अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
वि॒राडग्रे॒ सम॑भवद्वि॒राजो॒ अधि॒ पूरु॑षः। स जा॒तो अत्य॑रिच्यत प॒श्चाद्भूमि॒मथो॑ पु॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽराट्। अग्ने॑। सम्। अ॒भ॒व॒त्। वि॒ऽराजः॑। अधि॑। पुरु॑षः। सः। जा॒तः। अति॑। अ॒रि॒च्य॒त॒। प॒श्चात्। भूमि॑म्। अथो॒ इति॑। पु॒रः ॥६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
विराडग्रे समभवद्विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥
स्वर रहित पद पाठविऽराट्। अग्ने। सम्। अभवत्। विऽराजः। अधि। पुरुषः। सः। जातः। अति। अरिच्यत। पश्चात्। भूमिम्। अथो इति। पुरः ॥६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
विषय - 'विराट' की उत्पत्ति
पदार्थ -
१. (अग्ने) = सृष्टि के आरम्भ में प्रभु ने 'सत्व, रजस्व तमस्' की साम्यावस्थारूप प्रकृति में जब गति दी तब सर्वप्रथम (विराट्) = एक विशिष्ट दीसिवाला महान पिण्ड (समभवत) = हुआ। यही सांख्य में 'महत्' कहा गया है। मनु ने इसे ही 'हेमपिण्ड' कहा है। (विराज:) = इस विराट् पिण्ड का (अधिपूरुष:) = अधिष्ठातृरूपेण वह परमपुरुष 'प्रभु' था। उसकी अध्यक्षता में ही तो यह प्रकृति चराचर को जन्म देती है। 'मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । २. (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ (स:) = वह विराट् पिण्ड (अत्यरिच्यत) = सर्वाधिक देदीप्यमान हुआ 'तदण्डमभवद्धेमं सहस्रांशुसमप्रभम् । (पश्चात्) = इस विराट् की उत्पत्ति के बाद प्रभु ने इस विराट् से (भूमिम्) = प्राणियों के निवासस्थानभूत लोकों को उत्पन्न किया। (अथ उ) = और अब (पुर:) = प्राणियों की शरीररूप पुरियों का निर्माण किया।
भावार्थ - प्रभु की अध्यक्षता में प्रकृति से एक विराट् पिण्ड उत्पन्न हुआ। इस देदीप्यमान पिण्ड से ही पीछे भिन्न-भिन्न लोक व प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति हुई।
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