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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    सूक्त - सविता देवता - औदुम्बरमणिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त

    ग्रा॑म॒णीर॑सि ग्राम॒णीरु॒त्थाया॒भिषि॑क्तो॒ऽभि मा॑ सिञ्च॒ वर्च॑सा। तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धार॒याधि॑ र॒यिर॑सि र॒यिं मे॑ धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्रा॒म॒ऽनीः। अ॒सि॒। ग्रा॒म॒ऽनीः। उ॒त्थाय॑। अ॒भिऽसि॑क्तः। अ॒भि। मा॒। सि॒ञ्च॒। वर्च॑सा। तेजः॑। अ॒सि॒। तेजः॑। मयि॑। धा॒र॒य॒। अधि॑। र॒यिः। अ॒सि॒। र॒यिम्। मे॒। धे॒हि॒ ॥३१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्रामणीरसि ग्रामणीरुत्थायाभिषिक्तोऽभि मा सिञ्च वर्चसा। तेजोऽसि तेजो मयि धारयाधि रयिरसि रयिं मे धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्रामऽनीः। असि। ग्रामऽनीः। उत्थाय। अभिऽसिक्तः। अभि। मा। सिञ्च। वर्चसा। तेजः। असि। तेजः। मयि। धारय। अधि। रयिः। असि। रयिम्। मे। धेहि ॥३१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    १. हे औदुम्बर मणे! तु (ग्रामणी: असि) = इन्द्रियासमूह का नेतृत्व करनेवाली है-सब इन्द्रियों को अपने कार्य में प्रवृत्त करने के लिए तू उन्हें शक्तिशाली बनाती है। तू सचमुच (ग्रामणी: उत्थाय) = शरीर में (ऊर्ध्व:) = गतिवाली होकर (अभिषिक्ता) = शरीर में चारों ओर सिक्त हुई-हुई (ग्रामणी:) = इस इन्द्रिय-समूह का प्रणयन करती है। तू (मा) = मुझे (वर्चसा) = वर्चस् से-प्राणशक्ति से (अभिसिञ्च) = सर्वत: सिक्त कर। २. (तु) = तो (तेजः असि) = तेज-ही-तेज है। (मयि) = मुझमें (तेज:) = तेजस्विता को (धारय) = धारण कर । (रयिः असि) = तू ही वास्तविक धन है। (मे) = मुझमें (रयिम्) = इस ऐश्वर्य को अधि धेहि आधिक्येन स्थापित कर।

    भावार्थ - सुरक्षित वीर्य इन्द्रियसमूह का अपने-अपने कार्य में प्रवर्तक है। यह हमारे अन्दर तेजस्विता का धारण करता है-हमें रयीश [रयि+ईश] बनाता है।

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