ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
एन्द्र॒वाहो॑ नृ॒पतिं॒ वज्र॑बाहुमु॒ग्रमु॒ग्रास॑स्तवि॒षास॑ एनम् । प्रत्व॑क्षसं वृष॒भं स॒त्यशु॑ष्म॒मेम॑स्म॒त्रा स॑ध॒मादो॑ वहन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ऽवाहः॑ । नृ॒ऽपति॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् । उ॒ग्रम् । उ॒ग्रासः॑ । त॒वि॒षासः॑ । ए॒न॒म् । प्रऽत्व॑क्षसम् । वृ॒ष॒भम् । स॒त्यऽशु॑ष्मम् । आ । ई॒म् । अ॒स्म॒ऽत्रा । स॒ध॒ऽमादः॑ । व॒ह॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास एनम् । प्रत्वक्षसं वृषभं सत्यशुष्ममेमस्मत्रा सधमादो वहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्द्रऽवाहः । नृऽपतिम् । वज्रऽबाहुम् । उग्रम् । उग्रासः । तविषासः । एनम् । प्रऽत्वक्षसम् । वृषभम् । सत्यऽशुष्मम् । आ । ईम् । अस्मऽत्रा । सधऽमादः । वहन्तु ॥ १०.४४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्मत्रा-इन्द्रवाहः) हमारे में ऐश्वर्यवान् परमात्मा को प्राप्त करानेवाले (उग्रासः) तपस्वी, तेजस्वी (तविषासः) आत्मबलवाले या शस्त्रास्त्रबलवाले (सधमादः) साथ ही हर्ष अनुभव करनेवाले उपासक या राजसहायक, प्रमुखसभासद् (एनं नृपतिम्) इस मुमुक्षुओं के पालक, प्रजाजनों के पालक (वज्रबाहुम्) ओज ही जिसकी संसारवहनशक्ति है, उस ओजस्वी परमात्मा को या प्रतापी राजा को (उग्रम्) उद्गूर्ण-उत्तम गुणवाले या बढ़े-चढ़े राजा को (प्रत्वक्षसम्) विरोधी को बलहीन करनेवाले-(वृषणम्) सुखवर्षक-(सत्यशुष्मम्) अविनश्वर आत्मबलवाले परमात्मा या राजा को (ईम्-आ वहन्तु) अवश्य भली-भाँति प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं ॥३॥
भावार्थ
उत्तम गुणवाले परमात्मा को तपस्वी उपासक प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं। ऐसे ही प्रतापी राजा को तेजस्वी सहायक कर्मचारी अपने अनुकूल बनाते हैं ॥३॥
विषय
सत्यशुष्म
पदार्थ
[१] प्राण जीवात्मा के साथ रहते हैं, उपनिषद् के शब्दों में उसी प्रकार जैसे कि पुरुष के साथ छाया। छाया पुरुष का साथ नहीं छोड़ती, प्राण आत्मा का साथ नहीं छोड़ते। इसीलिए प्राणों को यहाँ 'सधमादः '' जीव के साथ आनन्दित होनेवाले' कहा गया है। ये प्राण जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु के प्रति ले चलनेवाले हैं, सो 'इन्द्रवाह: ' हैं। शक्तिशाली होने से 'उग्रासः ' हैं और अत्यन्त बढ़े हुए होने से, सब उन्नतियों का कारण होने से 'तविषासः' कहे जाते हैं । [२] इन प्राणों से कहते हैं कि (सधमादः) = जीव के साथ आनन्द को अनुभव करनेवाले, (इन्द्रवाह:) = जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले, (उग्रासः) = तेजस्वी (तविषासः) = प्रवृद्ध व बल-सम्पन्न प्राणो ! आप (एनम्) = इस जीव को (ईम्) = निश्चय से (अस्मत्रा) = हमारे समीप आवहन्तु ले आओ। उस जीव को जो [क] (नृपतिम्) = उन्नतिशील पुरुषों का प्रमुख है, [ख] (वज्रबाहुम्) = बाहु में क्रियाशीलता रूप वज्र को लिये हुए है, सदा क्रियाशील है, [ग] (उग्रम्) = जो तेजस्वी है, [घ] (प्रत्वक्षसम्) = अपने बुद्धि को बड़ा सूक्ष्म बनानेवाला है, [ङ] (वृषभम्) = शक्तिशाली होता हुआ सब पर सुखों का वर्षण करनेवाला है, [च] (सत्यशुष्मम्) = सत्य के बलवाला है। वस्तुतः प्राणसाधना से मनुष्य के जीवन में ये सब गुण उत्पन्न होते हैं और इन गुणों को उत्पन्न करके प्राण इसे प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से जीव शक्तिशाली व सत्य के बलवाला और सूक्ष्म बुद्धि से युक्त होता है। इन तीनों बातों का सम्पादन करके यह प्रभु के समीप पहुँचता है।
विषय
बलवान् जन राजा के रक्षक हों।
भावार्थ
(अस्मत्रा) हम में से (इन्द्र-वाहः) ऐश्वर्य और बल को धारण करने में समर्थ, (उग्रासः) उग्र, (तविषासः) बलशाली (सध-मादः) एक साथ मिलकर हर्ष प्राप्त करने वाले जन (नृपतिं) मनुष्यों के पालक, (वज्र-बाहुम्) तलवार से युक्त बाहु के समान शस्त्र-बल से शत्रु को पीड़ित करने वाले (उग्रम्) शत्रु को भयप्रद (प्र-त्वक्षसं) अति तेजस्वी; शत्रुनाशक, (सत्य- शुष्मम्) सत्य के बल से बलशाली (वृषभम्) नरश्रेष्ठ को (आ वहन्तु) आदरपूर्वक धारण करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्मत्रा-इन्द्रवाहः) अस्मासु-ऐश्वर्यवन्तं परमात्मानं वहन्ति प्रापयन्ति ये ते (उग्रासः) तपस्विनः, तेजस्विनो वा (तविषासः) आत्मबलवन्तः, शस्त्रास्त्रबलवन्तो वा (सधमादः) सहैव हर्षमनुभवन्तः, उपासकाः, राजकर्मसहायकाः, प्रमुखसभासदो वा (एनं नृपतिम्) एतं मुमुक्षूणां पालकम्, प्रजाजनानां पालकम् (वज्रबाहुम्) ओज एव संसारवहनशक्तिर्यस्य शस्त्रं वा तं तेजस्विनं प्रतापिनं वा (उग्रम्) उद्गूर्णं प्रवृद्धं वा (प्रत्वक्षसम्) विरोधिनो बलहीनकर्त्तारम् (वृषणम्) सुखवर्षकम् (सत्यशुष्मम्) अविनश्वरात्मबलवन्तं परमात्मानं राजानं वा (ईम्-आवहन्तु) अवश्यं समन्तात् प्रापयन्ति, नेतरे ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the mighty, blazing, penetrating, vigorous and refining radiations of this Indra, protector and promoter of humanity, thunder armed, virile and generous, indomitable upholder of truth, come in unison with inspiring strength and bring him to us for our social and spiritual good.
मराठी (1)
भावार्थ
उत्तम गुणयुक्त परमात्म्याला तपस्वी उपासक प्राप्त करतात. इतर नाही. प्रतापी राजाला तेजस्वी सहायक कर्मचारी आपल्या अनुकूल बनवितात. ॥३॥
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