अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 15
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
स॒प्तास्या॑सन्परि॒धय॒स्त्रिः स॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः। दे॒वा यद्य॒ज्ञं त॑न्वा॒ना अब॑ध्न॒न्पुरु॑षं प॒शुम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त। अ॒स्य॒। आ॒स॒न्। प॒रि॒ऽधयः॑। त्रिः। स॒प्त। स॒म्ऽइधः॑। कृ॒ताः। दे॒वाः। यत्। य॒ज्ञम्। त॒न्वा॒नाः। अब॑ध्नन्। पुरु॑षम्। प॒शुम् ॥६.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त। अस्य। आसन्। परिऽधयः। त्रिः। सप्त। सम्ऽइधः। कृताः। देवाः। यत्। यज्ञम्। तन्वानाः। अबध्नन्। पुरुषम्। पशुम् ॥६.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 15
विषय - सात परिधियाँ, इक्कीस समिधाएँ
पदार्थ -
१. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यत) = जब (यज्ञं तन्वाना:) = प्रभु से सम्बन्ध को विस्तृत करते हुए (पुरुषम्) = अतिशयित पौरुषवाले (पशुम्) = [कामः पशुः क्रोध पशुः] काम-क्रोधरूप पशु को (अबध्नन्) = बाँध लेते हैं-अपने वशीभूत कर लेते हैं तब (अस्य) = इस काम-क्रोधरूप पशु का बन्धन करनेवाले साधक की (सप्त) = सात (परिधयः) = परिधियाँ (आसन) = होती हैं। इस साधक के 'दो मात्र भी उल्लंघन नहीं करती। २. इसी का यह परिणाम होता है कि (त्रि:सप्त) = इक्कीस (समिधः) = शक्तियों की दीप्तियाँ (कृता:) = की जाती हैं। काम-क्रोध आदि के नियमन से शक्तियों का दीपन स्वभावत: होता ही है। काम-क्रोध ही तो शक्तियों को क्षीण करते हैं। इनके नियमन से शक्तियों का दीपन होता है।
भावार्थ - प्रभु के सम्पर्क से हम काम-क्रोध का नियमन कर पाते हैं। उस समय मर्यादित जीवनबाले बनकर हम दीसशक्तियोंवाले होते हैं।
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