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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
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    ब्रा॑ह्म॒ण ए॒व पति॒र्न रा॑ज॒न्यो॒ न वैश्यः॑। तत्सूर्यः॑ प्रब्रु॒वन्ने॑ति प॒ञ्चभ्यो॑ मान॒वेभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॒ण: । ए॒व । पति॑: । न । रा॒ज॒न्य᳡: । न । वैश्य॑: । तत् । सूर्य॑: । प्र॒ऽब्रु॒वन् । ए॒ति॒ । प॒ञ्चऽभ्य॑:। मा॒न॒वेभ्य॑: ॥१७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्यः। तत्सूर्यः प्रब्रुवन्नेति पञ्चभ्यो मानवेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मण: । एव । पति: । न । राजन्य: । न । वैश्य: । तत् । सूर्य: । प्रऽब्रुवन् । एति । पञ्चऽभ्य:। मानवेभ्य: ॥१७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्राह्मणः) वेदवेत्ता ब्राह्मण (एव) ही (पतिः) रक्षक है, (न)(राजन्यः) क्षत्रिय और (न)(वैश्यः) वैश्य है। (तत्) यह बात (सूर्यः) सर्वप्रेरक परमेश्वर (पञ्चभ्यः) विस्तृत (मानवेभ्यः) मननशील मनुष्यों को (प्रब्रुवन्) कहता हुआ (एति) चलता है ॥९॥

    भावार्थ

    ब्रह्मज्ञानी ही अपनी मानसिक शक्ति से वेद की रक्षा कर सकता है, दूसरे नहीं कर सकते, यह परमेश्वर का वचन है। इसलिये सब मनुष्य मुख्य वेद बल के साथ दूसरे गौण बलों को बढ़ावें ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(ब्राह्मणः) वेदवेत्ता (एव) निश्चयेन (पतिः) रक्षकः (न) निषेधे (राजन्यः) राजेरन्यः। उ० ३।१००। इति राजृ दीप्तौ ऐश्ये च−अन्य। ऐश्वर्यवान्। क्षत्रियः (न) (वैश्यः) विश्-ष्यञ्। विड्भ्यः प्रजाभ्यो मनुष्येभ्यो वा हितः। वणिक्। व्यवहर्ता (तत्) वचनम् (सूर्यः) सविता सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (प्रब्रुवन्) प्रकथयन् (एति) गच्छति (पञ्चभ्यः) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१४७। इति पचि विस्तारे व्यक्तीकारे च−कनिन्। विस्तृतेभ्यः (मानवेभ्यः) मननशीलेभ्यो मनुष्येभ्यः ॥

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    विषय

    ब्राह्मण का सर्वमहान् कर्तव्य

    पदार्थ

    १. वेदवाणी का (पति:) = रक्षक (ब्राह्मणः एव) = ब्राह्मण ही है-वही व्यक्ति जिसका मुख्य कार्य वेदाध्ययन ही है, (न राजन्यः) = न तो प्रजा के रञ्जन में प्रवृत्त क्षत्रिय, (न वैश्यः) = न धन धान्य की प्राप्ति के लिए देश-देशान्तर में प्रवेश करनेवाला वैश्य । क्षत्रिय या वैश्य के पास कार्यान्तर व्यापृति के कारण उतना अवकाश नहीं कि वेद का ही रक्षण करते रहें। ब्राह्मण को और कोई कार्य नहीं, अत: वह इस रक्षण-कार्य को ही करे। ब्रह्म-वेद को अपनाकर ही तो वह ब्राह्मण बनेगा। २. (सूर्य:) = सूर्यसम ज्योति ब्रह्म [प्रभु] (तत्) = ऊपर कही गई बात को (पञ्चभ्यः मानवेभ्यः) = पाँच भागों में बटे हुए [बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अतिशूद्र-'निषाद'] मनुष्यों के लिए प्(रखुवन् एति) = कहते हुए गति करते हैं-सर्वत्र व्याप्त हैं। ३. यहाँ सूर्य का अर्थ सूर्य ही लें तो अर्थ इसप्रकार होगा कि सूर्य पाँचों मनुष्यों के लिए उस बात को कहता हुआ गति करता है, अर्थात् यह बात अत्यन्त स्पष्ट है 'As clear as day light.'

    भावार्थ

    क्षत्रिय राजकार्य में व्याप्त होने से, वैश्य व्यापार में लगे होने से वेदवाणी का रक्षण उस प्रकार नहीं कर सकता जैसाकि एक ब्राह्मण। ब्राह्मण को तो इस ब्रह्म [वेद] को ही जीवन में सुरक्षित करने के लिए यत्नशील होना चाहिए।

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    भाषार्थ

    (ब्राह्मणः एव पतिः) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ही [ब्रह्मजाया का] पति है, (न राजन्यः न वैश्यः) क्षत्रिय और वैश्य नहीं, (तत्) इसे (प्रब्रुवन्) कहता हुआ (सूर्य:१) सूर्य (एति) आता है, (पञ्चभ्यः मानवेभ्यः) पाँचों प्रकार के मनुष्यों के लिए, या विस्तृत मनुष्य जाति के लिए।

    टिप्पणी

    [प्रब्रुवन् = सूर्य जड़ है, वह बोल नहीं सकता, यह कथन कथानक रूप में है। जब क्षत्रिय और वैश्य, गुण-कर्म की दृष्टि से ब्रह्मजाया के विवाह के अयोग्य हैं, तो शूद्र का तो कहना ही क्या ? पञ्चमानवाः= विस्तृत मनुष्यजाति। पञ्च= पचि विस्तारवचने (चुरादिः)। अथवा पञ्चमानवाः = ब्राह्मण (जन्मतः, न तु गुणकर्मतः), क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा वर्णवर्ग से भिन्न निषाद व्यक्ति।] [१. सूर्य का वर्णन इसलिए हुआ है कि विवाह में सूर्य-प्रेक्षण की भी विधि है, जोकि सूर्य के रहते ही सम्पन्न हो सकती है। विवाह के इस काल में गुणकर्मानुसार विवाह के सिद्धान्त की पुष्टि भी करा दी गई है 'प्रब्रुवन् एति' द्वारा।]

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    विषय

    ब्रह्मजाया या ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (ब्राह्मणः एव पतिः) पृथिवी या राष्ट्र-सभा का पति अर्थात् रक्षक, व्यवस्थापक ब्राह्मण ही है (राजन्यः न वैश्यः) न क्षत्रिय है और न वैश्य है। (सूर्यः) वह सूर्य, सर्वप्रकाशक परमात्मा (पञ्चभ्यः) पांचों प्रकार के (मानवेभ्यः) मानवों को (तत् प्रप्रुवन्) एति इस प्रकार उपदेश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मजाया देवताः। १-६ त्रिष्टुभः। ७-१८ अनुष्टुभः। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma-Jaya: Divine Word

    Meaning

    Only the Brahmana, enlightened sage wholly dedicated to Brahma, the Vedic Word, Nature and humanity, and the eternal values without compromise for any reason whatsoever, is the guardian of Brahma Jay a, neither the Kshatriya nor the Vaishya (because the Kshatriya and the Vaishya, occupied, if not preoccupied, with political and economic pressures and problems, are likely to compromise in the interest of survival). Thus says the Sun to and for all the five people as it moves on revealing every thing in its reality. So says Brahma itself which is the all immanent light of life.

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    Translation

    Only the intellectual is her husband, not the warrior prince and nor the businessman (vaisya) - thus the sun comes proclaiming to five types of men (pancabhyo manavebhyah).

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    Translation

    Not even man of Kshatriya varna and not even the man of Vaishya varna but only the Brahmana is the husband of bride in such cases of claimants of betrothal and the sun, as it appears, revealing this fact to the people of five classes(4 varnas and the fifth avarna) rises up.

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    Translation

    Not Vaisya, not Rajanya, nor the Brahman alone is indeed her guardian. God, in His dispensation proclaims this to the five races of mankind.

    Footnote

    Five races: Brahman, Kshatriya, Vaisya, Shudra, Nishada. ‘Rajanya’ means Kshatriya. Brahman One who is well versed in the knowledge of the Vedas. ‘Her’ refers to Vedic knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(ब्राह्मणः) वेदवेत्ता (एव) निश्चयेन (पतिः) रक्षकः (न) निषेधे (राजन्यः) राजेरन्यः। उ० ३।१००। इति राजृ दीप्तौ ऐश्ये च−अन्य। ऐश्वर्यवान्। क्षत्रियः (न) (वैश्यः) विश्-ष्यञ्। विड्भ्यः प्रजाभ्यो मनुष्येभ्यो वा हितः। वणिक्। व्यवहर्ता (तत्) वचनम् (सूर्यः) सविता सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (प्रब्रुवन्) प्रकथयन् (एति) गच्छति (पञ्चभ्यः) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१४७। इति पचि विस्तारे व्यक्तीकारे च−कनिन्। विस्तृतेभ्यः (मानवेभ्यः) मननशीलेभ्यो मनुष्येभ्यः ॥

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