अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत। व॑स॒न्तो अ॑स्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्म इ॒ध्मः श॒रद्ध॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। पुरु॑षेण। ह॒विषा॑। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। अत॑न्वत। व॒स॒न्तः। अ॒स्य॒। आ॒सी॒त्। आज्य॑म्। ग्री॒ष्मः। इ॒ध्मः। श॒रत्। ह॒विः ॥६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। पुरुषेण। हविषा। देवाः। यज्ञम्। अतन्वत। वसन्तः। अस्य। आसीत्। आज्यम्। ग्रीष्मः। इध्मः। शरत्। हविः ॥६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
विषय - वसन्त-ग्रीष्म-शरत्
पदार्थ -
१. इन मानव-शरीरों में निवास करते हुए देवाः देववृत्ति के पुरुष (यत्) = जब उस (हविषा) = [हु दाने] त्याग के पुञ्ज हविरूप (पुरुषेण) = परमपुरुष प्रभु से (यज्ञम् अतन्वत) = सम्बन्ध को विस्तृत करते हैं, अर्थात् उस प्रभु से अपना सम्बन्ध बढ़ाते हैं तब (वसन्त:) = वसन्त (ऋतु अस्य) = इस पुरुष की (आग्यम् आसीत्) = [अन्जू व्यक्ति] महिमा को व्याप्त करनेवाली होती है। वे देव वसन्त ऋतु में विकसित वनस्पतियों में प्रभु की महिमा को देखते हैं। २. (ग्रीष्मः) = ग्रीष्म ऋतु (इध्मः) = दीप्ति का साधनभूत ईधन हो जाती है। ग्रीष्म ऋतु के सूर्य की दीप्ति में वे प्रभु की ज्ञानदीप्ति का दर्शन करते हैं और (शरत्) = सब पत्तों को शीर्ण करती हुई शरत् ऋतु (हविः) = हवि बन जाती है। शरद् ऋतु में वृक्ष सब पत्तों को त्याग-सा देते हैं। इसी प्रकार प्रभु भी जीव के लिए सब-कुछ दे डालते हैं।
भावार्थ - प्रभु से अपना सम्पर्क बढ़ानेवाले देव वसन्त ऋतु में चारों और प्रभु की महिमा को देखते हैं। ग्रीष्म के दीम सूर्य में प्रभु को ज्ञानदीप्ति को देखते हैं और सब पत्तों को शीर्ण करती हुई शरद् में प्रभु के त्याग को देखते हैं।
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