अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
सूक्त - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
यद्द्वि॒पाच्च॒ चतु॑ष्पाच्च॒ यान्यन्ना॑नि॒ ये रसाः॑। गृ॒ह्णे॒हं त्वे॑षां भू॒मानं॒ बिभ्र॒दौदु॑म्बरं म॒णिम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। द्वि॒ऽपात्। च॒। चतुः॑पात्। च॒। यानि॑। अन्ना॑नि। ये। रसाः॑। गृ॒ह्णे। अ॒हम्। तु । ए॒षा॒म्। भू॒मान॑म्। बिभ्र॑त्। औदु॑म्बरम्। म॒णिम् ॥३१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्द्विपाच्च चतुष्पाच्च यान्यन्नानि ये रसाः। गृह्णेहं त्वेषां भूमानं बिभ्रदौदुम्बरं मणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। द्विऽपात्। च। चतुःपात्। च। यानि। अन्नानि। ये। रसाः। गृह्णे। अहम्। तु । एषाम्। भूमानम्। बिभ्रत्। औदुम्बरम्। मणिम् ॥३१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
विषय - वीर्यरक्षण व ऐश्वर्य [भूमा]
पदार्थ -
१. (यत्) = जो (द्विपात्) = दो पाँववाले मनुष्य आदि हैं (च) = और (चतुष्पात) = गौ आदि पश हैं (च) = और (यानि अनानि) = जो जौ-चावल आदि अन्न हैं तथा (ये रसाः) = दूध-दही, इक्षु आदि रसवाले पदार्थ हैं, (अहम्) = मैं (तु) = तो (औदुम्बरं मणिं बिभत्) = सब पापों व रोगों से ऊपर उठानेवाली इस वीर्यमणि को धारण करता हुआ (एषाम्) = इन सबके (भूमानम्) = बाहुल्य को (गृह्वे) = ग्रहण करता हूँ।
भावार्थ - वीर्यरक्षणवाला पुरुष सब प्रकार से समृद्ध बनाता है-अभ्युदयशाली होता है।
इस भाष्य को एडिट करें