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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - सोमः छन्दः - निचृदार्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    समु॒ प्र य॑न्ति धी॒तय॒: सर्गा॑सोऽव॒ताँ इ॑व । क्रतुं॑ नः सोम जी॒वसे॒ वि वो॒ मदे॑ धा॒रया॑ चम॒साँ इ॑व॒ विव॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ऊँ॒ इति॑ । प्र । य॒न्ति॒ । धी॒तयः॑ । सर्गा॑सः । अ॒व॒तान्ऽइ॑व । क्रतु॑म् । नः॒ । सो॒म॒ । जी॒वसे॑ । वि । वः॒ । मदे॑ । धा॒रय॑ । च॒म॒सान्ऽइ॑व । विव॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समु प्र यन्ति धीतय: सर्गासोऽवताँ इव । क्रतुं नः सोम जीवसे वि वो मदे धारया चमसाँ इव विवक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । ऊँ इति । प्र । यन्ति । धीतयः । सर्गासः । अवतान्ऽइव । क्रतुम् । नः । सोम । जीवसे । वि । वः । मदे । धारय । चमसान्ऽइव । विवक्षसे ॥ १०.२५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (क्रतुम्) तुझ कार्यसाधक को (धीतयः) प्रज्ञाएँ तथा कर्म-प्रवृत्तियाँ (उ) निरन्तरम् (सं प्र यन्ति) सम्यक् प्राप्त होती हैं (सर्गासः-अवतान्-इव) उदक-प्रवाह जैसे निम्न प्रदेशों को प्राप्त होते हैं (नः जीवसे) हमारे जीवन के लिये (चमसान्-इव धारय) अपने आनन्द रस के पात्रभूत हम उपासकों को धारण कर, स्वीकार कर (वः मदे वि) तेरे हर्षनिमित्त शरण में हम विशेषरूप से रहें, (विवक्षसे) तू महान् है ॥४॥

    भावार्थ

    उपासकों की प्रज्ञाएँ और कर्मप्रवृत्तियाँ परमात्मा की ओर ऐसे झुकी रहती हैं, जैसे जलप्रवाह निम्न स्थान की ओर झुके रहते हैं। वह हमारे जीवन के लिये हमें अपने आनन्दरसों का पात्र बनाता है। हमें उसकी शरण में रहना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    परमात्म प्राप्ति व क्रतु-धारण

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = शान्त प्रभो ! अब तो मेरी (धीतयः) = ध्यान वृत्तियाँ व स्तुतियाँ (उ) = निश्चय से (सं प्रयन्ति) = आपकी ओर ही आती हैं, उस प्रकार स्वभाविक रूप से तथा प्रबलता से आती हैं (इव) = जिस प्रकार (सर्गासः) = खूटों से खोली गई गौवें [विसृज्यन्ते उदक पानार्थम् सा० ] (अवतान्) = कूओं की ओर आती हैं। प्यास की प्रबलता के कारण उन्हें कूएँ की ओर जाने के सिवाय कुछ रुचता ही नहीं इसी प्रकार मेरी ध्यानवृत्तियाँ भी अब आपकी ओर ही लगी हैं, वे इधर-उधर नहीं जाती । [२] (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त तथा जीवसे उत्कृष्ट जीवन के लिए (नः) = हमारे में (क्रतुं धारया) = क्रतु का धारण कीजिए हमारे मस्तिष्क में प्रज्ञा का स्थापन हो [क्रतु- प्रज्ञा], हृदय में संकल्प हो [ क्रतु-संकल्प] तथा हमारे हाथ यज्ञादि उत्तम कर्मों में व्यापृत हों [क्रतु-यज्ञ] । हमारे में क्रतु का धारण इस प्रकार कीजिए (इव) = जिस प्रकार कि अन्तरिक्ष में (चमसान्) = [चमस= मेघ नि० १ । १०] आप मेघों की स्थापना करते हैं । बाह्य अन्तरिक्ष में जो मेघ का स्थान है, मेरे हृदयान्तरिक्ष में वही क्रतु का स्थान हो । मेघ अन्न को उत्पन्न करता है, सन्ताप को दूर करता है। इसी प्रकार मेरा संकल्प भी यज्ञादि को उत्पन्न करे तथा लोक-सन्ताप को हरनेवाला हो । [३] यह सब आप विवक्षसे मेरी विशिष्ट उन्नति के लिये करिये ही । उन्नति का यही मार्ग है । 'क्रतु' ही उन्नति का साधक है, सो आप इसे मेरे में स्थापित करिये। क्रतु शून्य हृदय तो वेग से शून्य घोड़े व दूध से रहित गौ के समान ही तो है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मेरी ध्यान-वृत्तियाँ प्रभु-प्रवण हों । प्रभु कृपा से मेरा हृदय क्रतु सम्पन्न हो ।

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    विषय

    सर्वशरण्य प्रभु।

    भावार्थ

    (सर्गासः अवतान् इव) जल जिस प्रकार स्वभावतः कूप के समान नीचे भागों की ओर चले जाते हैं और (सर्गासः अवतान् इव) जिस प्रकार जलार्थी लोगों की रस्सियां कूपों की ओर जाती हैं और (सर्गासः अवतान् इव) जिस प्रकार जन्तुगण रक्षकों को लक्ष्य करके शरणार्थ जाते हैं उसी प्रकार हे (सोम) सर्वशक्तिमन् ! सर्वोत्पादक प्रभो ! (नः धीतयः) हमारी समस्त स्तुतियें (क्रतुं सं यन्ति उ प्र यन्ति) जगत् के विधाता तुझ को एक साथ प्राप्त होती और तुझ तक पहुंचती हैं। तू (नः) हमें (चमसान् इव जीवसे) प्राण और दीर्घ-जीवन देने के लिये अन्न से पूर्ण पात्रों के समान नाना भोग्य लोक, और पदार्थ (धारय) प्रदान कर। हे मनुष्यो ! (विवक्षसे वः विमदे) वह महान् प्रभु आप सब को विविध सुख और आनन्द प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ६, १०, ११ आस्तारपंक्तिः। ३–५ आर्षी निचृत् पंक्तिः। ७–९ आर्षी विराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (क्रतुम्) त्वां कार्यसाधकं (धीतयः) प्रज्ञाः कर्मप्रवृत्तयश्च “धीतिः प्रज्ञा” [निरुक्त १०।४४]  “धीतिभिः कर्मभिः” [निरु० ११।१६] (उ) निरन्तरम् (सम्प्रयन्ति) सम्यक् प्रगतिं कुर्वन्ति (सर्गासः-अवतान्-इव) उदकप्रवाहा यथा निम्नप्रदेशान् “सर्गाः उदकनाम” [निघं० १।१२] “अवतः कूपनाम” [निघं० ३।२३] (नः-जीवसे) अस्माकं जीवनाय (चमसान्-इव धारय) त्वमस्मान् चमसान् त्वदानन्दरसस्य पात्रभूतान् धारय-स्वीकुरु (वः मदे वि) तव हर्षनिमित्ते शरणे वयं विशिष्टतया स्याम (विवक्षसे) त्वं महानसि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as showers of rain and streams of water flow down and rush to the sea, so all our thoughts, prayers, acts and adorations move and reach you, ultimate destination of holy works. Pray accept us and our adorations like ladlefuls of yajnic homage into the joy of your divine presence. O lord you are great for the joy of all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासकांची प्रज्ञा व कर्मप्रवृत्ती परमेश्वराकडे अशी वळलेली असते जसा जलप्रवाह खालच्या स्थानाकडे वाहतो. परमात्मा आमच्या जीवनाला आपल्या आनंदरसाचे पात्र बनवितो. त्यासाठी आम्ही त्याला शरण जावे. ॥४॥

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