ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 10
पुन॑:पुन॒र्जाय॑माना पुरा॒णी स॑मा॒नं वर्ण॑म॒भि शुम्भ॑माना। श्व॒घ्नीव॑ कृ॒त्नुर्विज॑ आमिना॒ना मर्त॑स्य दे॒वी ज॒रय॒न्त्यायु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपुनः॑ऽपुनः । जाय॑माना । पु॒रा॒णी । स॒मा॒नम् । वर्ण॑म् । अ॒भि । शुम्भ॑माना । श्व॒घ्नीऽइ॑व । कृ॒त्नुः । विजः॑ । आ॒ऽमि॒ना॒ना । मर्त॑स्य । दे॒वी । ज॒रय॑न्ती । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुन:पुनर्जायमाना पुराणी समानं वर्णमभि शुम्भमाना। श्वघ्नीव कृत्नुर्विज आमिनाना मर्तस्य देवी जरयन्त्यायु: ॥
स्वर रहित पद पाठपुनःऽपुनः। जायमाना। पुराणी। समानम्। वर्णम्। अभि। शुम्भमाना। श्वघ्नीऽइव। कृत्नुः। विजः। आऽमिनाना। मर्तस्य। देवी। जरयन्ती। आयुः ॥ १.९२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशी किं करोतीत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
या श्वघ्नीव कृत्नुर्विज आमिनानेव मर्त्तस्यायुर्जरयन्ती पुनः पुनर्जायमाना समानं वर्णमभिशुम्भमाना पुराणी देव्युषा अस्ति सा जागरितैर्मनुष्यैः सेवनीया ॥ १० ॥
पदार्थः
(पुनः पुनः) प्रतिदिनम् (जायमाना) उत्पद्यमाना (पुराणी) प्रवाहरूपेण सनातनी (समानम्) तुल्यम् (वर्णम्) रूपम् (अभि) अभितः (शुम्भमाना) प्रकाशयन्ती (श्वघ्नीव) यथा वृकी शुनः श्वादीन्मृगान् कृन्तन्ती (कृत्नुः) छेदिका श्येनी इव (विजः) इतस्ततश्चलतः पक्षिणः (आमिनाना) समन्ताद्धिंसन्ती। मीञ् हिंसायामित्यस्य रूपम्। (मर्त्तस्य) मरणधर्मसहितस्य प्राणिजातस्य (देवी) प्रकाशमाना (जरयन्ती) हीनं कुर्वती (आयुः) जीवनम् ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाऽन्तर्धाना प्रसिद्धा वा वृकी मृगान् छिनत्ति यथा वा श्येन्युड्डीयमानान् पक्षिणो हन्ति तथैवेयमुषा अस्माकमायुः शनैः शनैः कृन्ततीति विदित्वाऽस्माभिरालस्यं त्यक्त्वा रजन्याश्चरमे याम उत्थाय विद्याधर्मपरोपकारादिषु व्यवहारेषु यथावन्नित्यं वर्त्तितव्यम्। येषामीदृशी बुद्धिस्त आलस्याऽधर्मयोर्मध्ये कथं प्रवर्त्तेरन् ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसी है और क्या करती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (श्वघ्नीव) कुत्ते और हिरणों को मारनेहारी वृकी के समान वा जैसे (कृत्नुः) छेदन करनेवाली श्येनी (विजः) इधर-उधर चलते हुए पक्षियों का छेदन करती है जैसे (आमिनाना) हिंसिका (मर्त्तस्य) मरने-जीनेहारे जीवमात्र की (आयुः) आयुर्दा को (जरयन्ती) हीन करती हुई (पुनः पुनः) दिनोंदिन (जायमाना) उत्पन्न होनेवाली (समानम्) एकसे (वर्णम्) रूप को (अभि शुम्भमाना) सब ओर से प्रकाशित करती हुई वा (पुराणी) सदा से वर्त्तमान (देवी) प्रकाशमान प्रातःकाल की वेला है, वह जागरित होके मनुष्यों को सेवने योग्य है ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे छिपके वा देखते-देखते भेड़िया की स्त्री वृकी वन के जीवों को तोड़ती और जैसे बाजिनी उड़ते हुए पखेरुओं को विनाश करती है, वैसे ही यह प्रातःसमय की वेला सोते हुए हम लोगों की आयुर्दा को धीरे-धीरे अर्थात् दिनों-दिन काटती है ऐसा जान और आलस्य छोड़कर हम लोगों को रात्रि के चौथे प्रहर में जाग के विद्या, धर्म और परोपकार आदि व्यवहारों में नित्य उचित वर्त्ताव रखना चाहिये। जिनकी इस प्रकार की बुद्धि है, वे लोग आलस्य और अधर्म्म के बीच में कैसे प्रवृत्त हों ! ॥ १० ॥
विषय
उषा द्वारा जागरण
पदार्थ
१. (देवी) = प्रकाशमयी - हृदयों में दिव्य गुणों को जन्म देनेवाली उषा (विश्वानि भुवना) = सब लोकों को (अभिचक्ष्या) = प्रकाशित करके (प्रतीची) = [प्रति अञ्च] प्रत्येक व्यक्ति की ओर जानेवाली (चक्षुः) = प्रकाशक आँख के समान (उर्विया विभाति) = खूब ही दीप्त होती है अथवा [उर्विया = उर्व्या - द०] इस पृथिवी के साथ सुशोभित होती है । इस प्रथिवी को अपनी शोभा से शोभायुक्त करती है । २. यह उषा (विश्वं जीवम्) = सब प्राणियों को (चरसे) = इधर - उधर विचरण के लिए (बोधयन्ती) = बोधयुक्त करती हुई है, सबको अपने - अपने कार्य में लगने के लिए जागरित कर देती है । ३. यह उषा (विश्वस्य) = सब (मनायोः) = विचारशील पुरुषों के (वाचम्) = स्तुतिवचनों को (अविदत्) = प्राप्त करती है । सब विचारशील पुरुष प्रातः उठकर प्रभु के उपासन व स्तवन में प्रवृत्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = उषा का प्रकाश सबके लिए मार्ग दर्शन करता है । उषा सबको कार्यों में व्याप्त होने के लिए जगाती है और विचारशील पुरुष उषाः काल में प्रभुस्तवन में प्रवृत्त होते हैं ।
विषय
पुराणी देवी का रहस्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( पुनः पुनः जायमाना ) प्रतिदिन प्रकट होने वाली, ( पुराणी ) प्रवाह से नित्य उषा (समानं वर्णम् अभि शुम्भमाना ) एक समान प्रकाशित रूप प्रकट करती है और ( श्वघ्नी इव ) कुत्तों की सहायता से मृगों को मारने वाली व्याधिनी या कुक्कुर आदि पशुओं को मारने वाली भेड़ियन के समान ( कृत्नुः ) पोरु २ काटने वाली या बाज पक्षिणी के समान ( विजः ) भय से व्यथित प्राणियों को (आमिनाना ) काल धर्म से विनाश करती हुई ( मर्त्तस्य आयुः जरयन्ती ) मरणधर्मा प्राणी की आयु को शेष कर देती हैं उसी प्रकार ( देवी ) उत्तम गुणों से प्रकाशित होने वाली सौभाग्यवती स्त्री, ( पुनः पुनः जायमाना ) बार २ उत्तम रूपों में प्रकट होने वाली, या ( पुनः पुनः जायमाना ) बार २ पुत्र प्रसव करती हुई और ( समानं वर्णम् अभि शुम्भमाना ) अपने समान वर्ण, रूप गुणों युक्त पुरुष को या प्रसव द्वारा पुत्र को ( अभि ) प्राप्त करके (शुम्भमाना) शोभा को प्राप्त होती हुई ( विजः ) उद्वेग करने वाले भयजनक बाधक कारणों और शत्रुओं को ( श्वघ्नी इव विजः कृत्नुः ) पक्षी गणों को वृकी या व्याघ्री के समान (आमिनाना) विनाश करती हुई (पुराणी) पुर, अर्थात् अन्तःपुर में जीवन स्वरूप होकर या ( पुराणी ) स्वयं वृद्ध होकर ( मर्त्तस्य आयुः जरयन्ती ) और अपने साथ अपने संगी पति की आयु को भी वृद्धावस्था तक प्राप्त कराती हुई जीवन व्यतीत करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत जसे लांडगी लपूनछपून वनातील प्राण्यांचे लचके तोडते व जसे बहिर्ससाण्याची मादी उडणाऱ्या पक्ष्यांचा विनाश करते तसेच ही प्रातःकाळची वेळ निद्रिस्त लोकांचे आयुष्य हळूहळू अर्थात दिवसेंदिवस कमी करते हे जाणून आळस सोडून आम्ही रात्रीच्या चौथ्या प्रहरी जागे होऊन विद्या, धर्म व परोपकार इत्यादी व्यवहार सदैव योग्यरीत्या पार पाडावा. ज्यांची अशा प्रकारची बुद्धी आहे ते लोक आळस व अधर्मात कसे प्रवृत्त होतील? ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Old and ancient, born and reborn again and again, ever a new, the Brilliant Dawn, shining in glory with the same refulgence of beauty, an artificer of eternity consuming time today and tomorrow collects the stakes at play and counts out the age of mortals day by day.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Usha and what does she do is taught in the 10th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Usha (dawn) ancient and eternal (by flow of the cycle) born again and again, and bright with unchanging hues or decking her beauty with the self-same raiment, diminishes the life of a mortal, like the shewolf cutting into pieces the dogs and other animals or the female hawk hunting the moving birds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पुराणी) प्रवाहरूपेण सनातनी = eternal by flow of the Cycle. (श्वघ्नी) यथा वृकीशुनः श्वादीन् मृगान् कृन्तन्ती । = Like the she-wolf cutting into pieces dogs and other animals. (कृत्नु:) छेदिका श्येनी इव = Like the she hawk that kills birds. (विजः) इतस्तत: चलतः पक्षिरण: = Moving or flying birds.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara (simile ) used in the Mantra: As a she wolf cuts into pieces dogs, deer and other animals and as a she-hawk kills flying birds, in The same manner, the Usha (dawn) is diminishing our life. Knowing this, we should give up all idleness, should get up early in the morning and engage ourselves in the acquisition of knowledge, Dharma and doing good to others. Those who bear this is mind, how can they be ever lazy and unrighteous ?
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