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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उष॒स्तम॑श्यां य॒शसं॑ सु॒वीरं॑ दा॒सप्र॑वर्गं र॒यिमश्व॑बुध्यम्। सु॒दंस॑सा॒ श्रव॑सा॒ या वि॒भासि॒ वाज॑प्रसूता सुभगे बृ॒हन्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उषः॒ । तम् । अ॒श्याम् । य॒शस॑म् । सु॒ऽवीर॑म् । दा॒सऽप्र॑वर्गम् । र॒यिम् । अश्व॑ऽबुध्यम् । सु॒ऽदंस॑सा । श्रव॑सा । या । वि॒ऽभासि॑ । वाज॑ऽप्रसूता । सु॒ऽभ॒गे॒ । बृ॒हन्त॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषस्तमश्यां यशसं सुवीरं दासप्रवर्गं रयिमश्वबुध्यम्। सुदंससा श्रवसा या विभासि वाजप्रसूता सुभगे बृहन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषः। तम्। अश्याम्। यशसम्। सुऽवीरम्। दासऽप्रवर्गम्। रयिम्। अश्वऽबुध्यम्। सुऽदंससा। श्रवसा। या। विऽभासि। वाजऽप्रसूता। सुऽभगे। बृहन्तम् ॥ १.९२.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तया किं प्राप्यते सा किं करोतीत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    या वाजप्रसूता सुभगा उषरुषा अस्ति सा यं सुदंससा श्रवसा सह वर्त्तमानमश्वबुध्यं दासप्रवर्गं सुवीरं बृहन्तं यशसं रयिं विभासि विविधतया प्रकाशयति तमहमश्यां प्राप्नुयाम् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (उषः) उषाः (तम्) (अश्याम्) प्राप्नुयाम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं बहुलं छन्दसीति विकरणस्य लुक्। (यशसम्) अतिकीर्त्तियुक्तम्। (सुवीरम्) शोभनाः सुशिक्षिता वीरा यस्मात्तम् (दासप्रवर्गम्) दासानां सेवकानां प्रवर्गाः समूहा यस्मिँस्तम् (रयिम्) विद्याराज्यश्रियम् (अश्वबुध्यम्) अश्वा बुध्यन्ते सुशिक्षन्ते येन तम् (सुदंससा) शोभनानि दंसांसि कर्माणि यस्मिन् (श्रवसा) पृथिव्याद्यन्नेन सह (या) (विभासि) विविधान् दीपयति (वाजप्रसूता) वाजेन सूर्यस्य गमनेन प्रसूतोत्पन्ना (सुभगे) शोभना भगा ऐश्वर्ययोगा यस्याः सा (बृहन्तम्) सर्वदा वृद्धियोगेन महत्तमम् ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    य उषर्विद्यया प्रयतन्ते त एवैतत्सर्वं वस्तु प्राप्य संपन्ना भूत्वा सदानन्दन्ति नेतरे ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उससे क्या मिलता है और वह क्या करती है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (वाजप्रसूता) सूर्य की गति से उत्पन्न हुई (सुभगा) जिसके साथ अच्छे-अच्छे ऐश्वर्य के पदार्थ संयुक्त होते हैं, वह (उषः) प्रातःसमय की वेला है, वह जिस (सुदंससा) अच्छे कर्मवाले (श्रवसा) पृथिवी आदि अन्न के साथ वर्त्तमान वा (अश्वबुध्यम्) जिस सहायता से घोड़े सिखाये जाते (दासप्रवर्गम्) जिससे सेवक अर्थात् दासी काम करनेवाले रह सकते हैं (सुवीरम्) जिससे अच्छे सीखे हुए वीरजन हों, उस (बृहन्तम्) सर्वदा अत्यन्त बढ़ते हुए और (यशसम्) सब प्रकार प्रशंसायुक्त (रयिम्) विद्या और राज्य धन को (विभासि) अच्छे प्रकार प्रकाशित करती है, (तम्) उसको मैं (अश्याम्) पाऊँ ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    जो लोग प्रातःकाल की वेला के गुण-अवगुणों को जतानेवाली विद्या से अच्छे-अच्छे यत्न करते हैं, वे यह सब वस्तु पाकर सुख से परिपूर्ण होते हैं किन्तु और नहीं ॥ ८ ॥

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    विषय

    सुभगा उषा

    पदार्थ

    १. हे (उषः) = उषो देवते ! मैं (ते रयिम्) = उस धन को (अश्याम्) = प्राप्त करूं जो (यशसम्) = यश का कारण है, मुझे यशस्वी बनाने का साधन बनता है, (सुवीरम्) = उत्तम वीरतावाला है, व उत्तम सन्तानोंवाला है । धन के कारण मैं निर्बल न बन जाऊँ, मेरी सन्तानें भी विकृत मार्ग का अवलम्बन करनेवाली न हो जाएँ, (दासप्रवर्गम्) = नाशक तत्वों [दसु उपक्षये] का प्रकर्षेण वर्जन करनेवाली हो, धन प्राप्त करके मैं विनाश के कार्यों में प्रवृत्त न हो जाऊँ, (अश्वबुध्यम्) = यह धन इन्द्रियरूप मूलवाला हो, इसके कारण इन्द्रियों की शक्ति बढ़ी रहे । हे (वाजप्रसूता) = हमारे लिए उत्तम अन्नों को देनेवाली (या) = जो तू (सुदंससा) = उत्तम यज्ञादि कर्मों से तथा (श्रवसा) = प्रकाश से (विभासि) = चमकती है वह (सुभगे) = उत्तम भगों - ऐश्वर्योंवाली उषा ! तू (बृहन्तम्) = वृद्धि के कारणभूत धनों को हमें प्राप्त करा । हम उत्तम अन्नों का सेवन करते हुए उत्तम यज्ञादि कर्मों व ज्ञानप्राप्ति में संलग्न हों, ताकि वृद्धि के कारणभूत उत्तम धनों को प्राप्त करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हमारा उषः काल उत्तम कर्मों व स्वाध्याय में बीते, ताकि हम उत्तम धनों को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, उसके दृष्टान्त से उत्तम गृह-पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार उषा ( वाजप्रसूता ) सूर्य के गमनागमन से उत्पन्न होती है वह स्वयं ज्ञान को उत्पन्न करने वाली है और ( सुदंससा ) उत्तम रीति से अन्धकार नाशक प्रकाश से चमकती है उसी प्रकार ( या ) जो तू ( वाजप्रसूता ) ऐश्वर्यों को उत्पन्न करने वाली ( सुदंससा ) उत्तम कर्म और (अवसा) उत्तम ज्ञान से ( विभासि ) शोभित है, उस तेरे द्वारा हे ( उषः ) प्रभात वेला की सूर्य प्रभा के समान कान्तिमति ! एवं योग्य अनुरूप पति की कामना करने हारी स्त्रि ! हे ( सुभगे ) उत्तम ऐश्वर्यवति सौभाग्यवति ! मैं पुरुष ( तम् ) उस ( यशसम् ) यशोजनक ( सुवीरम् ) उत्तम वीर पुरुषों से युक्त, ( दासप्रवर्गम् ) दास, भृत्यजनों के उत्तम आज्ञाकारी वर्गों वाले, अथवा शत्रु नाशक वीर सैनिकों के उत्तम दलों सहित (अश्वबुध्यम्) अश्वारोही सेनाओं को सधाने वाले या उसके आश्रय पर स्थापित ( बृहन्तम् ) बड़े भारी ( रयिम् ) ऐश्वर्य, धन, कोश को ( अश्याम् ) प्राप्त करूं और भोग करूं । अध्यात्म में—यशस् = आत्मा, वीर, प्राण, अश्वबुध्य = व्यापक परमात्मा से बोध करने हारा, श्रवः = ज्ञान, वात, ज्ञान ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक प्रातःकाळच्या वेळेचे गुण-अवगुण सांगणाऱ्या विद्येद्वारे चांगले प्रयत्न करतात. त्यांना सर्व वस्तू प्राप्त होऊन ते सुखाने परिपूर्ण होतात, इतर होऊ शकत नाहीत. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Dawn, daughter of sunlight, divine and charming, who shine with the morning splendour of action and glory of fame and generosity, I pray, with your inspiration and initiation, may I be blessed with that great growing and highest wealth of life which is full of honour, maintained by brave heroes and multitude of manpower, and characterized by speed, advancement and achievement.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does Usha do and what is secured by her is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May I obtain the ample and ever growing wealth which is endowed with good actions of knowledge and kingdom, reputation, band of attendants or workers, used for training brave warriors and horses and good nourishing food, which is illuminated by the Ushas (dawn) born by the movement of the sun, cause of prosperity when properly utilised and charming.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाजप्रसूता) वाजेनसूर्यस्य गमनेन प्रसूता | = Born from the movement of the sun. (श्रवसा) अन्नेन = With food.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who try to acquire proper knowledge of the dawn, obtain all the above mentioned things, become prosperous and ever enjoy bliss and not others.

    Translator's Notes

    The word वाज is derived from वज गतौ गतेस्त्रयोऽर्था:ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । अत्र गमनार्थग्रहणं कृतम् । श्रव इत्यन्ननाम निघ० २.७)

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