अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
भ॒सदा॑सीदादि॒त्यानां॒ श्रोणी॑ आस्तां॒ बृह॒स्पतेः॑। पुच्छं॒ वात॑स्य दे॒वस्य॒ तेन॑ धूनो॒त्योष॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒सत् । आ॒सी॒त् । आ॒दि॒त्याना॑म् । श्रोणी॒ इति॑ । आ॒स्ता॒म् । बृह॒स्पते॑: । पुच्छ॑म् । वात॑स्य । दे॒वस्य॑ । तेन॑ । धू॒नो॒ति॒ । ओष॑धी: ॥४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
भसदासीदादित्यानां श्रोणी आस्तां बृहस्पतेः। पुच्छं वातस्य देवस्य तेन धूनोत्योषधीः ॥
स्वर रहित पद पाठभसत् । आसीत् । आदित्यानाम् । श्रोणी इति । आस्ताम् । बृहस्पते: । पुच्छम् । वातस्य । देवस्य । तेन । धूनोति । ओषधी: ॥४.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(भसत्) [परमेश्वर की] पेड़ू (आदित्यानाम्) अनेक सूर्यलोकों की (आसीत्) थी, [उसके] (श्रोणी) दोनों कूल्हे (बृहस्पतेः) बृहस्पति लोक के (आस्ताम्) थे। [उसकी] (पुच्छम्) पूँछ (देवस्य) गतिमान् (वातस्य) वायु की [थी], (तेन) उससे (ओषधीः) ओषधियों को (धूनोति) वह हिलाता है ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमेश्वर को पूँछवाले पक्षी पशु आदि के समान माना है। उस परमेश्वर में अनन्त सूर्य और बृहस्पति आदि लोक और वायुमण्डल रह कर उसी की शक्ति से चलते हैं ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(भसत्) अ० ४।१४।८। नाभितलभागः (आसीत्) (आदित्यानाम्) सूर्याणाम् (श्रोणी) अ० २।३३।५। नितम्बौ (आस्ताम्) (बृहस्पतेः) बृहस्पतिलोकस्य (पुच्छम्) अ० ७।५६।६। लाङ्गूलम् (वातस्य) पवनस्य (देवस्य) गतिमतः (तेन) (पुच्छेन) (धूनोति) कम्पयति (ओषधीः) अन्नादिपदार्थान् ॥
विषय
विराट् प्रभु का दर्शन
पदार्थ
१. ब्रह्मा प्रभु के विराट् शरीर की कल्पना इसप्रकार करता है कि उस विराद पुरुष के (पार्श्वे) = दोनों पार्श्व (अनुमत्याः आस्ताम्) = अनुमति के हैं-एक कला से हीन पूर्णिमा के चाँद के हैं [कलाहीने सानुमतिः] (अनूवृजौ) = पसलियों के दोनों भाग (भगस्य आस्ताम्) = सूर्य के हैं। (मित्रः इति अब्रवीत) = प्राणवायु ने यह कहा है कि उस विराट् के (एतौ अष्ठीवन्तौ) = ये घुटने तो (केवलौ मम) = केवल मेरे ही हैं। २. (भसत्) = प्रजनन भाग (आदित्यानाम् आसीत्) = आदित्यों का है, (श्रोणी) = कटि के दोनों भाग (बृहस्पते: आस्ताम्) = बृहस्पति के हैं, (पुच्छम्) = पुच्छ भाग (देवस्य वातस्य) = दिव्य गुणयुक्त वायु का है। (तेन) = वायुनिर्मित पुच्छ से वह (ओषधी: धूनोति) = सब ओषधियों को कम्पित करता है। ३. (गुदा:) = गुदा की नाड़ियाँ (सिनीवाल्याः आसन्) = सिनीवाली [सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली] जिसमें चन्द्रमा की एक कला प्रादुर्भूत हो रही है, उस अमावस की हैं, (त्वचम्) = त्वचा को (सूर्यायाः अब्रुवन्) = सूर्या का [सूर्या-The daughter of the sun-उषा] उषा का कहते हैं। (ऋषभम्) = उस सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को (यत् अकल्पयन्) = जब विराट् पुरुष के रूप में कल्पित किया-सोचा गया तो (पदः) = उसके पाँवों को (उत्थातुः अब्रुवन्) = उत्थाता [प्राण का] कहा गया। ४. (जामिशंसस्य) = सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले, मातृरूप प्रभु का शंसन करनेवाले की वे (क्रोडः आसीत्) = गोद है। यह भक्त सदा मातृरूप प्रभु की गोद में आनन्दित होता है। यह प्रभु तो (सोमस्य कलश:) = सोम का-आनन्दरस का कलश ही (धृत:) = धारण किया गया है। (यत्) = जब (सर्वे देवा:) = सब देव (संगत्य) = मिलकर (ऋषभम्) = उस सर्वव्यापक प्रभु को (व्यकल्पयन्) = एक विराट् पुरुष के रूप में कल्पित करते हैं, तब उपर्युक्त प्रकार से ब्रह्मा द्वारा उस प्रभु के अङ्गों का प्रतिपादन होता है।
भावार्थ
ब्रह्माण्ड के सब पिण्ड उस विराट् पुरुष के विविध अङ्गों के रूप में है।
भाषार्थ
(भसद्) जघन (आसीत्) था (आदित्यानाम्)१ आदित्यों का (श्रोणी) दो कटि प्रदेश (आस्ताम्) थे (बृहस्पतेः) बृहस्पति के। (पुच्छम्) पूंछ थी (वातस्य देवस्य) वायु देव की, (तेन) उस पूंछ द्वारा बलीवर्द (ओषधीः) ओषधियों को (धूनोति) कम्पाता है।
टिप्पणी
[पुच्छ और वायुदेव का परस्पर सम्बन्ध बुद्धिगम्य है। दोनों द्वारा ओषधियां कम्पित हो जाती हैं] [१. आदित्यानाम् द्वारा आदित्य रश्मियां अभिप्रेत हैं। निरुक्त में आदित्य को "जार" कहा है। यथा "आदित्योऽत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता। स एव भासाम" (३।३।१६)। आदित्य निज रश्मियों द्वारा रात्री का, तथा उषा की दीप्ति और द्युलोक की दीप्तियों को जीर्ण करता है। इस कर्म को जारकर्म कहा है। वह रश्मियों द्वारा जारकर्म करता है। इसलिये "आदित्यानाम्" का सम्बन्ध "भसद्" के साथ दर्शाया है। "भसद्"—इन्द्रिय गौ की होती है, [बलीवर्द] बैल की नहीं। तथापि गोजाति की दृष्टि से बलीवर्द के साथ "भसद्" का वर्णन कर दिया है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
The posteriors are of the Adityas, solar children of nature, the loins are of Brhaspati, lord of Nature, the tail is of the divine blowing wind with which Rshabha gives the life breath to the herbs and trees.
Translation
The rump is assigned to the suns (Adityas); the two hips to the Lord supreme; the tail belongs to the wind divine, with that he shakes the plants.
Translation
In this way, Adityas, the twelve months of the year laim hinder parts; the loins are claimed by Brihaspati the fire; the celestial wind claims the tail with which it sters the plants and herbs.
Translation
Myriad Suns represent His hinder part. His loins represent the fervour of fire. Air represents His. tail, wherewith He stirs the plants and herbs.
Footnote
The language is metaphorical. God has virtually got no physical parts.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(भसत्) अ० ४।१४।८। नाभितलभागः (आसीत्) (आदित्यानाम्) सूर्याणाम् (श्रोणी) अ० २।३३।५। नितम्बौ (आस्ताम्) (बृहस्पतेः) बृहस्पतिलोकस्य (पुच्छम्) अ० ७।५६।६। लाङ्गूलम् (वातस्य) पवनस्य (देवस्य) गतिमतः (तेन) (पुच्छेन) (धूनोति) कम्पयति (ओषधीः) अन्नादिपदार्थान् ॥
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