अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 14
प्रा॒णेना॑ग्ने॒ चक्षु॑षा॒ सं सृ॑जे॒मं समी॑रय त॒न्वा॒ सं बले॑न। वेत्था॒मृत॑स्य॒ मा नु गा॒न्मा नु भूमि॑गृहो भुवत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णेन॑ । अ॒ग्ने॒ । चक्षु॑षा । सम् । सृ॒ज॒ । इ॒मम् । सम् । ई॒र॒य॒ । त॒न्वा᳡ । सम् । बले॑न । वेत्थ॑ । अ॒मृत॑स्य । मा । नु । गा॒त् । मा । नु । भूमि॑ऽगृह: । भु॒व॒त् ॥३०.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणेनाग्ने चक्षुषा सं सृजेमं समीरय तन्वा सं बलेन। वेत्थामृतस्य मा नु गान्मा नु भूमिगृहो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणेन । अग्ने । चक्षुषा । सम् । सृज । इमम् । सम् । ईरय । तन्वा । सम् । बलेन । वेत्थ । अमृतस्य । मा । नु । गात् । मा । नु । भूमिऽगृह: । भुवत् ॥३०.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानमय परमात्मन् ! (इमम्) इस पुरुष को (प्राणेन) प्राण [जीवनसामर्थ्य] से और (चक्षुषा) दृष्टि से (सं सृज) संयुक्त कर, और [उसे] (तन्वा) शरीर से और (बलेन) बल से (सम् सम् ईरय) अच्छे प्रकार आगे बढ़ा। तू (अमृतस्य) अमरपन का (वेत्थ) जाननेवाला है। वह [पुरुष] (नु) अव (मा गात्) न चला जावे, और (मा नु) न कभी (भूमिगृहः) भूमि में घरवाला [अर्थात् गुप्त निवासवाला] (भुवत्) होवे ॥१४॥
भावार्थ
परमेश्वर से प्रार्थना करता हुआ मनुष्य सब प्रकार पुरुषार्थ करके कीर्तिमान् होवे, और ऐसा काम न करे जिस से समाज में उसे नीचा देखना पड़े ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(प्राणेन) जीवनसामर्थ्येन (अग्ने) ज्ञानमय परमात्मन् (चक्षुषा) दर्शनशक्त्या (सं सृज) संयोजय (इमम्) पुरुषम् (सम् ईरय) सम्यक् प्रेरय (तन्वा) शरीरेण (सम्) (बलेन) (वेत्थ) वेत्सि। ज्ञातासि (अमृतस्य) अमरणस्य। कीर्त्तिमत्त्वस्य (नु) इदानीम् (मा गात्) न गच्छेत् स पुरुषः (मा) न (नु) (भूमिगृहः) भूमौ गुप्तस्थाने गृहं निवासो अपकीर्त्त्या यस्य सह सः (भुवत्) भवेत् ॥
विषय
मा नु भूमिगृहः भुवत्
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! इमम्-इस व्यक्ति को (प्राणेन चक्षुषा संसज) = प्राण व दर्शनशक्ति से संसृष्ट कीजिए। इसे (तन्वा) = शरीर की शक्तियों के विस्तार से तथा (बलेन) = बल से (सं सं ईरय) = सम्यक् प्रेरित कीजिए। शरीरशक्ति-विस्तार तथा बल से युक्त हुआ-हुआ यह अपने कार्यों को सम्यक् करनेवाला हो। २. हे प्रभो! आप (अमृतस्य वेत्थ) = अमृत को जानते हैं-नीरोगता प्राप्त कराते हैं। (मा नु गात्) = यह व्यक्ति शरीर को छोड़कर चला न जाए (मा नु भूमिगृहः भुवत्) = मत ही भूमिरूप गृहवाला हो जाए-मिट्टी में न मिल जाए।
भावार्थ
प्राणशक्ति, दर्शनशक्ति, शक्तियुक्त शरीर व बल से युक्त यह व्यक्ति नीरोग हो, यह मिट्टी में न मिल जाए।
भाषार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानाग्नि-सम्पन्न परमेश्वर ! (इमम्) इस रोगी का (प्राणेन) प्राण के साथ, (चक्षुषा) चक्षु आदि इन्द्रियों के साथ, (संसुज) संसर्ग कर । इसे (तन्वा) तनू के द्वारा (सम् ईरय) सम्यक् गतिमान् कर, (बलेन) और शारीरिक बल के साथ (सम् ) संबद्ध कर, (अमृतस्य) न मरने की विधि को (वेत्थ) तू जानता है, (मा नु गात् ) ताकि यह [ मृतों का अनुगमन न करे, (मा) और न (भूमिगृहः भुवत्) भूमिरूपी घरवाला हो।
टिप्पणी
['वेत्थ' पद द्वारा 'अग्निः' ज्ञानवान् है, न कि जड़ तत्त्व । भूमिगृहः =मृत्यु हो जाने पर, अन्त्येष्टि संस्कार के पश्चात्, शेषास्थियों द्वारा, मृत भूमिगृह होता है, उसकी अस्थियाँ भूमि में गाड़ दी जाती हैं। 'मा भुमिगृहो भुवत्' इस निषेध द्वारा मृतशरीर की भूमि में गाड़ना अर्थापन्न नहीं होता। (१) वेद में "भस्मान्तं शरीरम्" (यजु:० ४०।१५) द्वारा मृतशरीर को भस्मान्त कर देने का विधान हुआ है। (२) "सविता ते शरीरेभ्यः पृथिव्यां लोकमिच्छतु" (यजुः० ३५।२) में शरीरेभ्यः बहुवचन द्वारा शरीरास्थियाँ ही अभिप्रेत हैं। अस्थियों तथा मृतशरीर का जल प्रवाह भी बेदविरुद्ध है।]
विषय
आरोग्य और सुख की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने) परमात्मन् ! (प्राणेन) प्राणशक्ति और, (चक्षुषा) दर्शनशक्ति से (सं सृज) इस जीव को युक्त कर, और (तन्वा) शरीर से और (बलेन) बल से (इमं) इस जीव को (सम्-ईरय) प्रेरित कर। आप प्रभो ! (अमृतस्य वेत्थ) उस अमृत, जीवनशक्ति को जानते हो। आपकी दी जीवनशक्ति से युक्त होकर यह जीव (मा नु गात्) इस देह को छोड़ कर न जावे और (मा नु भूमिगृहः भुवत्) भूमि को अपना घर बना कर, खाक में मिलकर न रहे अर्थात् मर कर मिट्टी में न मिले। प्रत्युत शरीर का दीर्घ जीवन प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्काम उन्मोचन ऋषिः। आयुर्देवता। १ पथ्यापंक्तिः। १-८, १०, ११, १३, १५, १६ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। १२ चतुष्पदा विराड् जगती। १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः। १७ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
God Health and Full Age
Meaning
O Agni, regenerate, recreate this person with pranas, with eye sight, let him move with strength and body. You know of life and mortality and immortality. Let him not go. Let him not fall to dust.
Translation
O adorable Lord, may you unite this man with vital breath and with sight. Unite him with body and strength. (O man), now you have attained immortality. Do not depart. Do not become a dweller of the house under earth.
Translation
O learned physician! Provide this man with breath and eye sight, unite him with his body and strength, you know the all whereabouts of immortality, let him not depart from here let him not return to the heap of mud.
Translation
O God, provide this soul with breath and sight, unite it with body andstrength. Thou art the knower of immortality. Let not the soul go hence,nor dwell in house of clay.
Footnote
Let not the soul: The soul should not leave the body at an early age. After enjoying full age, let it enjoy salvation, and not assume earthly body through birth again and again.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(प्राणेन) जीवनसामर्थ्येन (अग्ने) ज्ञानमय परमात्मन् (चक्षुषा) दर्शनशक्त्या (सं सृज) संयोजय (इमम्) पुरुषम् (सम् ईरय) सम्यक् प्रेरय (तन्वा) शरीरेण (सम्) (बलेन) (वेत्थ) वेत्सि। ज्ञातासि (अमृतस्य) अमरणस्य। कीर्त्तिमत्त्वस्य (नु) इदानीम् (मा गात्) न गच्छेत् स पुरुषः (मा) न (नु) (भूमिगृहः) भूमौ गुप्तस्थाने गृहं निवासो अपकीर्त्त्या यस्य सह सः (भुवत्) भवेत् ॥
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