का प्रेरक राजा मुखिया अवश्य है, (अहृणीयमानः ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छत्) तो भी वह ब्रह्म को अर्थात् ब्राह्मण को उसकी जायाभूत पृथिवी या सभा का अधिकार पुनः २ देता है। (अन्वर्तिता वरुणः मित्रः आसीत्) उस ब्राह्मण के पीछे चलने वाला मित्र रूप वरुण अर्थात् प्रजा की सम्मति से चुना हुआ राजा होता हैं, (अग्निः होता हस्तगृह्य निनाय) आह्वान करने वाला अग्नि अर्थात् हाथ पकड़ २ कर उन्हें लाता हैं और उन्हें अधिकार सौंपता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मजाया देवताः। १-६ त्रिष्टुभः। ७-१८ अनुष्टुभः। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma-Jaya: Divine Word
Meaning
Soma, the ruling spirit of life, all at peace, having first received the divine Word, gives it on to the sage Brahma in the Sarasvati form. Varuna, the sage of judgement, Mitra, the sage with love, follow, and Agni, dedicated to yajna fire, holds it by hand as in the yajnic ladle and leads it on.
Translation
The Lord of devotional bliss (Soma) is the first to give back the wife of the intellectual without cherishing any malice. There the venerable Lord and the friendly Lord are the followers and the invoker fire-divine leads her seizing by hand.
Translation
At the time of marriage first physical force is the Soma; the negative electricity which gives the wife of Brahamana to him again without any sign of energement. Varuna and Mitra, the night and day or the moon and sun accompany. Ajain, the fire of Yajna becomes hotar; the consumer of oblations who leads her to the bride-groom like a man who leads someone by holding his hand.
Translation
Without reluctance has the Almighty God, verily bestowed the vedic knowledge. A highly gifted philanthropic and learned person willingly accepts it, and takes in hand its propagation.
Footnote
Griffith interprets ब्रह्मजाया as the wife of a Brahmin. The word means the knowledgeof the Vedas, revealed by God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सोमः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (राजा) शासकः (प्रथमः) मुख्यः (ब्रह्मजायाम्) जनेर्यक्। उ० ५।१११। इति जन जनने−यक् आत्वम्, टाप् च। यद्वा। जायतिर्गतिकर्मा−निघ० २।१४। जै गतौ−घञ्, टाप्। ये धातवो गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः। जनयति उत्पादयति सुखानि या, यद्वा, जायति जानाति यया सा जाया विद्या। ब्रह्मणः परमेश्वरस्य जायां वेदविद्याम् (पुनः) अवश्यम् (प्र) प्रकर्षेण (अयच्छत्) अदात् (अहृणीयमानः) हृणीङ् रोषे लज्जायां च−शानच्। अक्रुध्यन् (अन्वर्तिता) ऋत गतौ−तृच्। अनुकूलं गन्ता (वरुणः) श्रेष्ठः (मित्रः) प्रेरकः (आसीत्) अभवत् (अग्निः) ज्ञानवान् पुरुषः (होता) आदाता (हस्तगृह्य) नित्यं हस्ते पाणावुपयमने। पा० १।४।७७। इति हस्ते शब्दस्य गतिसंज्ञायां ग्रह−ल्यप्, एकारलोपश्छान्दसः। हस्ते गृहीत्वा (आ निनाय) आनीतवान् ॥
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