अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
सूक्त - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
यथा॒ वात॑श्चा॒ग्निश्च॑ वृ॒क्षान्प्सा॒तो वन॒स्पती॑न्। ए॒वा स॒पत्ना॑न्मे प्साहि॒ पूर्वा॑ञ्जा॒ताँ उ॒ताप॑रान्वर॒णस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । वात॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । वृ॒क्षान् । प्सा॒त: । वन॒स्पती॑न् । ए॒व । स॒ऽपत्ना॑न् । मे॒ । प्सा॒हि॒ । पूर्वा॑न् । जा॒तान् । उ॒त । अप॑रान् । व॒र॒ण: । त्वा॒ । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ ॥३.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा वातश्चाग्निश्च वृक्षान्प्सातो वनस्पतीन्। एवा सपत्नान्मे प्साहि पूर्वाञ्जाताँ उतापरान्वरणस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । वात: । च । अग्नि: । च । वृक्षान् । प्सात: । वनस्पतीन् । एव । सऽपत्नान् । मे । प्साहि । पूर्वान् । जातान् । उत । अपरान् । वरण: । त्वा । अभि । रक्षतु ॥३.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 14
विषय - रोगरूप शत्रुओं का भञ्जन
पदार्थ -
१. हे वरणमणे । (यथा) = जैसे (वातः) = तेज वायु (वनस्पतीन्) = बिना फूल के फल देनेवाले पीपल आदि को तथा (वृक्षान्) = अन्य वृक्षों को (ओजसा भनक्ति) = शक्ति से तोड़ डालता है, (एव) = इसी प्रकार (मे) = मेरे (पूर्वान् जातान्) = पहले पैदा हुए-हुए (उत्त) = और (अपरान्) = पीछे आनेवाले (सपत्नान्) = भङ्ग्धि रोगरूप शत्रुओं को विदीर्ण कर दे। २. (यथा) = जैसे (वता: च अग्नि च) = वायु और अग्नि (वनस्पतीन्) = वनस्पतियों को व (वृक्षान्) = वृक्षों को (प्सातः) = खा जाते हैं, एक-उसी प्रकार (मे) = मेरे (पूर्वान् जातान् उत अपरान्) = पहले पैदा हुए-हुए और पिछले (सपत्नान्) = शत्रुओं को खा डाल। ३. (यथा) = जैसे (वातेन) = तीन वायु से (प्रक्षीणा:) = पत्तों आदि के गिर जाने से क्षीण हुए (न्यर्पिता:) = नीचे अर्पित किये गये-गिराये गये (वृक्षाः) = वृक्ष (शेरे) = भूमि पर लेट जाते हैं-गिर जाते हैं, (एव) = इसी प्रकार है वरणमणे! (त्वम्) = तू (मम) = मेरे (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को (प्रक्षिणीहि) = क्षीण कर दे और उन्हें (न्यर्पय) = नीचे दबा देनेवाला हो। तेरे द्वारा मैं रोगों को पादाक्रान्त कर पाऊँ। ४. प्रभु अपने आराधक से कहते हैं कि (वरण:) = यह वरणमणि (त्वा अभि रक्षतु) = तेरे शरीर व मन दोनों क्षेत्रों को रक्षित करनेवाली हो। शरीर में यह तुझे रोगों से बचानेवाली हो तथा मन में वासनाओं से रक्षित करनेवाली हो।
भावार्थ -
वरणमणि रोग व वासनारूप शत्रुओं को इसप्रकार विनष्ट कर दे जैसेकि तीववायु वृक्षों को। जिस प्रकार जंगल की आग वनस्पतियों को खा जाती है, इसी प्रकार यह वरणमणि रोगों को खा जाए। जैसे तीन वायु से वृक्ष गिर जाते हैं, उसी प्रकार इस वरणमणि द्वारा मेरे रोग समास हो जाएँ।
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