ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 4
अधि॒ पेशां॑सि वपते नृ॒तूरि॒वापो॑र्णुते॒ वक्ष॑ उ॒स्रेव॒ बर्ज॑हम्। ज्योति॒र्विश्व॑स्मै॒ भुव॑नाय कृण्व॒ती गावो॒ न व्र॒जं व्यु१॒॑षा आ॑व॒र्तम॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । पेशां॑सि । व॒प॒ते॒ । नृ॒तूःऽइ॑व । अप॑ । ऊ॒र्णु॒ते॒ । वक्षः॑ । उ॒स्राऽइ॑व बर्ज॑हम् । ज्योतिः॑ । विश्व॑स्मै । भुव॑नाय । कृ॒ण्व॒ती । गावः॑ । न । व्र॒जम् । वि । उ॒षाः । आ॒व॒रित्या॑वः । तमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि पेशांसि वपते नृतूरिवापोर्णुते वक्ष उस्रेव बर्जहम्। ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वती गावो न व्रजं व्यु१षा आवर्तम: ॥
स्वर रहित पद पाठअधि। पेशांसि। वपते। नृतूःऽइव। अप। ऊर्णुते। वक्षः। उस्राऽइव बर्जहम्। ज्योतिः। विश्वस्मै। भुवनाय। कृण्वती। गावः। न। व्रजम्। वि। उषाः। आवरित्यावः। तमः ॥ १.९२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मनुष्या योषा नृतूरिव पेशांस्यधि वपते वक्ष उस्रेव बर्जहं तमोऽपोर्णु ते विश्वस्मै भुवनाय ज्योतिः कृण्वतो व्रजं गावो न गच्छति तमोऽन्धकारं व्यावश्च स्वप्रकाशेनाच्छादयति तथा साध्वी स्त्री स्वपति प्रसादयेत् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अधि) उपरिभावे (पेशांसि) रूपाणि (वपते) स्थापयति (नृतूरिव) यथा नर्त्तको रूपाणि धरति तथा। नृतिशृध्योः कूः। उ० १। ९१। अनेन नृतिधातोः कूप्रत्ययः। (अप) दूरीकरणे (ऊर्णुते) आच्छादयति (वक्षः) वक्षस्थलम् (उस्रेव) यथा गौस्तथा (बर्जहम्) अन्धकारवर्जकं प्रकाशं हन्ति तत् (ज्योतिः) प्रकाशम् (विश्वस्मै) सर्वस्मै (भुवनाय) जाताय लोकाय (कृण्वती) कुर्वती (गावः) धेनवः (न) इव (व्रजम्) निवासस्थानम् (वि) विविधार्थे (उषाः) (आवः) वृणोति (तमः) अन्धकारम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। सूर्यस्य यत्केवलं ज्योतिस्तद्दिनं यत्तिर्यग्गति भूमिस्पृक् तदुषाश्चेत्युच्यते नैतया विना जगत्पालनं संभवति तस्मादेतद्विद्या मनुष्यैरवश्यं भावनीया ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसी हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (उषाः) सूर्य्य की किरण (नृतूरिव) जैसे नाटक करनेवाला वा नट वा नाचनेवाला वा बहुरूपिया अनेक रूप धारण करता है, वैसे (पेशांसि) नानाप्रकार के रूपों को (अधिवपते) ठहराती है वा (वक्षः+उस्रेव) जैसे गौ अपनी छाती को वैसे (बर्जहम्) अन्धेरे को नष्ट करनेवाले प्रकाश के नाशक अन्धकार को (अपऊर्णुते) ढांपती वा (विश्वस्मै) समस्त (भुवनाय) उत्पन्न हुए लोक के लिये (ज्योतिः) प्रकाश को (कृण्वती) करती हुई (व्रजं, गावो, न) जैसे निवासस्थान को गौ जाती हैं, वैसे स्थानान्तर को जाती और (तमः) अन्धकार को (व्यावः) अपने प्रकाश में ढांप लेती हैं वैसे उत्तम स्त्री अपने पति को प्रसन्न करे ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सूर्य्य की केवल ज्योति है वह दिन कहाता और जो तिरछी हुई भूमि पर पड़ती है वह (उषा) प्रातःकाल की वेला कहाती है अर्थात् प्रातःसमय अति मन्द सूर्य्य की उजेली तिरछी चाल से जहाँ-तहाँ लोक-लोकान्तरों पर पड़ती है उसके विना संसार का पालन नहीं हो सकता, इससे इस विद्या की भावना मनुष्यों को अवश्य होनी चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
भुवन को प्रकाशित करनेवाली 'उषा'
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (नतः) = नापित बालों को काटता है, उसी प्रकार [नॄन् तूर्वति केशेन रिक्ती करोति] (पेशांसि) = जगत् में आश्लिष्ट कृष्णवर्ण के अन्धकारों को (अधिवपते) = आधिक्येन काट डालती है अथवा (नृतूः इव) = जैसे एक नर्तकी (पेशांसि) = दर्शनीय रूपों को [पेशस् = रूपम्] धारण करती है, उसी प्रकार उषा (पेशांसि) = दीप्तियों को (अधिवपते) = आधिक्येन धारण करती है । २. इस प्रकार अन्धकार को किरणों के द्वारा दूर करके (वक्षः) = अपने (उरः) = प्रदेश को (अपोर्णुते ) = अन्धकार से अनाच्छादित करती है । रात्रि के समय अपने पर पड़े हुए अन्धकार - वस्त्र को उतार फेंकती है । इस प्रकार उषा मानो अपने दीप्त वक्षस् को उसी प्रकार प्रकट करती है (इव) = जैसे (उस्रा) = दूध दोहन के समय गौ (बर्जहम्) = दूध के उत्पत्तिस्थान को प्रकट करती है । ३. (विश्वस्मै भुवनस्य) = सम्पूर्ण भुवन के लिए (ज्योतिः कृण्वती) = प्रकाश करती हुई यह (उषाः) = उषा (तमः) = अन्धकार को (व्यावः) = अपश्लिष्ट व दूर कर देती है । सब भुवनों में इसकी (गावः) = किरणे इस प्रकार व्याप्त हो जाती हैं (न) = जैसे (गावः) = गौएँ (व्रजम्) = अपने बाड़े को व्याप्त कर लेती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = उषा अपने प्रकाश से सम्पूर्ण भुवन को व्याप्त कर देती है । मेरा हृदय भी प्रकाशमय हो ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, उसके दृष्टान्त से उत्तम गृह-पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( नृतूः इव ) नाऊ जिस प्रकार नाना केशों को काट देता है उसी प्रकार ( उषा पेशांसि अधिवपते ) उषा नाना कृष्ण रूप अन्धकारों को काट डालती हैं । अथवा—(नृतूः इव) नर्त्तक जिस प्रकार नाना रूप बदल लेता है उसी प्रकार ( उषाः ) वह प्रभात बेला भी ( पेशांसि ) नाना प्रकार के रूपों को (अधि वपते) धारण करती हैं। अर्थात् हलकी प्रकाश रेखा से सूर्योदय तक उषा के नाना प्रकार के रूप बदलते हैं। उसी प्रकार नर्त्तकी के समान ही ( उषाः ) पूर्व वयस में वर्त्तमान कन्या, या योग्य पुरुष की कामना करने वाली, कान्तिमयी नववधू भी ( पेशांसि ) सुवर्ण आदि के बने नाना आभूषणों को (अधि वपते ) धारण करे । ( उस्रा वर्जहम् इव ) उदय होने वाली उषा जिस प्रकार अन्धकार निवारक प्रकाश के विनाशक घोर अन्धकार को ( अप ऊर्णुते ) दूर कर देती है और जिस प्रकार ( उस्त्रा ) गाय ( वर्जहम् ) दूग्ध देने वाले थन भाग को ( अप ऊर्णुते ) विशाल रूप में प्रकट करती है उसी प्रकार नवयुवती भी ( वक्षः ) वक्षःस्थल को (अपऊर्णुते ) प्रकट करती है अर्थात् छाती के उभार को प्रकट करती है उसके प्रकट होने पर ही उचित विवाह योग्य काल है । उस समय ( विश्वस्मै भुवनाय ) सब लोकों के हितार्थ ( ज्योतिः कृण्वती ) प्रकाश प्रदान करती हुई उषा के समान वधू भी अपने गुणों का प्रकाश करे। ( गावः न व्रजं ) गौवें जिस प्रकार स्वयं अपने बाड़े में अनायास प्राप्त हो जाती हैं उसी प्रकार नवयुवतियें भी ( व्रजं ) प्राप्त करने योग्य पति को अपने सहज प्रेम से आश्रय रूप में प्राप्त करें । और ( उषाः ) प्रभात की प्रभाएं जिस प्रकार ( तमः वि आवः ) अन्धकार को दूर कर देती हैं उसी प्रकार वधू भी ( तमः ) खेद, दुःख और गृह के सूने पन को ( वि आवः ) विविध उपायों से दूर कर घर को उजियाला करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी सूर्याची ज्योती दिसते तो दिवस व जी तिरकी भूमीवर पडते ती (उषा) प्रातःकाळची वेळ म्हणविली जाते. प्रातःकाळी अति मंद सूर्याच्या उज्ज्वल तिरक्या चालीने लोकलोकांतरी पसरते. तिच्याशिवाय जगाचे पालन होऊ शकत नाही. यासाठी या विद्येची जाण माणसांना अवश्य असली पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a dancer puts on various costumes and characters and just as a cow waxes its udders full of milk for the calf, so does the dawn assume many forms and bares her bosom of light to illuminate the whole world with lights as the flames dispel the darkness from all places reaching there as cows reach their stalls.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Usha is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Usha (Dawn) cuts off the accumulated gloom and manifests new forms like a dancer; she bares her bosom (so to speak) as a cow yields her Udder to the milker. As cattle hasten to their pastures, she spreads to the east and shedding light upon the world, dissipates the darkness. In the same manner, a chaste wife should please her husband.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पेशांसि ) रूपाणि = Forms. (नृतः इव) यथानर्तक: रूपाणि धरति तथा । नृतिशृध्यो: कू: (उणा० १.६१ ) अनेन नृतिधाती: कू: प्रत्ययः ।। = Like a dancing adopting many forms. (उस्था इव ) यथा गौस्तथा = Like a cow,
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. The direct light of the sun is called day and his curved light touching the earth is called Ushas or dawn. Without this also the world cannot be sustained well. Therefore the knowledge of the science of light should be acquired by learned persons.
Translator's Notes
पेश इतिरूपनाम (निघ० ३.७) उस्म्रा इति गोनाम (निघ० २.११)
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