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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - सोमः छन्दः - निचृदार्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    तव॒ त्ये सो॑म॒ शक्ति॑भि॒र्निका॑मासो॒ व्यृ॑ण्विरे । गृत्स॑स्य॒ धीरा॑स्त॒वसो॒ वि वो॒ मदे॑ व्र॒जं गोम॑न्तम॒श्विनं॒ विव॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । त्ये । सो॒म॒ । शक्ति॑ऽभिः । निऽका॑मासः॑ । वि । ऋ॒ण्वि॒रे॒ । गृत्स॑स्य । धीराः॑ । त॒वसः॑ । वि । वः॒ । मदे॑ । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । अ॒श्विन॑म् । विव॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव त्ये सोम शक्तिभिर्निकामासो व्यृण्विरे । गृत्सस्य धीरास्तवसो वि वो मदे व्रजं गोमन्तमश्विनं विवक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव । त्ये । सोम । शक्तिऽभिः । निऽकामासः । वि । ऋण्विरे । गृत्सस्य । धीराः । तवसः । वि । वः । मदे । व्रजम् । गोऽमन्तम् । अश्विनम् । विवक्षसे ॥ १०.२५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (गृत्सस्य तपसः-तव) श्रोताओं द्वारा वाञ्छित तुझ बलवान् के (त्ये निकामासः-धीराः) वे नियम से या नित्य तुझे चाहनेवाले ध्यानी उपासक (शक्तिभिः-ऋण्विरे) साधनाकर्मों-योगाभ्यासों के द्वारा तुझे प्राप्त होते हैं (गोमन्तम्-अश्विनं व्रजम्) प्रशस्त इन्द्रियोंवाले और प्रशस्त मनवाले शरीररूप स्थान को प्राप्त होते हैं (वः-मदे वि) तेरे हर्षप्रद स्वरूप के निमित्त विशेष स्तुति करते हैं (विवक्षसे) तू महान् है ॥५॥

    भावार्थ

    वाञ्छनीय परमात्मा का नियम से नित्य योगाभ्यास आदि द्वारा ध्यान करनेवाले उपासक जन शोभन इन्द्रियवाले और प्रशस्त मनवाले शरीर की प्राप्त होते हैं। तभी वे परमात्मा का हर्षप्रद स्वरूप अनुभव करते हैं ॥५॥

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    विषय

    बाड़ा, गौवें तथा घोड़े

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = शान्त परमात्मन् ! (त्ये) = वे (निकामासः) = सांसारिक कामनाओं से ऊपर उठे हुए (धीराः) = धीर - ज्ञानी - पुरुष (गृत्सस्य) = मेधावी - सम्पूर्ण बुद्धि के स्रोत (तवसः) = शक्ति के दृष्टिकोण से महान्-प्रवृद्ध (तव) = आपकी (शक्तिभिः) = शक्तियों से (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (गोमन्तम्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाले तथा (अश्विनम्) = उत्तम कर्मेन्द्रियों वाले (व्रजम्) = शरीररूपी बाड़े को (वि ऋणिवरे) = विशिष्टरूप से प्राप्त होते हैं और इस प्रकार विवक्षसे विशिष्ट उन्नति के लिये होते हैं । [२] प्रभु को प्राप्त वे ही होते हैं जो निकामासः - कामनाशून्य होते हैं । सांसारिक वस्तुओं की कामना से ऊपर उठकर ही प्रभु की प्राप्ति होती है। प्रभु मेधावी [गृत्स] व महान् [तवस्] हैं। प्रभु को प्राप्त करनेवाला भी मेधावी व महान् बनता है। यह धीर पुरुष प्रभु प्राप्ति के विशिष्ट आनन्द को अनुभव करता है । [३] प्रभु को प्राप्त करनेवाला, प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर इस शरीररूप बाड़े में उत्तम ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप गौवों व घोड़ोंवाला होता है। इसका शरीर व्रज है, ज्ञानेन्द्रियाँ गौवें हैं और कर्मेन्द्रियाँ घोड़े हैं । [४] इस प्रकार अपने शरीररूप बाड़े को उत्तम बनाकर, इस उत्तम इन्द्रियरूप गौवों व घोड़ों से यह निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता है । यह सब प्रभु कृपा से होता है, प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही ऐसा होने का सम्भव होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम काम से ऊपर उठकर प्रभु को प्राप्त करें। प्रभु कृपा से हमारा शरीर एक उत्तम बाड़े की तरह हो। इसमें ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तम गौवें हों तथा कर्मेन्द्रियाँ उत्तम घोड़े हों ।

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    विषय

    प्रभु की कृपा से उत्तम देह-प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे (सोम) शक्तिमन् ! सर्वप्रेरक ! ऐश्वर्यप्रद ! (त्ये) वे (नि-कामासः) तुझे निश्चय से चाहने वाले (धीराः) बुद्धिमान् जन (तवसः) अति बलशाली (गृत्सस्य) स्तुत्य, उपदेष्टा, आज्ञापक, एवं बुद्धिमान् (तव) तेरी (शक्तिभिः) शक्तियों से ही (गोमन्तम् अश्विनं व्रजं वि ऋण्विरे) गौवों और अश्वों से समृद्ध पशुशाला के समान ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से सम्पन्न इस देह को विविध प्रकार से प्राप्त करते हैं। (विवक्षसे) वह महान् प्रभु हे मनुष्यो ! (वः वि मदे) तुम्हें बहुत से आनन्द, सुख देने हारा हो। इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ६, १०, ११ आस्तारपंक्तिः। ३–५ आर्षी निचृत् पंक्तिः। ७–९ आर्षी विराट् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन् ! (गृत्सस्य तपसः तव) स्तोतृभिरभिकाङ्क्षितस्य “गृत्सः अभिकाङ्क्षितः” [ऋ० २।१९।८ दयानन्दः] बलवतस्तव (त्ये निकामासः-धीराः) ते नियमेन नित्यं वा त्वां कामयमाना धीमन्तो ध्यानिन उपासकाः “धीरसीत्याह यद्धि मनसा ध्यायति [तै० सं० ६।१।७।४] (शक्तिभिः-ऋण्विरे) साधनाकर्मभिर्योगाभ्यासैः” ‘शक्तिः कर्मनाम” [निघं० २।१] त्वां प्राप्नुवन्ति (गोमन्तम्-अश्विनं व्रजम्) प्रशस्तेन्द्रियवन्तं प्रशस्तमनस्विनं शरीररूपं स्थानं च प्राप्नुवन्ति (वः-मदे वि) तव हर्षप्रदस्वरूपनिमित्ते विशिष्टं स्तुवन्तीति शेषः (विवक्षसे) त्वं महानसि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those devotees with a balanced mind, lovers of divinity, inspired with devotion to the loved and potent Soma, with all their power of concentration in meditation reach the state of joy in your presence, O Soma, wherein they find a settled haven with enlightened mind and senses and a vibrant will here itself. O lord you are really great for all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वाञ्छनीय परमात्म्याचे नियमाने नित्य योगाभ्यास इत्यादीद्वारे ध्यान करणाऱ्या उपासकांना सुंदर इंद्रिययुक्त व प्रशंसनीय मनयुक्त शरीर प्राप्त होते. तेव्हाच ते परमात्म्याच्या हर्षप्रद स्वरूपाचा अनुभव घेतात. ॥५॥

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