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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
    ऋषिः - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
    1

    अनु॑हूतः॒ पुन॒रेहि॑ वि॒द्वानु॒दय॑नं प॒थः। आ॒रोह॑णमा॒क्रम॑णं॒ जीव॑तोजीव॒तोऽय॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ऽहूत: । पुन॑: । आ । इ॒हि॒ । वि॒द्वान् । उ॒त्ऽअय॑नम् । प॒थ: । आ॒ऽरोह॑णम् । आ॒ऽक्रम॑णम् । जीव॑त:ऽजीवत: । अय॑नम् ॥३०.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः। आरोहणमाक्रमणं जीवतोजीवतोऽयनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽहूत: । पुन: । आ । इहि । विद्वान् । उत्ऽअयनम् । पथ: । आऽरोहणम् । आऽक्रमणम् । जीवत:ऽजीवत: । अयनम् ॥३०.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    आत्मा के उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (पथः) मार्ग के (उदयनम्) चढ़ाव को (विद्वान्) जानता हुआ, (अनुहूतः) प्रीति से बुलाया गया तू (पुनः) फिर (आ इहि) आ। (आरोहणम्) चढ़ना और (आक्रमणम्) आगे बढ़ना (जीवतोजीवतः) प्रत्येक जीव का (अयनम्) मार्ग है ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य उन्नति के उपायों को जानकर सदा बढ़ता रहे जैसे कि चिउंटी आदि छोटे जीव भी ऊँचे चढ़ने में लगे रहते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(अनुहूतः) पुरुषार्थित्वात् प्रीत्या हूतः (पुनः) उत्साहं कृत्वा−इत्यर्थः (आ इहि) आगच्छ (विद्वान्) जानन् (उदयनम्) उद्गमनम् (पथः) मार्गस्य (आरोहणम्) ऊर्ध्वगमनम् (आक्रमणम्) अधिगमनन्। अतिक्रमः (जीवतोजीवतः) जीव प्राणधारणे−शतृ। सर्वस्य प्राणिनः (अयनम्) गतिः। मार्गः ॥

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    विषय

    आरोहणम् आक्रमणम्

    पदार्थ

    १. (अनुहूत:) = माता-पिता व आचार्यों से अनुहुत हुआ-हुआ-'तुझे इधर आना है', इसप्रकार निर्देश किया हुआ तू (पुनः एहि) = फिर गतिवाला हो। (उदयनं विद्वान्) = उत्कृष्ट गति को जानता हुआ तू (पथः) = [एहि] मार्ग से गतिवाला हो-सदा उत्तम मार्ग से चलनेवाला हो। तू इस बात का ध्यान रख कि (आरोहण) = ऊपर चढ़ना व (आक्रमणम्) = विघ्नों को आक्रान्त करके आगे बढ़ना ही (जीवतः जीवत:) = प्रत्येक प्राणधारी का (अयनम्) = मार्ग है। तुझे भी आरोहण व आक्रमण को अपनाना है।

    भावार्थ

    हम अपने बड़ों से निर्दिष्ट मार्ग पर आगे बढ़ें। 'ऊपर उठना और आगे बढ़ना' ही जीवन का मार्ग है-इस बात को समझें।

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    भाषार्थ

    (पथः) जीवन का मार्ग है (उदयनम्) उन्नति की ओर जाना, (विद्वान्) इसे जानता हुआ, (अनु) मृत्युग्रस्त होने के पश्चात् ( हूतः) बुलाया गया, तू (पुनरेहि) फिर वापस आ जा। (आरोहणम् ) जीवन मार्ग पर आरोहण करना, (आक्रमणम्) तत्पश्चात् आगे की ओर पग बढ़ाना (जीवतः जीवतः) प्रत्येक जीवित का ( अयनम् ) जीवनमार्ग है ।

    टिप्पणी

    [उन्नति का मार्ग पर्वत के मार्ग के सदृश ऊंचाईवाला है, अतः 'आरोहण' कहा है। आक्रमणम्= आ+'क्रमु पादविक्षेपे' (भ्वादिः)। पर्वत पर चढ़ना और पर्वत के शिखिर की ओर पग बढ़ाते जाना जीवन का मार्ग है।]

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    विषय

    उन्नति करना प्रत्येक का अधिकार

    शब्दार्थ

    हे मानव ! (पथ:) मार्ग के (उत् अयनम्) चढ़ाव को (विद्वान्) जानता हुआ और (अनुहूतः) प्रोत्साहित किया हुआ तू (पुनः) फिर (एहि) इस पथ पर आरोहण कर क्योंकि (आरोहणम्) उन्नति करना (आक्रमणम्) आगे बढ़ना (जीवत: जीवत:) प्रत्येक जीव का, प्रत्येक मनुष्य का (अयनम्) मार्ग है, उद्देश्य है, लक्ष्य है ।

    भावार्थ

    मन्त्र में हारे-थके और निरुत्साही व्यक्ति के लिए एक दिव्य सन्देश है- १. हे मानव ! यदि तू प्रयत्न करके थक गया है तो क्या हुआ ! तू हतोत्साह मत हो । उत्साह के घट रीते मत होने दे । आशा को अपने जीवन का सम्बल बनाकर फिर इस मार्ग पर आरोहण कर । २. मार्ग की चढ़ाई को देखकर घबरा मत । सदा स्मरण रख कि तेरे लिए चढ़ाई का मार्ग ही नियत है । आशा और उत्साह से इस मार्ग पर आगे-ही-आगे बढ़ता जा । आगे बढ़ना, उन्नति करना ही जीवन-मार्ग है। पीछे हटना, अवनति करना मृत्यु-मार्ग है। पथ कठिन है तो क्या हुआ ! परीक्षा तो कठिनाई में ही होती है । ३. निराश और हताश होने की आवश्यकता नहीं। आगे बढ़, उन्नति कर, क्योंकि आगे बढ़ना और उन्नति करना प्रत्येक जीव का अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति होगी । हाँ, उसके लिए बल लगाने की, पुरुषार्थ करने की तथा निराशा और दुर्बलता को मार भगाने की आवश्यकता है ।

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    विषय

    आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    भावार्थ

    देवमार्ग या उत्तरायणमार्ग का उपदेश करते हैं। (अनुहूतः) विद्वानों से अनुशिष्ट, शिक्षित हो २ कर (पुनः) फिर भी (विद्वान्) ज्ञानी होकर हे शिष्य ! तू (उद् अयनं) ऊपर मोक्षधाम में, उन्नति की तरफ़ ले जाने वाले (पथः) मार्गों को (एहि) प्राप्त हो। (आरोहणं) ऊपर चढ़ना, (आ क्रमणम्) आगे की तरफ बढ़ना, यही (जीवतः-जीवतः) प्रत्येक जीवनयुक्त जीव की (अयनम्) वास्तविक गति है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    God Health and Full Age

    Meaning

    Called again, come again, knowing the path of dawn and ascent. To rise, to go forward on and on that is the orbit of life for every living person.

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    Translation

    Being called back and knowing the ascent of the path, may you come again, Moving upward (arohanam) moving forward (akramanam) (ascent and agression) is the way of each and every living being.

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    Translation

    O man! come again if you are called for according to your deserts knowing the outlet of this path and approach an ascent are the ways of every living man.

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    Translation

    O pupil, taught by the learned, full of knowledge, try again and again to reach the paths of salvation. To rise up and go forward, is the behavior of each living soul!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(अनुहूतः) पुरुषार्थित्वात् प्रीत्या हूतः (पुनः) उत्साहं कृत्वा−इत्यर्थः (आ इहि) आगच्छ (विद्वान्) जानन् (उदयनम्) उद्गमनम् (पथः) मार्गस्य (आरोहणम्) ऊर्ध्वगमनम् (आक्रमणम्) अधिगमनन्। अतिक्रमः (जीवतोजीवतः) जीव प्राणधारणे−शतृ। सर्वस्य प्राणिनः (अयनम्) गतिः। मार्गः ॥

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