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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    सूक्त - सविता देवता - औदुम्बरमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त

    क॑री॒षिणीं॒ फल॑वतीं स्व॒धामिरां॑ च नो गृ॒हे। औदु॑म्बरस्य॒ तेज॑सा धा॒ता पु॒ष्टिं द॑धातु मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒री॒षिणी॑म्। फल॑ऽवतीम्। स्व॒धाम्। इरा॑म्। च॒। नः॒। गृ॒हे। औदु॑म्बरस्य। तेज॑सा। धा॒ता। पु॒ष्टिम्। द॒धा॒तु॒। मे॒ ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    करीषिणीं फलवतीं स्वधामिरां च नो गृहे। औदुम्बरस्य तेजसा धाता पुष्टिं दधातु मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    करीषिणीम्। फलऽवतीम्। स्वधाम्। इराम्। च। नः। गृहे। औदुम्बरस्य। तेजसा। धाता। पुष्टिम्। दधातु। मे ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (करीषिणीम्) = प्रशस्त करीष [गोमय] को प्राप्त करानेवाली, (फलवतीम्) = [बिफला विशरणे] रोगों को विशीर्ण करने की क्रियावाली (च) = और (स्वधाम्) = हमारे अन्दर आत्मतत्व को धारण करानेवाली [सात्विक दुग्ध से बुद्धि को सात्विक करके यह हमें आत्मदर्शन के योग्य बनाती है] (इराम्) = [इडा-गौ] गौ को (न:) = हमारे (गृहे) = घर में (धाता) = वे धारक प्रभु (दधात) = धारण करें। इन गौओं के होने पर प्रशस्त गोमय प्राप्त होता है-यह भूमि को उपजाऊ बनाता है तथा लेपन आदि के होने पर क्रिमिनाशन का कार्य करता है। गौ का दूध प्रशस्त बुद्धि देता है और नीरोगता प्राप्त कराता है। २. गोदुग्ध के प्रयोग से 'धाता'-वह धारक प्रभु (औदुम्बरस्य) = इस औदुम्बरमणि को (तेजसा) = तेज से (मे) = मेरे लिए (पुष्टिम्) = अंग-प्रत्यंग के पोषण को [दधातु] धारण करे।

    भावार्थ - हम गोदुग्ध के प्रयोग से नोरोग व तीन-बुद्धि बनें। प्रभु गोदुग्ध से अंग-प्रत्यंग को पुष्ट कर हमें दीर्घजीवी बनाते हैं।

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