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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋषभ सूक्त
    1

    आज्यं॑ बिभर्ति घृ॒तम॑स्य॒ रेतः॑ साह॒स्रः पोष॒स्तमु॑ य॒ज्ञमा॑हुः। इन्द्र॑स्य रू॒पमृ॑ष॒भो वसा॑नः॒ सो अ॒स्मान्दे॑वाः शि॒व ऐतु॑ द॒त्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आज्य॑म् । बि॒भ॒र्ति॒ । घृ॒तम् । अ॒स्य॒ । रेत॑: । सा॒ह॒स्र: । पोष॑: । तम् । ऊं॒ इति॑ । य॒ज्ञम् । आ॒हु॒: । इन्द्र॑स्य । रू॒पम् । ऋ॒ष॒भ: । वसा॑न: । स: । अ॒स्मान् । दे॒वा॒: । शि॒व: । आ । ए॒तु॒ । द॒त्त: ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेतः साहस्रः पोषस्तमु यज्ञमाहुः। इन्द्रस्य रूपमृषभो वसानः सो अस्मान्देवाः शिव ऐतु दत्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आज्यम् । बिभर्ति । घृतम् । अस्य । रेत: । साहस्र: । पोष: । तम् । ऊं इति । यज्ञम् । आहु: । इन्द्रस्य । रूपम् । ऋषभ: । वसान: । स: । अस्मान् । देवा: । शिव: । आ । एतु । दत्त: ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) इस [परमेश्वर] का (घृतम्) प्रकाशयुक्त (रेतः) सामर्थ्य (आज्यम्) सब उपाय (बिभर्ति) धारण करता है, (साहस्रः) वह सहस्रों पराक्रमयुक्त (पोषः) पोषक है, (तम् उ) उसको ही (यज्ञम्) यज्ञ [संयोजक-वियोजक] (आहुः) कहते हैं। (देवाः) हे विद्वान् लोगो ! (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य का (रूपम्) रूप (वसानः) धारण करता हुआ (शिवः) मङ्गलकारी, (दत्तः) दिया हुआ [हृदय में रक्खा गया] (सः) वह (ऋषभः) सर्वदर्शक परमेश्वर (अस्मान्) हम लोगों को (आ एतु) अच्छे प्रकार प्राप्त हो ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य सर्वपोषक परमेश्वर का आश्रय लेकर सर्वदा पुरुषार्थ करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(आज्यम्) अ० ९।२।१। सर्वोपायम् (बिभर्ति) धरति (घृतम्) दीप्तम् (अस्य) ऋषभस्य (रेतः) सामर्थ्यम् (साहस्रः) म० १। सहस्रपराक्रमयुक्तः (पोषः) पोषकः (तम्) (उ) निश्चयेन (यज्ञम्) संयोजकवियोजकम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यस्य (रूपम्) स्वरूपम् (ऋषभः) म–० १। सर्वदर्शकः (वसानः) धारयन् (सः) (अस्मान्) पुरुषार्थिनः (देवाः) हे विद्वांसः (शिवः) मङ्गलकारी (आ एतु) सम्यक् प्राप्नोतु (दत्तः) आत्मनि रक्षिता ॥

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    विषय

    'शिवः दत्तः' प्रभु

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इस प्रभु की (घृतम्) = ज्ञान-दीप्ति हमारे जीवनों में (आज्यम्) = कान्ति को [अब्ज कान्तौ] (बिभर्ति) = धारण करती है। [अस्य] (रेत:) = प्रभु के द्वारा हमारे शरीरों में उत्पन्न किया हुआ वीर्य (साहस्त्र: पोष:) = सहस्रों प्रकार से हमारा पोषण करनेवाला है। (तम् उ) = उस प्रभु को ही निश्चय से (यज्ञम्) = पूजनीय व संगति करने योग्य (आहुः) = कहते हैं। यह प्रभु का मेल ही हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराता है। २. (स:) = वह (ऋषभ:) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली के (रूपम्) = रूप को (वसान:) = धारण करता हुआ (अस्मान् आ एतु) = हमें सर्वथा प्राप्त हो। हे (देवा:) = विद्वानो! वे प्रभु (शिव:) = कल्याणकर हैं, और (दत्त:) = [दत्तम् अस्य अस्ति] सब आवश्यक वस्तुओं को देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    प्रभु का ज्ञान हमारे जीवनों को कान्त बनाता है। प्रभु से दी गई शक्ति हमारा बहुत प्रकार से रक्षण करती है। वे प्रभु ही उपास्य हैं। परमैश्वर्यवाले वे प्रभु हमें प्राप्त हों। वे प्रभु सब आवश्यक वस्तुओं को देनेवाले हैं और हमारा कल्याण करनेवाले हैं।

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    भाषार्थ

    (घृतम्) प्रदीप्त सूर्य (अस्य) इस परमेश्वर का (रेतः) रेतस् है, जो कि (आज्यम्) आज्य आदि का (बिभर्ति) भरण-पोषण करता है, (साहस्रः) परमेश्वर हजारों प्रकार से (पोषः) सब का परिपोषण करता है। (तम् उ यज्ञम् आहुः) उसे [वेदवेत्ता] यज्ञ कहते हैं। (ऋषभः) श्रेष्ठ परमेश्वर (इन्द्रस्य) सम्राट् तथा सूर्य के (रूपम्, वसानः) रूप को धारण करता है। (सः) वह (दत्तः) दिया गया, (देवाः) हे दिव्य जनो ! (अस्मान्) हमें (शिवः ऐतु) कल्याणकारी स्वरूप में प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [घृतम्= घृ क्षरणदीत्योः (जुहोत्यादिः); प्रदीप्तम् (उणा० ३।८९; महर्षि दयानन्द)। यज्ञम्= स यज्ञः (अथर्व० १३।४(४)।४०), तथा (यजु० ३१।६,७)। इन्द्रः= सम्राट् (यजु० ८।३७)। तथा सूर्य सम्राट् के सदृश प्रजापोषक परमेश्वर। अथवा “सूर्य के रूप वाला परमेश्वर यथा आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्" (यजु० ३१।१८)। दत्तः=योगी आचार्य द्वारा हृदय में प्रकट किया गया परमेश्वर। बलीवर्दपक्षे,— “गौओं के उत्पादन द्वारा घृत आज्य प्रदाता। गो-वंश परम्परा द्वारा हजारों का पोषक। दत्तः=दान में दिया गया]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rshabha, the ‘Bull’

    Meaning

    Rshabha is the infinite power of creation and natural evolution. They call it the Yajna, i.e., the performer as well as the performance of creative evolution. All Ajya, holy materials, energies, lights and laws, beauty and sweetness, all ghrta and fragrant essences, waters and vitalities, are held and deployed by its natural creative and generative power. O Devas, divines and brilliancies, let us pray: May Rshabha, bearing the power and function of Indra, Omnipotence, self-pleased, self-revealed, be kind and gracious to us.

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    Translation

    He provides -sacrificial butter. Ghee is his seed. He is a thousand-fold nourishment. They call him the sacrifice. May he, the showerer, wearing the form of the resplendent Lord, being given, come to us, O bounties of Nature, as a blessing.

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    Translation

    His splendid power upholds the things of the world, He is the master of the world and is the protector of the world. The learned persons call Him yajna, the integrator, disinegr and the object of worship. May this almighty benevolent Lord having spiritual nature and substance be attained by us as being.

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    Translation

    The blazing strength of God sustains divine objects. He is the Nourisher of innumerable worlds. The wise call Him The Great Soul. O learned persons, may He, the Great Seer, assuming the rank of God, the Bestower of all objects, Full of bliss, come unto us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(आज्यम्) अ० ९।२।१। सर्वोपायम् (बिभर्ति) धरति (घृतम्) दीप्तम् (अस्य) ऋषभस्य (रेतः) सामर्थ्यम् (साहस्रः) म० १। सहस्रपराक्रमयुक्तः (पोषः) पोषकः (तम्) (उ) निश्चयेन (यज्ञम्) संयोजकवियोजकम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यस्य (रूपम्) स्वरूपम् (ऋषभः) म–० १। सर्वदर्शकः (वसानः) धारयन् (सः) (अस्मान्) पुरुषार्थिनः (देवाः) हे विद्वांसः (शिवः) मङ्गलकारी (आ एतु) सम्यक् प्राप्नोतु (दत्तः) आत्मनि रक्षिता ॥

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