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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    सूक्त - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त

    पुरु॑ष ए॒वेदं सर्वं॒ यद्भू॒तं यच्च॑ भा॒व्यम्। उ॒तामृ॑त॒त्वस्ये॑श्व॒रो यद॒न्येनाभ॑वत्स॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुरु॑षः। ए॒व। इ॒दम्। सर्व॑म्। यत्। भू॒तम्। यत्। च॒। भा॒व्य᳡म्। उ॒त। अ॒मृ॒त॒ऽत्वस्य॑। ई॒श्व॒रः। यत्। अ॒न्येन॑। अभ॑वत्। स॒ह ॥६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्। उतामृतत्वस्येश्वरो यदन्येनाभवत्सह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुषः। एव। इदम्। सर्वम्। यत्। भूतम्। यत्। च। भाव्यम्। उत। अमृतऽत्वस्य। ईश्वरः। यत्। अन्येन। अभवत्। सह ॥६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (पुरुषः एव) = वह ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाला प्रभु ही (यत्) = जो (इदं सर्वम्) = यह सब वर्तमान काल में है, (यत् भूतम्) = जो हो चुका है, (च भाव्यम्) = और भविष्य में होना है, उस सबका (ईश्वर:) = ईश्वर है-शासक है। प्रभु के शासन में ही सदा सम्पूर्ण संसार संसरण किया करता है। २. वे प्रभु इस संसार के ही नहीं, (उत) = अपितु (अमृतत्वस्य) = मोक्षलोक के भी [ईश्वरः] शासक हैं। (यत्) = जो यह मुक्तात्मा भी मुक्ति का काल समाप्त होने पर (अन्येन सह) = प्रभु से भिन्न इस प्रधान [प्रकृति] के साथ (अभवत्) = होता है। मुक्ति काल में तो यह मुक्त पुरुष प्रभु के साथ विचरता था, परन्तु इस काल के समास होने पर प्रभु की व्यवस्था में उसे फिर से शरीर लेना होता है और इसप्रकार फिर प्रकृति के साथ होना पड़ता है, अर्थात् उसे फिर से शरीरलेना पड़ता है।

    भावार्थ - वे परमपुरुष प्रभु वर्तमान, भूत व भविष्य में होनेवाले सब ब्रह्माण्डों के स्वामी हैं। मुक्तात्मा भी प्रभु के शासन में होते हैं और मुक्तिकाल की समाप्ति पर पुनः प्रभु की व्यवस्था से शरीर धारण करते हैं।

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