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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    क्ष॒पो रा॑जन्नु॒त त्मनाग्ने॒ वस्तो॑रु॒तोषसः॑। स ति॑ग्मजम्भ र॒क्षसो॑ दह॒ प्रति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष॒पः । रा॒ज॒न् । उ॒त । त्मना॑ । अग्ने॑ । वस्तोः॑ । उ॒त । उ॒षसः॑ । सः । ति॒ग्म॒ऽज॒म्भ॒ । र॒क्षसः॑ । द॒ह॒ । प्रति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषसः। स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षपः। राजन्। उत। त्मना। अग्ने। वस्तोः। उत। उषसः। सः। तिग्मऽजम्भ। रक्षसः। दह। प्रति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे तिग्मजम्भाऽग्ने राजँस्त्वं त्मना यथा सूर्यः क्षपो निवर्त्योत स वस्तोरुषसो भावं करोति तथा धार्मिकेषु सज्जनेषु विद्याविनयौ प्रकाश्योत रक्षसः प्रति दह ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (क्षपः) रात्रीः (राजन्) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमान (उत) अपि (त्मना) आत्मना (अग्ने) विद्वन् (वस्तोः) दिनस्य (उत) अपि (उषसः) प्रत्यूषकालस्य (तिग्मजम्भ) तिग्मं तीव्रं जम्भं वक्त्रं यस्य तत्सम्बुद्धौ (रक्षसः) दुष्टान् (दह) (प्रति) ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सविता सन्निहितं जगत् प्रकाश्य वृष्टिं कृत्वा सर्वं रक्षति तमो निवारयति राजानो धार्मिकान् संरक्ष्य दुष्टान् दण्डयित्वा राज्यं रक्षन्तु ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (तिग्मजम्भ) तीव्र मुख से बोलनेहारे (अग्ने) विद्वन् ! (राजन्) न्याय विनय से प्रकाशमान तू (त्मना) अपने आत्मा से जैसे सूर्य (क्षपः) रात्रियों को निवर्त्त करके (सः) वह (वस्तोः) दिन (उत) और (उषसः) प्रभातों को विद्यमान करता है, वैसे धार्मिक सज्जनों में विद्या और विनय का प्रकाश कर (उत) और (रक्षसः) दुष्टाचारियों को (प्रतिदह) प्रत्यक्ष दग्ध कर ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सविता निकट प्राप्त जगत् को प्रकाशित कर वृष्टि करके सब जगत् की रक्षा और अन्धकार का निवारण करता है, वैसे सज्जन राजा लोग धार्मिकों की रक्षा कर दुष्टों के दण्ड से राज्य की रक्षा करें ॥ ६ ॥

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    विषय

    रक्षोदहन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार हे (राजन्) = ज्ञान से दीप्त प्रभो ! आप हमें ज्ञानयुक्त धन तो दीजिए ही (उत) = और साथ ही (त्मना) = आप स्वयं (रक्षसः) = हमारी राक्षसीवृत्तियों को (क्षपः) [क्षपय] नष्ट कीजिए । आपकी कृपा के बिना हम इन वृत्तियों को नष्ट न कर सकेंगे - “त्वया स्विद् युजा वयम्” - आपके साथ मिलकर ही इनका नाश किया जा सकता है । जीव प्रभु को साथी के रूप में प्राप्त करके ही कामादि का विध्वंस करनेवाला होता है । २. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तिग्मजम्भ) = तीक्ष्ण दंष्ट्रोवाले प्रभो ! (सः) = आप (वस्तोः उत उषसः) = दिन और रात, अर्थात् सदा [उषस् यहाँ रात्रि के लिए है], (रक्षसः) = इन राक्षसी वृत्तियों को (प्रतिदह) = एक - एक करके भस्म कर दीजिए । आपके अनुग्रह से ही यह रक्षोदहन हो पाएगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - उपासना से प्रभु की शक्ति हममें सञ्चरित होती है और राक्षसी भावों का विनाश करती है ।

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    विषय

    राजा, विद्वान्, परमेश्वर से प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( राजन् ) राजन् ! गुणों से प्रकाशमान ! ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! परमेश्वर ! तू ( रक्षसः ) दुष्ट पुरुषों और विघ्नकारी दुष्टभावों का ( क्षपः ) विनाश कर । ( उत ) और है (तिग्मजम्भ) अग्नि के समान तीक्ष्ण, तेजोमय मुख या ज्वाला के तीक्ष्ण नाशक साधनों, शस्त्रास्त्रों वाले ! ( सः ) वह तू ( त्मना ) अपने बल और ज्ञान सामर्थ्य से (वस्तोः उत उषसः) दिन और रात (रक्षसः) दुष्ट पुरुषों को (प्रति दह) काठों को आग के समान भस्म कर डाल । इति सप्तविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे तिग्मजम्भ अग्ने राजन् त्वं त्मना यथा सूर्यः क्षपः निवर्त्य उत स वस्तोःउषसः भावं करोति तथा धार्मिकेषु सज्जनेषु विद्याविनयौ प्रकाश्य उत रक्षसः प्रति दह ॥६॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (तिग्मजम्भ) तिग्मं तीव्रं जम्भं वक्त्रं यस्य तत्सम्बुद्धौ= तीक्ष्ण जबड़ों से बोलनेवाले मुख के, (अग्ने) विद्वन्= विद्वान्, (राजन्) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमान=न्याय प्रियता और विनय से शानदार, प्रतिभाशाली, दीप्तिमान, (त्वम्)=तुम, (त्मना) आत्मना=अपने, (यथा)=जैसे, (सूर्यः)=सूर्य, (क्षपः) रात्रीः=रात्रि काल को, (निवर्त्य)=समाप्त करके, (उत) अपि=भी, (सः)=वह, (वस्तोः) दिनस्य=दिन के, (उषसः) प्रत्यूषकालस्य= उषा से पहले के काल के, (भावम्)=मिलाने के कार्य को, (करोति)=करता है, (तथा)=वैसे ही, (धार्मिकेषु) =धार्मिक, (सज्जनेषु)= सज्जनों में, (विद्याविनयौ)= विद्या और विनय का, (प्रकाश्य) = प्रकाश करके, (उत) अपि=भी, (रक्षसः) दुष्टान्=दुष्टों को, (प्रति)=एक-एक करके, (दह)=जला दीजिये ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य निकट स्थित जगत् को प्रकाशित कर, वर्षा करके सब की रक्षा करता है और अन्धकार को दूर करता है, वैसे ही राजा लोग धार्मिकों की रक्षा करके दुष्टों को दण्ड देकर के राज्य की रक्षा करें ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (तिग्मजम्भ) तीक्ष्ण जबड़ों से बोलनेवाले मुख के, [अर्थात् कटु सत्य को बोलनेवाले], (अग्ने) विद्वान्! (राजन्) न्याय प्रियता और विनय से शानदार, प्रतिभाशाली और दीप्तिमान (त्वम्) तुम (त्मना) अपने, (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (क्षपः) रात्रि काल को (निवर्त्य) निष्पन्न करके (उत) भी (सः) वह (वस्तोः) दिन के (उषसः) उषा से पहले के काल को (भावम्) मिलाने के कार्य को (करोति) करता है, (तथा) वैसे ही (धार्मिकेषु) धार्मिक (सज्जनेषु) सज्जनों में (विद्याविनयौ) विद्या और विनय का (प्रकाश्य) प्रकाश करके (उत) भी (रक्षसः) दुष्टों को (प्रति) एक-एक करके (दह) जला दीजिये ॥६॥

    संस्कृत भाग

    क्ष॒पः । रा॒ज॒न् । उ॒त । त्मना॑ । अग्ने॑ । वस्तोः॑ । उ॒त । उ॒षसः॑ । सः । ति॒ग्म॒ऽज॒म्भ॒ । र॒क्षसः॑ । द॒ह॒ । प्रति॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सविता सन्निहितं जगत् प्रकाश्य वृष्टिं कृत्वा सर्वं रक्षति तमो निवारयति राजानो धार्मिकान् संरक्ष्य दुष्टान् दण्डयित्वा राज्यं रक्षन्तु ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा जवळ असलेल्या स्थळांना सूर्य प्रकाशित करतो. वृष्टी करून सर्व जगाचे रक्षण व अंधकाराचे निवारण करतो तसे सज्जन राजेलोकांनी धार्मिकांचे रक्षण करून दुष्टांना दंड देऊन राज्याचे रक्षण करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, blazing with light and power, creating and ruling over nights, days and the dawns, lord of the mighty order of justice and dispensation, burn up the evil and the wicked.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned king shining with justice and humility, O man of splendid face, as the sun dispels the darkness of the night and turns it into the dawn and the day, in the same manner, you should illuminate and spread knowledge and humility among righteous persons and should burn up or destroy the wicked ignoble men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (राजन) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमान = Shining with justice and humility (क्षपः) रात्री:= Nights.(नि० प० १.७ ) (तिग्मजम्भ) तिग्मं तीव्रं तस्य जम्भं वक्तं तस्य तत् सम्बुद्धौ । = Man with splendid face or effective speech

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun protects the world by giving light, causing rain and dispelling darkness, in the same way, righteous kings, should protect the righteous noble persons and punish the wicked, thereby preserving the State.

    Translator's Notes

    क्षपेति रात्रिनाम (नि० १.७ ) राजृ-दीप्तौ

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of scholar should he be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tigmajambha)= of the mouth that speaks with sharp jaws, [arthāt kaṭu satya ko bolanevāle]= i.e. those who speak the bitter truth, (agne) =scholar, (rājan)=glorious, brilliant and radiant with love of justice and modesty, (tvam) =you, (tmanā) =own,, (yathā)=like, (sūryaḥ) =Sun, (kṣapaḥ) =to the night, (nivartya) by accomplishing, (uta) =also, (saḥ) =that, (vastoḥ) =of day, (uṣasaḥ)=the time before daw, (bhāvam)= the work of joinin, (karoti) =does, (tathā) =similarly, (dhārmikeṣu) =righteous, (sajjaneṣu) =in gentlemen, (vidyāvinayau)=of wisdom and humility, (prakāśya)= by manifesting, (uta) =also, (rakṣasaḥ)=to the evil ones, (prati) =one by one, (daha)= burn.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar of the mouth that speaks with sharp jaws, that is, the one who speaks the bitter truth! You yourself are glorious, brilliant and radiant with love of justice and modesty as the Sun, even after accomplishing the night, does the work of joining the period before the dawn of the day, in the same way, by manifesting the knowledge and humility among the righteous gentlemen, you also destroy the evil ones. Burn them one by one.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun protects everyone by illuminating the nearby world, making it to rain and removing darkness, in the same way, kings should protect the kingdom by protecting the righteous by punishing the wicked.

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