अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
गुदा॑ आसन्त्सिनीवा॒ल्याः सू॒र्याया॒स्त्वच॑मब्रुवन्। उ॑त्था॒तुर॑ब्रुवन्प॒द ऋ॑ष॒भं यदक॑ल्पयन् ॥
स्वर सहित पद पाठगुदा॑: । आ॒स॒न् । सि॒नी॒वा॒ल्या: । सू॒र्याया॑: । त्वच॑म् । अ॒ब्रु॒व॒न् । उ॒त्था॒तु: । अ॒ब्रु॒व॒न् । प॒द: । ऋ॒ष॒भम् । यत् । अक॑ल्पयन् ॥४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
गुदा आसन्त्सिनीवाल्याः सूर्यायास्त्वचमब्रुवन्। उत्थातुरब्रुवन्पद ऋषभं यदकल्पयन् ॥
स्वर रहित पद पाठगुदा: । आसन् । सिनीवाल्या: । सूर्याया: । त्वचम् । अब्रुवन् । उत्थातु: । अब्रुवन् । पद: । ऋषभम् । यत् । अकल्पयन् ॥४.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[परमेश्वर की] (गुदाः) गुदा की नाड़ियाँ (सिनीवाल्याः) चौदस के साथ मिली हुई अमावस की (आसन्) थीं, [उसकी] (त्वचम्) त्वचा को (सूर्यायाः) सूर्य की धूप का (अब्रुवन्) उन्होंने बतलाया। (पदः) [उसके] पैरों को (उत्थातुः) उठनेवाले [उत्साही पुरुष] का (अब्रुवन्) उन्होंने बतलाया, (यत्) जब (ऋषभम्) सर्वव्यापक परमेश्वर को (अकल्पयन्) उन्होंने कल्पना से माना ॥१४॥
भावार्थ
परमेश्वर अन्धकार और प्रकाश का जतानेवाला और पुरुषार्थियों को चलानेवाला है, ऐसा विद्वान् लोग समझते हैं [चौदस के साथ मिली अमावस में प्रकाश थोड़ा और अन्धकार अधिक होता है] ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(गुदाः) अ० २।३३।४। मलत्यागनाड्यः (आसन्) (सिनीवाल्याः) अ० २।२६।२। सिन्या शुक्लया चन्द्रकलया वल्यते मिश्र्यते या सा सिनीवाली। सिनी+वल मिश्रणे-घञ्, ङीष्। चतुर्दशीयुक्ताया अमावास्यायाः। सिनीवाली कुहुरिति देवपत्न्याविति नैरुक्ता अमावास्ये इति याज्ञिका या पूर्वामावस्या सा सिनीवाली योत्तरा सा कुहूरिति विज्ञायते-निरु० ११।३१। सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली सा नष्टेन्दुकला कुहूः-इत्यमरः ४।९। (सूर्यायाः) राजसूयसूर्य०। पा० ३।१।११४। सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे निपातनात् क्यपि रूपसिद्धिः, टाप्। सूर्या वाङ्नाम-निघ०। १।११। पदनाम-निघ० ५।६। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। सूर्यदीप्तेः (अब्रुवन्) अकथयन् (उत्थातुः) उत्थानशीलस्य। उत्साहिनः पुरुषस्य (पदः) पद गतौ-क्विप्। पादान् (ऋषभम्) म० १। सर्वव्यापकं परमेश्वरम् (यत्) यदा (अकल्पयन्) अ० ६।१०९।१। कल्पितवन्तः। कल्पनया ज्ञातवन्तः ॥
विषय
विराट् प्रभु का दर्शन
पदार्थ
१. ब्रह्मा प्रभु के विराट् शरीर की कल्पना इसप्रकार करता है कि उस विराद पुरुष के (पार्श्वे) = दोनों पार्श्व (अनुमत्याः आस्ताम्) = अनुमति के हैं-एक कला से हीन पूर्णिमा के चाँद के हैं [कलाहीने सानुमतिः] (अनूवृजौ) = पसलियों के दोनों भाग (भगस्य आस्ताम्) = सूर्य के हैं। (मित्रः इति अब्रवीत) = प्राणवायु ने यह कहा है कि उस विराट् के (एतौ अष्ठीवन्तौ) = ये घुटने तो (केवलौ मम) = केवल मेरे ही हैं। २. (भसत्) = प्रजनन भाग (आदित्यानाम् आसीत्) = आदित्यों का है, (श्रोणी) = कटि के दोनों भाग (बृहस्पते: आस्ताम्) = बृहस्पति के हैं, (पुच्छम्) = पुच्छ भाग (देवस्य वातस्य) = दिव्य गुणयुक्त वायु का है। (तेन) = वायुनिर्मित पुच्छ से वह (ओषधी: धूनोति) = सब ओषधियों को कम्पित करता है। ३. (गुदा:) = गुदा की नाड़ियाँ (सिनीवाल्याः आसन्) = सिनीवाली [सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली] जिसमें चन्द्रमा की एक कला प्रादुर्भूत हो रही है, उस अमावस की हैं, (त्वचम्) = त्वचा को (सूर्यायाः अब्रुवन्) = सूर्या का [सूर्या-The daughter of the sun-उषा] उषा का कहते हैं। (ऋषभम्) = उस सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को (यत् अकल्पयन्) = जब विराट् पुरुष के रूप में कल्पित किया-सोचा गया तो (पदः) = उसके पाँवों को (उत्थातुः अब्रुवन्) = उत्थाता [प्राण का] कहा गया। ४. (जामिशंसस्य) = सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले, मातृरूप प्रभु का शंसन करनेवाले की वे (क्रोडः आसीत्) = गोद है। यह भक्त सदा मातृरूप प्रभु की गोद में आनन्दित होता है। यह प्रभु तो (सोमस्य कलश:) = सोम का-आनन्दरस का कलश ही (धृत:) = धारण किया गया है। (यत्) = जब (सर्वे देवा:) = सब देव (संगत्य) = मिलकर (ऋषभम्) = उस सर्वव्यापक प्रभु को (व्यकल्पयन्) = एक विराट् पुरुष के रूप में कल्पित करते हैं, तब उपर्युक्त प्रकार से ब्रह्मा द्वारा उस प्रभु के अङ्गों का प्रतिपादन होता है।
भावार्थ
ब्रह्माण्ड के सब पिण्ड उस विराट् पुरुष के विविध अङ्गों के रूप में है।
भाषार्थ
(गुदाः) गुदा के अवयव (आसन्) थे (सिनीवाल्याः) सिनीवाली के, (त्वचम्, सूर्यायाः) त्वचा है सूर्या की (अब्रुवन्) यह उन्हों ने कहा। (पदः) पैर हैं (उत्थातुः)१ उत्थाता के (अब्रुवन्) यह भी उन्होंने कहा, (यद्) जब कि (ऋषभम्) बलीवर्द की (व्यकल्पयन्) विविध कल्पना उन्होंने की।
टिप्पणी
[उन्होंने= अनुमति आदि देवों ने (१२, १३, १४)। सिनीवाली= देवपत्नी (नैरुक्ताः); या पूर्वा आमावास्यां सा सिनीवाली (याज्ञिकाः)। सिनीवासी=सिनमन्नं भवति, सिनाति भूतानि, वालं पर्वः, वृणोतेः, तस्मिन् अन्नवती, वालिनी वा वाले नैवास्यामस्णुत्वात् चन्द्रमाः सेवितव्यो भवति, इति वा" (निरुक्त ११।३।३१)। सूर्या है सूर्य-की-प्रभा। यह सूर्य का आवरणरूप है, त्वचा बलीवर्द का आवरण है। सम्भवतः इसलिये त्वचा का सम्बन्ध सूर्या के साथ कहा हो। "उत्थाता" भी देव है, यह केवल इसी मन्त्र में कहा है। "उत्था" का अर्थ है "ऊपर की ओर स्थित हुआ। सम्भवतः सूर्य। यह ऊर्ध्वदिशा में द्युलोक में स्थित है। चलता नहीं। इसका चलना पृथिवी के निज अक्ष पर पश्चिम से पूर्व की ओर परिभ्रमण की वजह से है। यह स्थित तो है परन्तु इसके पैर नहीं। पैरों द्वारा ही स्थिति होती है । यथा “पादयो प्रतिष्ठा" (अथर्व० १९।६०।२) इस कमी की पूर्ति के लिये मन्त्र में कहा है कि "उत्थातुरब्रुवन् पदः"।] [१. उत्थात्= उद् उर्ध्वं तिष्ठति, इति उत्थाता, सूर्यः, तस्य।]
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
The intestines are of the spirit and energy of food. And the visionary says : The skin is of the cover of light, Surya, the child of sun. And those that meditated on the Rshabha visualised and said: the feet themselves declare they are of the burden-bearer of the world.
Translation
The bowels (guda) are assigned to Sinivali; to Surya (daughter or brilliance of the Sun) the skin, they say. They say, the feet are for the upraiser (utthatuh); so they divide the bull.
Translation
The learned persons when they imagine God in the form of Rishabha, the mighty worldly bull assign His inward parts to sinivali, the fourteenth night of lunar dark fortnight, they assign the skin to the light of sun and assign the feet rising vital air.
Translation
His arteries of the anus are likened to Night. To dawn the learned assigned the skin. His feet were described as those of an energetic person, when they thought of God, in their imagination.
Footnote
They; Learned persons. Sinivali; The night preceding that of new moon, or that night On which the moon rises with a scarcely visible crescent. The connection between the supposed physical parts of God, and worldly objects is not clear.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(गुदाः) अ० २।३३।४। मलत्यागनाड्यः (आसन्) (सिनीवाल्याः) अ० २।२६।२। सिन्या शुक्लया चन्द्रकलया वल्यते मिश्र्यते या सा सिनीवाली। सिनी+वल मिश्रणे-घञ्, ङीष्। चतुर्दशीयुक्ताया अमावास्यायाः। सिनीवाली कुहुरिति देवपत्न्याविति नैरुक्ता अमावास्ये इति याज्ञिका या पूर्वामावस्या सा सिनीवाली योत्तरा सा कुहूरिति विज्ञायते-निरु० ११।३१। सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली सा नष्टेन्दुकला कुहूः-इत्यमरः ४।९। (सूर्यायाः) राजसूयसूर्य०। पा० ३।१।११४। सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे निपातनात् क्यपि रूपसिद्धिः, टाप्। सूर्या वाङ्नाम-निघ०। १।११। पदनाम-निघ० ५।६। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। सूर्यदीप्तेः (अब्रुवन्) अकथयन् (उत्थातुः) उत्थानशीलस्य। उत्साहिनः पुरुषस्य (पदः) पद गतौ-क्विप्। पादान् (ऋषभम्) म० १। सर्वव्यापकं परमेश्वरम् (यत्) यदा (अकल्पयन्) अ० ६।१०९।१। कल्पितवन्तः। कल्पनया ज्ञातवन्तः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal