ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 8
आ नो॑ अग्ने र॒यिं भ॑र सत्रा॒साहं॒ वरे॑ण्यम्। विश्वा॑सु पृ॒त्सु दु॒ष्टर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । र॒यिम् । भ॒र॒ । स॒त्रा॒ऽसह॑म् । वरे॑ण्यम् । विश्वा॑सु । पृ॒त्ऽसु । दु॒स्तर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्यम्। विश्वासु पृत्सु दुष्टरम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। अग्ने। रयिम्। भर। सत्राऽसाहम्। वरेण्यम्। विश्वासु। पृत्ऽसु। दुस्तरम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने सभाध्यक्ष ! त्वं नोऽस्मभ्यं विश्वासु पृत्सु सत्रासाहं वरेण्यं दुष्टरं रयिमाभर ॥ ८ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) प्रदातः प्रदानहेतुर्वा (रयिम्) प्रशस्तद्रव्यसमूहम् (भर) (सत्रासाहम्) सत्यानि सह्यन्ते येन तम् (वरेण्यम्) प्रशस्तगुणकर्मस्वभावकारकम् (विश्वासु) सर्वासु (पृत्सु) सेनासु (दुष्टरम्) शत्रुभिर्दुःखेन तरितुं योग्यम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः सभाध्यक्षाश्रयेणाग्न्यादिपदार्थसंप्रयोगेण च विनाऽखिलं सुखं प्राप्तुं न शक्यत इति वेद्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) दान देने वा दिलानेवाले सभाध्यक्ष ! आप (नः) हम लोगों के लिये (विश्वासु) सब (पृत्सु) सेनाओं में (सत्रासाहम्) सत्य का सहन करते हैं जिससे उस (वरेण्यम्) अच्छे गुण और स्वभाव होने का हेतु (दुष्टरम्) शत्रुओं के दुःख से तरने योग्य (रयिम्) अच्छे द्रव्यसमूह को (आभर) अच्छी प्रकार धारण कीजिये ॥ ८ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को सभाध्यक्ष आदि के आश्रय और अग्न्यादि पदार्थों के विज्ञान के विना सम्पूर्ण सुख प्राप्त कभी नहीं हो सकता ॥ ८ ॥
विषय
वरेण्य धन
पदार्थ
१. हे (अग्ने) हमारी उन्नतियों के साधक प्रभो ! (नः) = हमारे लिए आप (रयिम्) = धन को (आभर) = सर्वथा प्राप्त कराइए । उस धन को जोकि [क] (सत्रासाहम्) = युगपत् [एकदम] ही हमारी दारिद्र्यजनित सब विपत्तियों को समाप्त करनेवाला है, जिस धन से हमारे भूख - प्यासादि से होनेवाले सब कष्ट समाप्त हो जाते हैं, अर्थात् जो धन हमारी सब भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर देता है, [ख] (वरेण्यम्) = [प्रशस्तगुणकर्मस्वभावकारकम् - द०] जो धन वरण के योग्य है, जोकि उत्तम मार्ग से कमाये जाने के कारण हमारे गुण - कर्म - स्वभाव को प्रशस्त बनानेवाला है और [ग] (विश्वासु पृत्सु) = सब संग्रामों में (दुष्टरम्) = शत्रुओं से दुस्तर है, अर्थात् जिस धन के कारण हम काम - क्रोधादि का शिकार नहीं होते । २. उस धन की क्या उपयोगिता जोकि [क] हमारे कष्टों को दूर न करके उन्हें बढ़ा दे, [ख] जो हमारे गुण - कर्म - स्वभाव को अप्रशस्त बना दे, और [ग] जो हमें कामादि शत्रुओं के साथ संग्राम में जीतने के लिए सक्षम नहीं बनाए । ऐसे धन से रहित होना ही अच्छा है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें वह धन प्राप्त कराएँ जो हमारी क्षुधा आदि से जनित विपत्तियों को दूर करे, हमें श्रेष्ठ बनाए और कामादि के विध्वंस के लिए समर्थ करे ।
विषय
राजा, विद्वान्, परमेश्वर से प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! हे प्रभो ! हे ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) हमें ( सत्रासाहम् ) एक ही साथ विद्यमान समस्त शत्रुओं और कष्टों के पराजित कर देने वाले ( वरेण्यम् ) उत्तम मार्ग में ले जाने वाले, अथवा सर्वश्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव के उत्पादक (विश्वासु) समस्त ( पृत्सु ) सेनाओं और संग्रामों में भी ( दुस्तरम् ) दुस्तर, न समाप्त होने वाला, अक्षय ( रयिम् आ भर ) ऐश्वर्य प्राप्त करा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने सभाध्यक्ष ! त्वं नः अस्मभ्यं विश्वासु पृत्सु सत्रासाहं वरेण्यं दुष्टरं रयिम् आ भर ॥८॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) प्रदातः प्रदानहेतुर्वा=प्रदान करनेवाले और प्रदान करने के निमित्त, (सभाध्यक्ष)=सभा के अध्यक्ष! (त्वम्)तुम, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (विश्वासु) सर्वासु=समस्त, (पृत्सु) सेनासु=सेनाओं में, (सत्रासाहम्) सत्यानि सह्यन्ते येन तम्=सत्यों से सहन करनेवाले, (वरेण्यम्) प्रशस्तगुणकर्मस्वभावकारकम्=प्रशस्त, गुण,कर्म और स्वभाव को, (दुष्टरम्) शत्रुभिर्दुःखेन तरितुं योग्यम्=शत्रुओं के द्वारा दिये जानेवाले दुःखों से पार होने के योग्य, (रयिम्) प्रशस्तद्रव्यसमूहम्=उत्कृष्ट पदार्थों के समूह को, (आ) समन्तात्=अच्छे प्रकार से, (भर)=पूर्ण कीजिये ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा सभाध्यक्ष आदि के आश्रय और अग्नि आदि पदार्थों के अच्छे प्रकार से प्रयोग किये विना सम्पूर्ण सुख प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) प्रदान करनेवाले और प्रदान करने के निमित्त, (सभाध्यक्ष) सभा के अध्यक्ष! (त्वम्) तुम (नः) हमारे लिये (विश्वासु) समस्त (पृत्सु) सेनाओं में (सत्रासाहम्) सत्यों से सहन करनेवाले, (वरेण्यम्) प्रशस्त, गुण, कर्म और स्वभाव को, (दुष्टरम्) शत्रुओं के द्वारा दिये जानेवाले दुःखों से पार होने के योग्य, (रयिम्) उत्कृष्ट पदार्थों के समूह को (आ) अच्छे प्रकार से (भर) पूर्ण कीजिये ॥८॥
संस्कृत भाग
आ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । र॒यिम् । भ॒र॒ । स॒त्रा॒ऽसह॑म् । वरे॑ण्यम् । विश्वा॑सु । पृ॒त्ऽसु । दु॒स्तर॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सभाध्यक्षाश्रयेणाग्न्यादिपदार्थसंप्रयोगेण च विनाऽखिलं सुखं प्राप्तुं न शक्यत इति वेद्यम् ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांना सभाध्यक्ष इत्यादींच्या आश्रयाशिवाय व अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या विज्ञानाशिवाय संपूर्ण सुख प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of wealth and power, bless us with cherished wealth and power, formidable and invincible in all the battles of life, overcoming all and ever.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (President of the Assembly) is taught further in the eighth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Agni (President of the Assembly) who are a liberal donor, bring to us ever-conquering wealth possessing true power, wealth which is most acceptable as it leads to noble merits, actions and temperament, invincible in all struggles with wicked enemies or their armies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पृत्सु) सेनासु (वरेण्यम् ) प्रशस्त गुणकर्मस्वभावकारकम् । = Leading to noble met¹its, actions and temperament, most acceptable.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men can not enjoy all happiness without the help of the President of the Assembly or the council of ministers and the proper utilisation of fire and other elements.
Translator's Notes
पृत्सु इति संग्रामनाम (निघ० २.१७ ) = Battles. It is the armies with whose help, battles are waged, hence Rishi Dayananda has intepreted it here as सेनासु or armies.
Subject of the mantra
Then, how should that President of the Assembly be?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne)= the one who provides and is the cause of providing, (sabhādhyakṣa)=the President of the Assembly, (tvam) =you, (naḥ) =for us, (viśvāsu) =all, (pṛtsu) =in amies, (satrāsāham)= tolerating through the truth, (vareṇyam)=to excellent deeds and nature, (duṣṭaram) =able to overcome the sufferings caused by enemies, (rayim)=to the group of excellent things, (ā)= in a good way (bhara)= complete.
English Translation (K.K.V.)
O the one who provides and is the cause of providing, the President of the Assembly! May you complete for us in a good way the group of excellent things that tolerates through the truth in all the armies and is praised; has excellent deeds and nature and is capable of overcoming the sorrows caused by the enemies.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
It should be known that complete happiness cannot be achieved by human beings without the shelter of the President of the Assembly etc. and proper use of things like fire et cetera.
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