अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
मा बि॑भे॒र्न म॑रिष्यसि ज॒रद॑ष्टिं कृणोमि त्वा। निर॑वोचम॒हं यक्ष्म॒मङ्गे॑भ्यो अङ्गज्व॒रं तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । बि॒भे॒: । न । म॒रि॒ष्य॒सि॒ । ज॒रत्ऽअ॑ष्टिम् । कृ॒णो॒मि॒ । त्वा॒ । नि: । अ॒वो॒च॒म् । अ॒हम् । यक्ष्म॑म् । अङ्गे॑भ्य: । अ॒ङ्ग॒ऽज्व॒रम् । तव॑ ॥३०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मा बिभेर्न मरिष्यसि जरदष्टिं कृणोमि त्वा। निरवोचमहं यक्ष्ममङ्गेभ्यो अङ्गज्वरं तव ॥
स्वर रहित पद पाठमा । बिभे: । न । मरिष्यसि । जरत्ऽअष्टिम् । कृणोमि । त्वा । नि: । अवोचम् । अहम् । यक्ष्मम् । अङ्गेभ्य: । अङ्गऽज्वरम् । तव ॥३०.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(मा बिभेः) तू मत डरे, (न मरिष्यसि) तू नहीं मरेगा। (त्वा) तुझे (जरदष्टिम्) स्तुति के साथ व्याप्ति का भोजनवाला (कृणोमि) मैं करता हूँ। (तव) तेरे (अङ्गेभ्यः) अङ्गों से (अङ्गज्वरम्) अङ्ग-अङ्ग में ज्वर करनेवाले (यक्ष्मम्) राजरोग वा क्षयरोग को (निः=निःसार्य) निकाल कर (अहम्) मैंने (अवोचम्) वचन कहा है ॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य निर्भय होकर धर्म करता है, वह मृत्यु अर्थात् अपकीर्ति से बचकर नाम करता है, जैसे सद्वैद्य महारोग को निकाल कर यश पाता है ॥८॥
टिप्पणी
८−(मा बिभेः) अ० २।१५।१। शङ्कां मा कुरु (न) निषेधे (मरिष्यसि) प्राणान् मोक्ष्यसि (जरदष्टिम्) म० ५। जरता स्तुत्या सह व्याप्तिमन्तं भोजनवन्तं वा (कृणोमि) करोमि (त्वा) पुरुषार्थिनम् (निः) निःसार्य (अवोचम्) उक्तवानस्मि (अहम्) (यक्ष्मम्) अ० २।१०।५। राजरोगम् क्षयम् (अङ्गेभ्यः) अवयवेभ्यः (अङ्गज्वरम्) अङ्गेषु तापकरम् (तव) ॥
विषय
मत डर, तू जाता नहीं
पदार्थ
१. वैद्य रोगी से कहता है कि (मा विभे:) = डर मत, (न मरिष्यसि) = तु मरेगा नहीं। मैं (त्वा) = तुझे (जरदिष्टिं कृणोमि) = पूर्ण जरावस्था तक जीवन को व्याप्त करनेवाला बनाता हूँ। २. (अहम्) = मैं (तव) = तेरे (अड़ेभ्यः) = अङ्गों से (अङ्गज्वरम्) = अङ्गज्वर को तथा (यक्ष्मम्) = यक्ष्मारोग को (निरवोचम्) = बाहर निकाल देता हूँ।
भावार्थ
वैद्य रोगी को उत्साहित करता हुआ कहता है कि मैं तुझे अभी नीरोग किये देता हूँ। तू मरेगा नहीं। डर मत, तू पूर्ण आयुष्य को प्राप्त करेगा।
भाषार्थ
(मा बिभेः) न भयभीत हो, (न मरिष्यसि) नहीं तू मरेगा, (त्वा) तुझे (जरदष्टिम्) जरावस्था को प्राप्त करनेवाला (कृणोमि ) मैं करता हूँ। (तव अङ्गेभ्यः) तेरे अङ्गों से ( अहम् ) मैंने (यक्ष्मम् ) यक्ष्मा रोग को, (अङ्गज्वरम्) तथा शारीरिक ज्वर को, (निर् अवोचम्) निकल जाने के लिए, मैंने कह दिया है।
टिप्पणी
[मनोबलपूर्वक वाणी के प्रयोग द्वारा, रोग के निकल जाने का आदेश मन्त्र में हुआ है। ऐसे आदेशों का वर्णन वेदों में बहुश: हुआ है । उदाहरणार्थ 'अथर्व० ४।१३।५-७)'।]
विषय
आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
रोगभय से मुक्त होने का उपदेश करते हैं ! हे शिष्य ! (मा बिभेः) तू भय मत कर, डर मत। (न मरिष्यसि) तू कभी मरेगा नहीं, क्योंकि (त्वां) तुझ को मैं आचार्य, (जरद्-अष्टिं) वृद्धावस्था तक जीवन बिताने में समर्थ (कृणोमि) करता हूं। (तव अङ्गेभ्यः) तेरे अंगों से (यक्ष्मम्) सब प्रकार के रोगजनक अंश और (अङ्गज्वरं) शरीर के भागों में विद्यमान ज्वर = संताप पीड़ा को (निः अवोचम्) बाहर निकालता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
God Health and Full Age
Meaning
Fear not, you shall not die. I have taught and strengthened you to live a full age of hundred years. I have taught you and I have eliminated the germinal roots of cancer, consumption and fever from every part of your body.
Translation
Do not be afraid. (Fear not). You will not die. I make you able to reach old age. I have driven consumption, waster of limbs, out of your limbs with my words: (nirvocam aham)
Translation
O man! be not alarmed and panicky, you will not die; I make you five matured life and I dispel away the consumption and fever caused in eimbs from your bodily parts.
Translation
O pupil, be not alarmed, thou wilt not die, I give thee lengthened years of life. Forth from thy members I drive consumption that caused thefever there!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(मा बिभेः) अ० २।१५।१। शङ्कां मा कुरु (न) निषेधे (मरिष्यसि) प्राणान् मोक्ष्यसि (जरदष्टिम्) म० ५। जरता स्तुत्या सह व्याप्तिमन्तं भोजनवन्तं वा (कृणोमि) करोमि (त्वा) पुरुषार्थिनम् (निः) निःसार्य (अवोचम्) उक्तवानस्मि (अहम्) (यक्ष्मम्) अ० २।१०।५। राजरोगम् क्षयम् (अङ्गेभ्यः) अवयवेभ्यः (अङ्गज्वरम्) अङ्गेषु तापकरम् (तव) ॥
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