अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
अ॒यं पि॑पान॒ इन्द्र॒ इद्र॒यिं द॑धातु चेत॒नीम्। अ॒यं धे॒नुं सु॒दुघां॒ नित्य॑वत्सां॒ वशं॑ दुहां विप॒श्चितं॑ प॒रो दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । पिपा॑न: । इन्द्र॑: । इत् । र॒यिम् । द॒धा॒तु॒ । चे॒त॒नीम् । अ॒यम् । धे॒नुम् । सु॒ऽदुघा॑म् । नित्य॑ऽवत्साम् । वश॑म् । दु॒हा॒म् । वि॒प॒:ऽचित॑म् । प॒र: । दि॒व:॥४.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं पिपान इन्द्र इद्रयिं दधातु चेतनीम्। अयं धेनुं सुदुघां नित्यवत्सां वशं दुहां विपश्चितं परो दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । पिपान: । इन्द्र: । इत् । रयिम् । दधातु । चेतनीम् । अयम् । धेनुम् । सुऽदुघाम् । नित्यऽवत्साम् । वशम् । दुहाम् । विप:ऽचितम् । पर: । दिव:॥४.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (पिपानः) प्रवृद्ध, बली (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (इत्) ही (चेतनीम्) चेतानेवाली (रयिम्) लक्ष्मी (दधातु) देवे। (अयम्) यही [परमेश्वर] (सुदुघाम्) अच्छे प्रकार पूर्ण करनेहारी, (नित्यवत्साम्) नित्य निवास देनेवाली (धेनुम्) वाणी और (वशम्) प्रभुत्व को (दिवः) हिंसा वा मद से (परः) परे [रहनेवाले] (विपश्चितम्) बुद्धिमान् पुरुष के लिये (दुहाम्) परिपूर्ण करे ॥२१॥
भावार्थ
अहिंसक, निरभिमानी विद्वान् पुरुष परमेश्वर की वेदवाणी द्वारा उन्नति करके आनन्द भोगते हैं ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(अयम्) व्यापकः (पिपानः) ओप्यायी वृद्धौ-कानच्, यलोपः। पिप्यानः। प्रवृद्धः। बली (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः। ऋषभः (इत्) एव (रयिम्) अ० १।१५।२। धनम् (दधातु) ददातु (चेतनीम्) चित संचेतने-ल्युट्, ङीप्। चेतयन्तीम् (अयम्) (धेनुम्) वाचम् (सुदुघाम्) अ० ७।७३।७। यथावत्। कामपूरयित्रीम् (नित्यवत्साम्) वस निवासे-स, उ० ३।६२। सदानिवासयित्रीम् (वशम्) प्रभुत्वम् (दुहाम्) अ० ३।१०।१, द्विकर्मकः। दुग्धाम्। प्रपूरयतु (विपश्चितम्) अ० ६।५२।३। मेधाविनम्-निघ० ३।१५। (परः) परस्तात् (दिवः) दिवु अर्दे मर्दने वा मदे च-डिवि। हिंसनात्। मदात् ॥
विषय
चेतनी रयि
पदार्थ
१. (अयम्) = यह (पिपान:) = सदा से आप्यायित [वृद्ध] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (इत्) = निश्चय से (चेतनी रयिम्) = चेतना प्राप्त करानेवाले ज्ञानेश्वर्य को (दधातु) = धारण करे। प्रभुकृपा से हमें वह ज्ञानेश्वर्य प्राप्त हो जो हमें चेतना प्राप्त करानेवाला है। २. (अयम्) = यह (दिवः पर:) = ज्ञान के दृष्टिकोण से सर्वोत्कृष्ट [पर]-सर्वज्ञ प्रभु (वशं विपश्चितम्) = इन्द्रियों को वश में करनेवाले ज्ञानी को (धेनुं दुहाम्) = वेद-धेनु को दुहे। 'वश विपश्चित' के लिए प्रभु वेदज्ञान दें। इसके लिए उस वेद-धेनु का दोहन करें जोकि (सुदुघाम्) = उत्तमता से दोहन के योग्य है तथा (नित्यवत्साम्) = सदा वत्सवाली है, अर्थात् सदा नवसूतिका होने से सदा ही ज्ञान-दुग्ध देनेवाली है।
भावार्थ
हम इन्द्रियों को वश में करनेवाले व ज्ञान में रुचिवाले हों। प्रभु हमें चेतानेवाला ज्ञानेश्वर्य प्राप्त कराएँ और वेदधेनु हमारे लिए सदा नित नया ज्ञान देनेवाली हो।
भाषार्थ
(अयम्) यह परमेश्वर (इन्द्रः इत्) मानो विद्युत् ही है, (पिपानः) जोकि विद्युत् जैसे जल पिलाती है वैसे आनन्दरस पिलाता है, (चेतनीम्) वह चेतना अर्थात् सम्यक् ज्ञानरूपी (रयिम्) सम्पत्ति (दधातु) हमें प्रदान करे (अयम्) यह परमेश्वर जो कि (परः दिवः) द्युलोक से भी परे हैं वह (सुदुधाम्) सुगमता से दुही जाने वाली, (नित्यवत्साम्) नित्यवत्स वाली, (वशं दुहाम्) यथेच्छ दुही जा सकने वाली, (विपश्चितम्) मेधावियों का चयन करने वाली (धेनुम्) वेदवाणीरूपी धेनु (दधातु) प्रदान करे।
टिप्पणी
[पिपानः= पा पाने (णिजर्थः अन्तर्भावितः) + कानच्। चेतनीम् = चिती संज्ञाने (भ्वादिः), संज्ञानाम्= सम्यक्-ज्ञान। धेनुम् = धेट पाने (भ्वादिः), जोकि दूध पिलाती हों। धेनुः वाङ्नाम" (निघं० १।११)। मन्त्र में धेनु का अर्थ है वाक्, वेदवाणी, जोकि सदा ज्ञान-दुग्ध पिलाती है। वेदवाणी नित्या है, और ज्ञानप्रदा है। अतः सदा ज्ञान-दुग्ध पिला सकती है, "प्राणिगौः" सदा दुग्ध नहीं पिला सकती। धेनु, नित्यवत्सा है। वेदधेनु का वत्स है जीवात्मा, जोकि नित्य है, और इस वत्स के कारण वेद-धेनु सदा दुग्ध पिलाती है। यह सुदुघा है, आसानी से दुही जा सकती है, केवल प्रतिदिन स्वाध्याय द्वारा। प्राणिगौः नित्यवत्सा नहीं हो सकती। वेद-धेनु विपश्चित् है, मेधावियों का चयन करने वाली है। व्यक्ति जैसे-जैसे इसका स्वाध्याय और मनन करेंगे, वैसे वैसे मेधावियों का चयन होता जायगा, मेधावियों की संख्या बढ़ती जायगी। विपश्चित= "विपः मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) + चित् (चिञ् चयने) + क्विप्, तुक्। परो दिवः= परमेश्वररूपी “ऋषभः" द्युलोक से भी परे विद्यमान है, चूंकि वह विभु है, सर्वत्र व्यापक है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
Let this mighty exuberant Rshabha, omnipotent Indra, bear and bring us honour and wealth of life, and awareness of Divinity. Let it bring us the fertile cow, the holy Word of knowledge abundant in love and nourishment, the ever obliging bliss at our will, the vision and wisdom of Divinity beyond the light of heaven.
Translation
May this resplendent, strong and stout bull fetch conscentious riches to us. May this one bring a cow, rich in milk, regular with a calf, well-behaved at milking and intelligent from beyond the sky.
Translation
Only almighty God is the highest strong power. May he bestow conspicuous wealth. May He give us a deft cow good to milk and whose calf is never wanting. May he give us the self-controlled wise man who is far from the worldly attachments.
Translation
May this Mighty God verily grant us mental wealth. May this God grant to a wise man, free from violence and pride, supremacy, and a speech that fulfils all desires, and ever affords shelter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(अयम्) व्यापकः (पिपानः) ओप्यायी वृद्धौ-कानच्, यलोपः। पिप्यानः। प्रवृद्धः। बली (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः। ऋषभः (इत्) एव (रयिम्) अ० १।१५।२। धनम् (दधातु) ददातु (चेतनीम्) चित संचेतने-ल्युट्, ङीप्। चेतयन्तीम् (अयम्) (धेनुम्) वाचम् (सुदुघाम्) अ० ७।७३।७। यथावत्। कामपूरयित्रीम् (नित्यवत्साम्) वस निवासे-स, उ० ३।६२। सदानिवासयित्रीम् (वशम्) प्रभुत्वम् (दुहाम्) अ० ३।१०।१, द्विकर्मकः। दुग्धाम्। प्रपूरयतु (विपश्चितम्) अ० ६।५२।३। मेधाविनम्-निघ० ३।१५। (परः) परस्तात् (दिवः) दिवु अर्दे मर्दने वा मदे च-डिवि। हिंसनात्। मदात् ॥
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