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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    ए॒वैवापा॒गप॑रे सन्तु दू॒ढ्योऽश्वा॒ येषां॑ दु॒र्युज॑ आयुयु॒ज्रे । इ॒त्था ये प्रागुप॑रे॒ सन्ति॑ दा॒वने॑ पु॒रूणि॒ यत्र॑ व॒युना॑नि॒ भोज॑ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । ए॒व । अपा॑क् । अप॑रे । स॒न्तु॒ । दुः॒ऽध्यः॑ । अश्वाः॑ । येषा॑म् । दुः॒ऽयुजः॑ । आ॒ऽयु॒यु॒ज्रे । इ॒त्था । ये । प्राक् । उप॑रे । सन्ति॑ । दा॒वने॑ । पु॒रूणि॑ । यत्र॑ । व॒युना॑नि । भोज॑ना ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवैवापागपरे सन्तु दूढ्योऽश्वा येषां दुर्युज आयुयुज्रे । इत्था ये प्रागुपरे सन्ति दावने पुरूणि यत्र वयुनानि भोजना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । एव । अपाक् । अपरे । सन्तु । दुःऽध्यः । अश्वाः । येषाम् । दुःऽयुजः । आऽयुयुज्रे । इत्था । ये । प्राक् । उपरे । सन्ति । दावने । पुरूणि । यत्र । वयुनानि । भोजना ॥ १०.४४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एव-एव) इसी प्रकार (अपरे दूढ्यः-अपाक् सन्तु) अन्य दुर्बुद्धि, पापसंकल्पी जन नीचगति को पाते हैं (येषाम्-अश्वाः-दुर्युजः-आयुयुज्रे) जिनके इन्द्रियरूपी अश्व विषयव्यापी हैं, कठिनाई से उपयोग में लेने योग्य हैं-असंयत हैं, तथा (उपरे ये प्राक्-इत्था सन्ति) जो उपरत हैं, परमात्मा को लक्ष्य कर सत्यमानी, सत्यभाषी, सत्यकारी हैं, वे (यत्र दावने पुरूणि वयुनानि भोजना) जहाँ पर, आनन्दाश्रय मोक्ष में बहुत प्रकार के या अनन्त प्रज्ञान, अनुभवयोग्य सुख हैं, वहाँ जाते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    विषयलोलुप असंयमी जन दुर्बुद्धि, नीचगति को प्राप्त होते हैं, परन्तु विषयों से उपरत वैराग्यवान् उपासनाशील अनन्त आनन्द से पूर्ण मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    प्राग् नकि प्रपाग्

    पदार्थ

    [१] (येषाम्) = जिन यज्ञ न करनेवालों के (दुर्युज:) = दुष्ट योजनावाले, अर्थात् अशुभ मार्ग की ओर जानेवाले (अश्वाः) = इन्द्रियरूप अश्व (आयुयुज्रे) = इस शरीर रथ में जुतते हैं वे (दूढ्यः) = [दुर्धियः ] दुष्ट बुद्धिवाले पुरुष (अपरे) = इस अपरा प्रकृति में फँसे हुए पुरुष (एवा) = अपनी गतियों [= क्रियाओं] के कारण ही (अपाग्) = अधोगतिवाले [अप अञ्च् ] (सन्तु) = हों । भोग प्रवण मनोवृत्तिवाले पुरुष ही बुद्धियाँ सदा कुकामनाएँ करती हैं, 'अन्यायेन अर्थसंचयः' का विचार करती रहती हैं। इनकी अन्ततः अवनति ही होती है । [२] (उ) = और जो (परे) = दूसरे, परा प्रकृति [आत्मस्वरूप] की ओर चलनेवाले होते हैं और (इत्था) = सचमुच दावने सन्ति देने के कार्य में ही लगे रहते हैं, (प्राग् सन्ति) = [प्र अञ्च्] आगे बढ़नेवाले होते हैं। वे वहाँ पहुँचते हैं (यत्र) = जहाँ कि पुरूणि पालन व पूरण करनेवाले अथवा पर्याप्त वयुनानि ज्ञानयुक्त व कान्त [= चमकते हुए] (भोजना) = [ पालन करनेवाले] धन हैं। इन भोगवृत्ति से ऊपर उठे हुए यज्ञशील पुरुषों पालन के लिये आवश्यक सब धन प्राप्त होते हैं, ये धन उन्हें मूढ बनानेवाले नहीं होते, प्रत्युत उनके ज्ञान को बढ़ाते हुए उन्हें आगे ले चलते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - भोग-प्रवण बनकर हम अधोगति को प्राप्त करनेवाले न बनें। यज्ञों में प्रवृत्त हुए-हुए आगे बढ़ें और ज्ञानयुक्त धनोंवाले हों ।

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    विषय

    अजितेन्द्रियी का अधःपतन और जितेन्द्रियों की उन्नति।

    भावार्थ

    (एव एव) इस प्रकार हे (अपरे) दूसरे जो परब्रह्म की उपासना से रहित (दूढ्यः) दुष्ट बुद्धि वाले जन हैं (येषां) जिनके (दुः-युजः अश्वाः) कुमार्ग में जाने वाले, सन्मार्ग में कठिनता से लगने वाले, अश्वों के तुल्य बलवान् इन्द्रियगण (आ युयुज्रे) इधर उधर के तुच्छ विषयों में लगते हैं। वे (अपाग् एव एव सन्तु) दूर वा नीचे ही नीचे पतित (सन्तु) हो जाते हैं। (यत्र) जिस में (पुरूणि वयुनानि) बहुत से ज्ञान और (पुरूणि भोजना) बहुत से भोग्य ऐश्वर्य और नाना रक्षा साधन हैं उस (परे) परम ब्रह्म में जो (दावने सन्ति) दान देने के लिये सदा तत्पर हैं वे (इत्था) सचमुच (प्राक् सन्तु) आगे बढ़ने वाले होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एव एव) एवमेव (अपरे दूढ्यः-अपाक् सन्तु) अन्ये दुर्धियो दुर्बुद्धयः “दूढ्यो दुर्धियः पापधियः” [निरु० ५।२३] पापसङ्कल्पा जना नीचैर्गता भवन्ति (येषाम्-अश्वाः-दुर्युजः-आयुयुज्रे) येषां हि खल्विन्द्रियरूपा अश्वा विषयेषु व्यापिनः “इन्द्रियाणि हयानाहुः” [कठो० १-३-४] दुःखेन योक्तुं शक्या असंयता आयुज्यन्ते तथा सन्ति (उपरे ये प्राक् इत्था सन्ति) ये उपरः-उपरा उपरता ‘विभक्तिव्यत्ययः, उपपूर्वकरमधातोः डः प्रत्ययः’ परमात्मानं सम्मुखं लक्ष्यीकृत्य सत्यमननभाषणकर्माचरणवन्तः “इत्था सत्यनाम” [निघ० ३।१०] सन्ति (यत्र दावने पुरूणि वयुनानि भोजना) यत्रानन्ददातरि खल्वानन्दाश्रये मोक्षे बहुविधानि अनन्तानि वा प्रज्ञानानि-अनुभववेद्यानि वा भोक्तव्यानि सुखानि भोगवस्तूनि वा विद्यन्ते तत्र गच्छन्ति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus do people of evil disposition keep wallowing in low states of existence whose mind and senses are engaged in wrong things like restive horses. And thus do others of the first and higher disposition fare who are dedicated here itself to the higher omnificent divinity in which infinite gifts of freedom, peace and happiness abound.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विषयलोलुप असंयमी लोक दुर्बुद्धि नीच गती प्राप्त करतात; परंतु विषयापासून उपरत वैराग्यवान उपासनाशील अनंत आनंदाने पूर्ण मोक्ष प्राप्त करतात. ॥७॥

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