ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वा॑म् । व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना॑न्य॒स्माके॑न वृ॒जने॑ना जयेम ॥
स्वर सहित पद पाठगोभिः॑ । त॒रे॒म॒ । अम॑तिम् । दुः॒ऽएवा॑म् । यवे॑न । क्षुध॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । विश्वा॑म् । व॒यम् । राज॑ऽभिः । प्र॒थ॒मा । धना॑नि । अ॒स्माके॑न । वृ॒जने॑न । ज॒ये॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गोभिष्टरेमामतिं दुरेवां यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्वाम् । वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम ॥
स्वर रहित पद पाठगोभिः । तरेम । अमतिम् । दुःऽएवाम् । यवेन । क्षुधम् । पुरुऽहूत । विश्वाम् । वयम् । राजऽभिः । प्रथमा । धनानि । अस्माकेन । वृजनेन । जयेम ॥ १०.४४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पुरुहूत) हे बहुत आह्वान करने योग्य राजन् (गोभिः-दुरेवाम्-अमतिम्) वेदवाणियों से दुःख प्राप्त करानेवाली अज्ञान बुद्धि को (यवेन विश्वां क्षुधम्) अन्न से समस्त भूख को (तरेम) पार करें-निवृत्त करें (राजभिः प्रथमा धनानि) आप जैसे राजाओं से प्रमुख धनों को प्राप्त करें (अस्माकेन वृजनेन जयेम) तथा हम अपने बल से विजय प्राप्त करें ॥१०॥
भावार्थ
राष्ट्र की प्रजाएँ शासकों की सहायता से धनसम्पत्ति का उपार्जन करें। अपने बल से अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करें। विविध भोजनों से क्षुधा की निवृत्ति करें एवं नाना विद्याओं के अध्ययन से अज्ञानबुद्धि को दूर करें ॥१०॥
विषय
गोदुग्ध यव
पदार्थ
इन दोनों मन्त्रों का व्याख्यान ४२.१० तथा ४२.११ पर द्रष्टव्य हैं ।
विषय
अज्ञान दुर्भिक्ष आदि का विजय।
भावार्थ
हे (पुरु-हूत) बहुतों से पुकारने, आपत्तिकाल में स्मरण करने और अपनाने योग्य प्रभो ! राजन् ! हम लोग (दुरेवाम्) दुःखों के सहित आनेवाले, कठिन उपायों से दूर होने वाले, दुःसाध्य (अमतिम्) अज्ञान को (गोभिः तरेम) वेदवाणियों और गुरु-उपदेशों से पार करें। और (यवेन विश्वाम् क्षुधं तरेम) यव आदि अनेक अन्न से सब प्रकार की भूखों को तरें। (वयम्) हम लोग (राजभिः) तेजस्वी पुरुषों से और (अस्माकेन वृजनेन) अपने बल से (प्रथमा धनानि जयेम) श्रेष्ठ २ धनों को प्राप्त करें । अथवा—(प्रथमाः) हम स्वयं वीर पुरुष और बल से श्रेष्ठ होकर धनों को प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पुरुहूत) हे बहुह्वातव्य राजन् ! (गोभिः-दुरेवाम्-अमतिम्) वेदवाग्भिर्दुःखप्रापिकामज्ञानबुद्धिम् (यवेन विश्वां क्षुधम्) अन्नेन सर्वां क्षुधम् (तरेम) पारयेम (राजभिः प्रथमा धनानि) भवादृशैः शासकैः प्रमुखानि धनानि (अस्माकेन वृजनेन जयेम) तथा स्वकीयेनास्मदीयेन बलेन जयेम-जयं प्राप्नुयाम ॥१०॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord universally invoked and celebrated, let us overcome the difficult problems of want, of moral and spiritual vision and knowledge, by the Vedic voice, and the problem of world hunger by cooperative production of food. And let us on top win wealth, honour and excellence by our own brilliance of intelligence and our own persistent effort.
मराठी (1)
भावार्थ
राष्ट्रातील प्रजेने शासकाच्या साह्याने धनसंपत्तीचे उपार्जन करावे. आपल्या बलाने आपल्या कार्यात सफलता प्राप्त करावी. विविध भोजनांनी क्षुधेची निवृत्ती करावी व नाना विद्येच्या अध्ययनाने अज्ञानबुद्धी दूर करावी. ॥१०॥
टिप्पणी
या दोन मंत्रांची व्याख्या बेचाळिसाव्या सूक्तात यापूर्वीच केलेली आहे.
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