ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - सोमः
छन्दः - निचृदार्षीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒त व्र॒तानि॑ सोम ते॒ प्राहं मि॑नामि पा॒क्या॑ । अधा॑ पि॒तेव॑ सू॒नवे॒ वि वो॒ मदे॑ मृ॒ळा नो॑ अ॒भि चि॑द्व॒धाद्विव॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । व्र॒तानि॑ । सो॒म॒ । ते॒ । प्र । अ॒हम् । मि॒ना॒मि॒ । पा॒क्या॑ । अध॑ । पि॒ताऽइ॑व । सू॒नवे॑ । वि । वः॒ । मदे॑ । मृ॒ळ । नः॒ । अ॒भि । चि॒त् । व॒धात् । विव॑क्षसे ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत व्रतानि सोम ते प्राहं मिनामि पाक्या । अधा पितेव सूनवे वि वो मदे मृळा नो अभि चिद्वधाद्विवक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठउत । व्रतानि । सोम । ते । प्र । अहम् । मिनामि । पाक्या । अध । पिताऽइव । सूनवे । वि । वः । मदे । मृळ । नः । अभि । चित् । वधात् । विवक्षसे ॥ १०.२५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (उत) अवश्य (ते व्रतानि) तेरे नियमों-आदेशों को (अहम्) मैं उपासक (पाक्या प्र-मिनामि) विपक्व प्रज्ञा से प्रकृष्टरूप में प्राप्त होता हूँ पालन करता हूँ (अध) पुनः (सूनवे पिता-इव) तू पुत्र के लिये पिता की भाँति वर्तता है (नः मृळ) हमें सुखी कर (अभि चित्-वधात्) कदाचिद् होनेवाले घातक प्रहार से भी रक्षा कर (वः-मदे वि) तेरे हर्षप्रद शरण में विशेषरूप से हम रहें। (विवक्षसे) तू महान् है ॥३॥
भावार्थ
विशेष परिपक्व बुद्धि से परमात्मा के आदेशों को पालन करना चाहिये। वह पुत्र को पिता के समान होनेवाले घातक प्रहार से बचाता है ॥३॥
विषय
परमात्म-प्रेप्सा [प्राप्ति की कामना]
पदार्थ
[१] हे (सोम) = शान्त प्रभो ! (अहम्) = मैं गत मन्त्र के अनुसार धन- सम्बन्धी कामनाओं से तो ऊपर उठता ही हूँ, (उत) और (ते व्रतानि) = आपके व्रतों को, आपकी प्राप्ति के साधनभूत व्रतों को (पाक्या) = परिपक्व बुद्धि से (प्रमिनामि) = [प्रकर्षेण करोमीत्यर्थ: सा० ] = खूब ही सम्पादित करता हूँ मैं आपका ज्ञान भक्त बनता हूँ । बुद्धि की परिपक्वता से सृष्टि के एक-एक पदार्थ में आपकी महिमा को देखता हूँ, और प्रत्येक पदार्थ को आपका स्तवन करता हुआ अनुभव करता हूँ। [२] (अधा) = अब तो (इव पिता सुनवे) = जैसे पिता पुत्र के लिये उसी प्रकार (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में, (नः) = हमें (अभि चित्) = दोनों ओर ही, अर्थात् अन्दर और बाहर (वधात्) = वध से, अर्थात् आन्तर व बाह्य शत्रुओं के विनाश से (मृडा) = सुखी कीजिए। आपकी शक्ति से ही शत्रुओं का नाश होता है, विशेषतः इन कामादि अन्तः शत्रुओं का नाश मेरी ही शक्ति से नहीं होनेवाला । इन्हें तो आप ही मेरे लिये विजय करेंगे। जिससे (विवक्षसे) = मैं विशिष्ट उन्नति के लिये समर्थ हो सकूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिए साधनभूत व्रतों का आचरण करता हुआ मैं प्रभु को प्राप्त करूँ, प्रभु मेरे शत्रुओं का संहार कर मेरी उन्नति के साधक बनें।
विषय
महान् प्रभु से सुख-समृद्धि की प्रार्थनाएं।
भावार्थ
(उत) और हे (सोम) सर्वोत्पादक ! सर्वशासक ! (अहं पाक्या) मैं परिपक्व बुद्धि से (ते व्रतानि प्र मिनामि) तेरे समस्त कर्मों और व्यवस्थाओं को प्राप्त करूं, उनको यथावत् जानूं। और तू (वधात् अभि चित्) विनाश से बचा कर (सूनवे पिता इव नः मृड) पुत्र को पिता के समान हमें सुखी कर। हे मनुष्यो ! वह (विवक्षसे वः वि मदे) महान् प्रभु आप लोगों को विशेष और विविध सुख और आनन्द देवे।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ६, १०, ११ आस्तारपंक्तिः। ३–५ आर्षी निचृत् पंक्तिः। ७–९ आर्षी विराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (उत) अपि-अवश्यम् (ते व्रतानि) तव नियमान्-आदेशान् (अहम्) अहमुपासकः खलु (पाक्या प्र-मिनामि) विपक्वप्रज्ञया प्रगच्छामि-प्रकृष्टं पालयामि “मिनाति, गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (अध) अनन्तरम् (सूनवे पिता-इव) त्वं च पुत्राय पिता-इव यथा भवति तथा (नः-मृळ) अस्मान् सुखय (अभिचित्-वधात्) कदाचिद् वधादपि सुखय रक्षेत्यर्थः (वः-मदे वि) तव हर्षप्रदशरणे विशिष्टतया वयं भवेम (विवक्षसे) त्वं महानसि ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And O Soma, with a mature mind and intelligence, I follow the rules of your discipline. Then O Soma, as father for the child, pray bless us to partake of your divine joy, be kind and save us from death and deprivation all round. O lord, you are great for the good of all.
मराठी (1)
भावार्थ
विशेष परिपक्व बुद्धीने परमात्म्याच्या आदेशाचे पालन केले पाहिजे. पुत्राला पिता जसा वाचवितो तसा तो घातक प्रहारापासून वाचवितो. ॥३॥
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