अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 10
ऋषी॑ बोधप्रतीबो॒धाव॑स्व॒प्नो यश्च॒ जागृ॑विः। तौ ते॑ प्रा॒णस्य॑ गो॒प्तारौ॒ दिवा॒ नक्तं॑ च जागृताम् ॥
स्वर सहित पद पाठऋषी॒ इति॑ । बो॒ध॒ऽप्र॒ती॒बो॒धौ । अ॒स्व॒प्न: । य: । च॒ । जागृ॑वि: । तौ । ते॒ । प्रा॒णस्य॑ । गो॒प्तारौ॑ । दिवा॑ । नक्त॑म् । च॒ । जा॒गृ॒ता॒म् ॥३०.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋषी बोधप्रतीबोधावस्वप्नो यश्च जागृविः। तौ ते प्राणस्य गोप्तारौ दिवा नक्तं च जागृताम् ॥
स्वर रहित पद पाठऋषी इति । बोधऽप्रतीबोधौ । अस्वप्न: । य: । च । जागृवि: । तौ । ते । प्राणस्य । गोप्तारौ । दिवा । नक्तम् । च । जागृताम् ॥३०.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(ऋषी) दो देखनेवाले (बोधप्रतीबोधौ) बोध और प्रतिबोध [अर्थात् विवेक और चेतनता] हैं, (यः) जो एक-एक (अस्वप्नः) न सोनेवाला (च) और (जागृविः) जागनेवाला है। (ते) तेरे (प्राणस्य) प्राण के (गोप्तारौ) रखवाले (तौ) वह दोनों (दिवा) दिन (च) और (नक्तम्) रात (जागृताम्) जागते रहें ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्य विवेक और चेतनापूर्वक नित्य सावधान रहकर रक्षा करे ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(ऋषी) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्−निरु० २।१। दर्शकौ (बोधप्रतीबोधौ) विवेकचेतने (अस्वप्नः) निद्राहीनः (यः) यः प्रत्येकः (च) (जागृविः) जॄशॄजागृभ्यः क्विन्। उ० ४।५४। इति जागृ निद्राक्षये−क्विन्। जागरूकः। नृपतिः (तौ) (ते) तव (प्राणस्य) जीवस्य (गोप्तारौ) रक्षकौ (दिवा) दिने (नक्तम्) रात्रौ (च) (जागृताम्) जागृतौ भवताम् ॥
विषय
बोधप्रतीबोधौ
पदार्थ
१. (बोधप्रतीबोधौ) = बोध और प्रतिबोध-बुद्धि व मन-विवेक व चैतन्य-ये दो (ऋषी) = ऋषि है-तेरे जीवन को ध्यान से देखनेवाले हैं। इनमें एक (अस्वप्न:) = न सोनेवाला है (च) = और (यः) = जो दूसरा है वह (जागृविः) = सदा जागता है। विवेक हमें कर्त्तव्य के विषयों में सावधान रखता है और चैतन्य सदा जागरित रखता है। २. (तौ) = वे दोनों (ते प्राणस्य) = तेरे प्राण के (गोसरौ) = रक्षक है, ये (दिवा नक्तं च) = दिन और रात (जागृताम्) = जागते रहें।
भावार्थ
हमारा विवेक व चैतन्य लुप्त न हो। इनका जागरित रहना ही जीवन का रक्षक बनना है।
भाषार्थ
(बोधप्रतीबोधौ) बोध अर्थात् ऐन्द्रियिक ज्ञान, और प्रतीबोध अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान (ऋषी) ये दो ऋषि; (अस्वप्नः) स्वप्न का न होना अर्थात् सुषुप्ति अवस्था, गाढ़ निद्रा और (जागृवि:) दिन में जागते रहना; (तौ) वे दोनों जोड़े, (ते) तेरे (प्राणस्य) प्राण के ( गोप्तारौ ) रक्षक, (दिवा नक्तम् च) दिन और रात (जागृताम्) जागरूक रहें। [रोगोन्मुक्त के प्रति कहा है।]
टिप्पणी
[यजुर्वेद में ७ ऋषि कहे हैं जोकि शरीर में निवास करते हैं, यथा 'सप्तऋषयः प्रतिहिताः शरीरे। (३४।५५)" षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी (निरुक्त १२।४।३७) मन्त्र में बोध और प्रतिबोध को भी ऋषि कहा है।
विषय
आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
(बोध-प्रतीबोधौ) बोध और प्रतिबोध, ज्ञान प्राप्त करने और उसको स्मरण करने की शक्ति, बुद्धि और मन (यः च) जो (ऋषी) सर्व कार्यों के द्रष्टा हैं, दोनों में एक (अस्वप्नः) कभी नहीं सोता और दूसरा मन या अन्तःकरण है वह भी (जागृतिः) सदा जागता रहता है। (तौ) वे दोनों (ते प्राणस्य गोप्तारौ) तुझ जीव के प्राण = जीवन की रक्षा करने वाले (दिवा नक्तं च) दिन और रात सदा (जागृताम्) जागते रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
God Health and Full Age
Meaning
Knowledge and awareness by direct sense experience and inference and by creative response and memory are two visionary guards of personality which never sleep and keep awake. O man, they both are protectors of your life energy. Let these keep awake as life guards for you day and night.
Translation
Apprehension (bodha) and recognition (prati-bodhaa) are the two seers, never-sleeping and always awake. May those two, protectors of your life, keep awake day and night.
Translation
O man! two vital airs maintaining sense and vigilance in the body are sleepless and watchful and these two are the Protectors of your life. Let them active and awakened at day and night.
Translation
O pupil, two sages, sense and vigilance, the sleepless and the watchful one, may these, the protectors of thy life, remain awake both day and night!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(ऋषी) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्−निरु० २।१। दर्शकौ (बोधप्रतीबोधौ) विवेकचेतने (अस्वप्नः) निद्राहीनः (यः) यः प्रत्येकः (च) (जागृविः) जॄशॄजागृभ्यः क्विन्। उ० ४।५४। इति जागृ निद्राक्षये−क्विन्। जागरूकः। नृपतिः (तौ) (ते) तव (प्राणस्य) जीवस्य (गोप्तारौ) रक्षकौ (दिवा) दिने (नक्तम्) रात्रौ (च) (जागृताम्) जागृतौ भवताम् ॥
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