ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 8
गि॒रीँरज्रा॒न्रेज॑मानाँ अधारय॒द्द्यौः क्र॑न्दद॒न्तरि॑क्षाणि कोपयत् । स॒मी॒ची॒ने धि॒षणे॒ वि ष्क॑भायति॒ वृष्ण॑: पी॒त्वा मद॑ उ॒क्थानि॑ शंसति ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रीन् । अज्रा॑न् । रेज॑मानान् । अ॒धा॒र॒य॒त् । द्यौः । क्र॒न्द॒त् । अ॒न्तरि॑क्षाणि । को॒प॒य॒त् । स॒मी॒ची॒ने इति॑ स॒म्ऽई॒ची॒ने । धि॒षणे॒ इति॑ । वि । स्क॒भा॒य॒ति॒ । वृष्णः॑ । पी॒त्वा । मदे॑ । उ॒क्थानि॑ । शं॒स॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरीँरज्रान्रेजमानाँ अधारयद्द्यौः क्रन्ददन्तरिक्षाणि कोपयत् । समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्ण: पीत्वा मद उक्थानि शंसति ॥
स्वर रहित पद पाठगिरीन् । अज्रान् । रेजमानान् । अधारयत् । द्यौः । क्रन्दत् । अन्तरिक्षाणि । कोपयत् । समीचीने इति सम्ऽईचीने । धिषणे इति । वि । स्कभायति । वृष्णः । पीत्वा । मदे । उक्थानि । शंसति ॥ १०.४४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अज्रान्-रेजमानान् गिरीन् अधारयत्) वह इन्द्र परमेश्वर गतिशील कम्पमान मेघों को पृथिवी पर गिराता है (द्यौः-क्रन्दत्-अन्तरिक्षाणि कोपयत्) विद्युत् की भाँति गर्जता हुआ अन्तरिक्षस्थ लोकलोकान्तरों को कुपित करता है गति करने के लिए (समीचीने विषणे विष्कभायति) सम्मुख हुए द्यावापृथिवी को विशेषरूप से स्तम्भित करता है-थामता है (वृष्णः पीत्वा मदे-उक्थानि शंसति) उपासनाप्रवाहों को पीकर-लेकर-स्वीकार करके आनन्द देने के लिए वेदवचनों का प्रवचन करता है ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा मेघों को बरसाता है, लोक-लोकान्तरों को चलाता है, उपासकों के उपासनारसों को स्वीकार कर वेदमन्त्र का प्रवचन करता है ॥८॥
विषय
समीचीने धिषणे
पदार्थ
[१] (वृष्णः) = शक्ति के देनेवाले सोम का (पीत्वा) = पान करके, सोम को शरीर में ही व्याप्त [imbife] करके (मदे) = उल्लास में (उक्थानि) = प्रभु के स्तोत्रों का (शंसति) = शंसन करता है। जिस समय मन्त्र का ऋषि 'गोतम' [प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष ] सोम का विनाश न करके उसे शरीर में ही सुरक्षित करता है उस समय नीरोगता व निर्मलता के कारण उसे एक अनुपम उल्लास का अनुभव होता है। उस उल्लास में वह प्रभु की महिमा का गायन करता है। प्रभु की बनाई हुई उस सोमशक्ति में वह प्रभु की महिमा को देखता है । [२] इस सोम के रक्षण के द्वारा वह (समीचीने) = [सम् अञ्च्] उत्तम गतिवाले धिषणे द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (विष्कभायति) = विशेषरूप से थमता है । मस्तिष्क व शरीर की शक्ति को क्षीण न होने देकर इनको वह बढ़ानेवाला होता है । सोम का रक्षण उसकी ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करता है और शरीर में आ जानेवाले रोगकृमियों का नाश करता है। मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाना व शरीर को नीरोग बनाना ही द्यावापृथिवी का धारण है । इस सोम रक्षक पुरुष के मस्तिष्क व शरीर दोनों समीचीन होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान का ग्रहण करनेवाला होता है तो शरीर रोगशून्य होता है । [३] यह (अज्रान्) = अपनी गति के द्वारा विक्षिप्त करनेवाले (रेजमानान्) = अत्यन्त कम्पित करते हुए (गिरीन्) = अविद्या पर्वतों को (अधारयत्) = थामता है अविद्या पर्वतों के आक्रमण से अपने को बचाता है। इसका (द्यौ:) = मस्तिष्करूप द्युलोक (अक्रन्दत्) = प्रभु का आह्वान करनेवाला होता है, अर्थात् यह अपने ज्ञान के प्रकाश से प्रभु को देखता है और उसे अपने रक्षण के लिये पुकारता है। यह (अन्तरिक्षाणि) = अपने हृदयान्तरिक्षों को (कोपयत्) = [कोपयति to shine] दीप्त करता है। प्रभु के प्रकाश से हृदय का दीप्त होना स्वाभाविक है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम के रक्षण से हमारे मस्तिष्क व शरीर उत्तम हों ।
विषय
प्रभु का प्रसाद और कोप। उसका गर्जनवत् उपदेश।
भावार्थ
वह प्रभु (अज्रान्) गमनशील, (गिरीन्) मेघों और (रेजमानान्) बिजुली से कांपते हुओं को (अधारयत्) धारण करता है। (द्यौः क्रन्दत्) बिजुली शब्द करती है, तब मानो वह (अन्तरिक्षाणि) जलमय मेघों को लक्ष्य कर (कोपयत्) क्षुभित करता, मानो उन पर क्रोध करता है। (समीचीने) परस्पर मिले हुए (धिषणे) आकाश और पृथिवी दोनों लोकों को (वि स्कभायति) विविध रूप से थामता है। और वह (वृष्णः पीत्वा) जलवर्षक रसों का मेघवत् पान करके (मदे) आनन्द में मानों (उक्थानि शंसति) स्तुत्य उपदेश वचनों का उपदेश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अज्रान्-रेजमानान्-गिरीन्-अधारयत्) स इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा गतिशीलान् कम्पयमानान् मेघान् पृथिव्यां धारयति पातयतीत्यर्थः (द्यौः-क्रन्दत् अन्तरिक्षाणि कोपयत्) विद्युदिव कम्पयन्-गर्जन्नन्तरिक्षस्थानि लोकलोकान्तराणि कोपयति चेतयति गतिं कर्त्तुम् (समीचीने धिषणे विष्कभायति) सम्मुखीभूते द्यावापृथिव्यौ “धिषणे द्यावापृथिवीनाम” [निघ० ३।१०] विशिष्टतया स्कम्भयति स्तम्भयति (वृष्णः पीत्वा मदे-उक्थानि शंसति) उपासकानामुपासनाप्रवाहान् पीत्वाऽऽदाय स्वकीयमदे-आनन्ददानाय वेदवचनानि प्रवक्ति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
He wields the dynamics of nature, fixes the mountains and moves the roaring clouds. He holds the raging heavens and shakes the violent skies. He holds both earth and heaven together and, the glorious sun having drunk up the vapours, showers down the rains in joy like the overflow of divine ecstasy in the music of song.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा मेघांचा वर्षाव करतो, लोकलोकांतरांना चालवितो. उपासकांच्या उपासनारसाचा स्वीकार करून वेदमंत्रांचे प्रवचन करतो. ॥८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal