Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 92 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 18
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    एह दे॒वा म॑यो॒भुवा॑ द॒स्रा हिर॑ण्यवर्तनी। उ॒ष॒र्बुधो॑ वहन्तु॒ सोम॑पीतये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒ह । दे॒वा । म॒यः॒ऽभुवा॑ । द॒स्रा । हिर॑ण्यवर्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्तनी । उ॒षः॒ऽबुधः॑ । व॒ह॒न्तु॒ । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एह देवा मयोभुवा दस्रा हिरण्यवर्तनी। उषर्बुधो वहन्तु सोमपीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। इह। देवा। मयःऽभुवा। दस्रा। हिरण्यवर्तनी इति हिरण्यऽवर्तनी। उषःऽबुधः। वहन्तु। सोमऽपीतये ॥ १.९२.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या भवन्तो यौ देवा मयोभुवा हिरण्यवर्त्तनी दस्राश्विनावुषर्बुधो जनयतस्ताभ्यां सोमपीतये सर्वान् सामर्थ्यमिहावहन्तु ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (इह) अस्मिन् संसारे (देवा) दिव्यगुणौ (मयोभुवा) सुखं भावयितारौ (दस्रा) विद्योपयोगं प्राप्नुवन्तावशेषदुःखोपक्षयितारौ वाय्वग्नी (हिरण्यवर्त्तनी) हिरण्यं प्रकाशं वर्त्तयन्तौ (उषर्बुधः) य उषःकालं बोधयन्ति तान् किरणान् (वहन्तु) प्रापयन्तु (सोमपीतये) पुष्टिशान्त्यादिगुणयुक्तानां पदार्थानां पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्जातेष्वपि दिवसेष्वग्निवायुभ्यां विना पदार्थभोगाः प्राप्तुं न शक्यास्तस्मादेतन्नित्यमनुष्ठेयमिति ॥ १८ ॥अत्रोषोऽश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति द्वानवतितमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे अग्नि और पवन कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग जो (देवा) दिव्यगुणयुक्त (मयोभुवा) सुख की भावना करानेहारे (हिरण्यवर्त्तनी) प्रकाश के वर्त्ताव को रखते और (दस्रा) विद्या के उपयोग को प्राप्त हुए समस्त दुःख का विनाश करनेवाले अग्नि, पवन (उषर्बुधः) प्रातःकाल की वेला को जतानेहारी सूर्य्य की किरणों को प्रकट करते हैं, उनसे (सोमपीतये) जिस व्यवहार में पुष्टि, शान्त्यादि तथा गुणवाले पदार्थों का पान किया जाता है, उसके लिये सब मनुष्यों को सामर्थ्य (इह) इस संसार में (आवहन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त करावें ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि उत्पन्न हुए दिनों में भी अग्नि और पवन के विना पदार्थ भोगना नहीं हो सकता, इससे अग्नि और पवन से उपयोग लेने का पुरुषार्थ नित्य करें ॥ १८ ॥इस सूक्त में उषा और अश्वि पदार्थों के गुणों के वर्णन से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ इस सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह ९२ बानवाँ सूक्त और २७ सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ‘मयोभुवा, दस्त्रा, हिरण्यवर्तनी’

    पदार्थ

    १. (उषर्बुधः) = प्रातः प्रबुद्ध होनेवाले लोग (इह) = इस अपने जीवन में (सोमपीतये) = सोम का पान करने के लिए, शरीर में रेतः शक्ति की ऊर्ध्वगति के लिए (देवा) = कामादि शत्रुओं को जीतने की कामनावाले (मयोभुवा) = काम - क्रोधादि के विजय के द्वारा आरोग्यरूप सुख को देनेवाले, (दत्रा) = सब दुःखों व मलों का उपक्षय करनेवाले (हिरण्यवर्तनी) = ज्योतिर्मय मार्गवाले अश्विनीदेवों को - प्राणापान को (आवहन्तु) = प्राप्त कराएँ । २. मनुष्य को चाहिए कि वह प्रातः प्रबुद्ध होनेवाला बनें । प्रातः जागकर प्राणसाधना के लिए तैयारी करे । ये प्राण सिद्ध होकर उसके शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति में सहायक होंगे । शक्ति की ऊर्ध्वगति का परिणाम शरीर में 'रोगकृमियों का नाश होकर आरोग्य - प्राप्ति' होगा, मन में से 'मलिनताओं का नाश' होगा, तथा मस्तिष्क के दृष्टिकोण से 'ज्योति का वर्धन' होगा । ये प्राणापान इसीलिए 'मयोभुवा, दस्रा व हिरण्यवर्तनी' कहे गये हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम प्रातः प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना के लिए तैयार हों । यह प्राणसाधना हमें "आरोग्य, नैर्मल्य व ज्योति" प्रदान करेगी ।

    विशेष / सूचना

    विशेष = सूक्त का आरम्भ इन्हीं शब्दों से होता है कि हम उषा से प्रकाश की प्रेरणा लें [१] । उषा का प्रकाश उत्तरोत्तर बढ़ता चलता है, हमारा भी ज्ञान का प्रकाश इसी प्रकार बढ़ता चले [२] । उषा की 'प्रकाश व उल्लास' की प्रेरणा सब दुःखों का निग्रह करनेवाली है [३] । उषा सम्पूर्ण भुवन को प्रकाशमय करती है [४] । यह अपने प्रकाश से द्युलोक को शोभित करती है [५] । अन्धकार को निगलकर यह हमारे चित्तों को प्रसन्न कर देती है [६] । यह सूनृतों की नेत्री है [७], सुभगा है [८] । यह सबको कार्यों में व्याप्त होने के लिए जगाती है [९] । इसके आने - जाने से हमारे आयुष्य का एक - एक दिन समाप्त हो रहा है [१०] । इसके आवागमन से दिन बदल जाते हैं [११] । यह उषा हमारे दैव्य व्रतों को हिंसित नहीं होने देती [१२] । यह हमारे यज्ञादि उत्तम कर्मों का समय बना रहे [१३] । हम इसमें जागकर 'ज्ञान, कर्म, प्रकाश व प्रियवाणी' - रूप धन को प्राप्त करें [१४] । यह हमारे लिए सौभाग्यों को लानेवाली हो [१५] । हमारा शरीररूप गृह 'गोमत् व हिरण्यवत्' बने [१६] । हम श्लोक, ज्योति व ऊर्ज को प्राप्त करें [१७] । प्राणापान हमारे लिए 'आरोग्य, नैर्मल्य व प्रकाश' लाएँ [१८] । ये प्राणापान ही अग्नि व सोम हैं । प्राणापानवग्नीषोमौ - ऐ० १/८ । ये ही सूर्य व चन्द्र हैं - "सूर्य एव आग्नेयः, चन्द्रमाः सोमः" - शत० १/६/३/२४ । इसीलिए अश्विनीदेवों को सूर्य - चन्द्र भी कहा गया है "तत्कावश्विनौ? द्यावापृथिव्यावित्येक, सूर्याचन्द्रमसावित्येके' - यास्क । योग में नासिका का दाहिना स्वर 'सूर्यस्वर' है और बायाँ 'चन्द्रस्वर' । इस प्रकार अग्नि व सोम प्राणापान ही हैं । अगले सूक्त में उनसे प्रार्थना करते हैं -

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रिय वर वधू के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सुखप्रद सूर्य और पवन ( सोमपीतये ) प्रकाश और पदार्थों के उपभोग प्रदान करने के लिये ( उषः-बुधः ) प्रातः वेला को प्रकट करने वाले किरणों को हमें प्राप्त कराते हैं उसी प्रकार ( देवाः ) दान आदि उत्तम गुणों वाले, ( मयोभुवा ) सुखों के मूल उत्पादक ( दस्रा ) बाधक कारणों के नाश करने वाले ( हिरण्यवर्तनी ) हित और प्रिय व्यवहार मार्ग में चलने वाले होकर ( सोमपीतये ) उत्तम पदार्थों के ऐश्वर्य को प्राप्त कराने के लिये ( उषर्बुधः ) प्रातःकाल की वेला में चेतन या आगृत होने वाले विद्वानों को ( आ वहन्तु ) प्राप्त करावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्नी व वायूशिवाय पदार्थांचा भोग घेता येऊ शकत नाही. त्यामुळे अग्नी व वायूचा उपयोग करून घेण्याचा पुरुषार्थ माणसांनी सदैव करावा. ॥ १८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the Ashvins, people of divine nature, scientists and technologists, generous experts of fire and water, water and air, creators of comfort and joy, working on the golden sunbeams of the morning dawn, create and bring us energy and vitality for the health, vitality and joy of humanity.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are Ashvins is taught further in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, may Ashvins ( air and fire in the form of Electricity) who are divine, destroyers of all miseries when properly utilised, causing light, bring us the rays of the sun at dawn for a dealing in which the juice-giving nourishment and peace etc. is taken.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दस्रा) विद्योपयोगं प्राप्नुवन्तौ अशेषदुःखोपक्षयितारौ वाय्वग्नी || = Air and fire (electricity) which are destroyers of miseries when properly known and utilised. (सोमपीतये) पुष्टिशान्त्यादिगुरग्णयुक्तानां पदार्थानां दानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै || = For a dealing in which there is the use or drinking of substances giving strength and peace.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men can not enjoy the happiness of various substances without fire (or electricity) and air. Therefore they should know and utilise them methodically.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of Usha and Ashvina like that hymn. Here ends the commentary on the ninety-second hymn of the Rigveda.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top