ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
ए॒वा पतिं॑ द्रोण॒साचं॒ सचे॑तसमू॒र्जः स्क॒म्भं ध॒रुण॒ आ वृ॑षायसे । ओज॑: कृष्व॒ सं गृ॑भाय॒ त्वे अप्यसो॒ यथा॑ केनि॒पाना॑मि॒नो वृ॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । पति॑म् । द्रो॒ण॒ऽसाच॑म् । सऽचे॑तसम् । ऊ॒र्जः । स्क॒म्भम् । ध॒रुणे॑ । आ । वृ॒ष॒ऽय॒से॒ । ओजः॑ । कृ॒ष्व॒ । सम् । गृ॒भा॒य॒ । त्वे इति॑ । अपि॑ । असः॑ । यथा॑ । के॒ऽनि॒पाना॑म् । इ॒नः । वृ॒धे ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्जः स्कम्भं धरुण आ वृषायसे । ओज: कृष्व सं गृभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । पतिम् । द्रोणऽसाचम् । सऽचेतसम् । ऊर्जः । स्कम्भम् । धरुणे । आ । वृषऽयसे । ओजः । कृष्व । सम् । गृभाय । त्वे इति । अपि । असः । यथा । केऽनिपानाम् । इनः । वृधे ॥ १०.४४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एव) अत एव जिससे कि तू (धरुणे-आवृषायसे) संसार या राष्ट्र के धारण करने के निमित्त बल का प्रसार करता है, उसी कारण तुझ (द्रोणसाचम्) कर्म करने के लिए गति करते हैं जिसमें प्राणी या प्रजाएँ, उस संसार या राष्ट्र के सञ्चालन करनेवाले (सचेतसम्) सर्वज्ञ या सावधान (ऊर्जः-स्कम्भम्) बल या बलवानों के आधारभूत (पतिम्) पालक परमात्मा या राजा की हम उपासना करते हैं या सेवा करते हैं (संगृभाय) तू हमें अपने में या अपने सहारे में स्वीकार कर (ओजः कृष्व) हमारे में अध्यात्मबल या साहस को सम्पादित कर (त्वे-अपि) हम तुझ में-तेरे आश्रित हैं (यथा केनिपानां वृधे-इनः-असः) जिससे तू मेधावी स्तुति करनेवालों या प्रशंसकों का स्वामी है ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा संसार का संचालक तथा सर्वज्ञ, बलों का आधार और हमारा रक्षक है, स्वामी है। हमें उसकी उपासना करनी चाहिये। एवं राजा-राष्ट्र के संचालक को प्रत्येक गतिविधि में सावधान, सैन्य आदि बलों का रखनेवाला और प्रजापालक होना चाहिए ॥४॥
विषय
सोम-महिमा
पदार्थ
[१] हे (धरुण) = हमारा धारण करनेवाले प्रभो ! (एवा) = [ इ गतौ ] गतिशीलता के द्वारा आप (आवृषायसे) = हमारे में उस सोम का वर्षण व सेचन करते हैं जो कि (पतिम्) = पालक है, रोगों से हमें बचानेवाला है, (द्रोणसाचम्) = इस शरीररूपी द्रोण [ = सोमपात्र] में समवेत [= सम्बद्ध] होनेवाला है, (सचेतसम्) = जो चेतना से युक्त है, चेतना व ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला है और (ऊर्जः स्कम्भम्) = बल व प्राणशक्ति का धारक है। [२] हे प्रभो ! इस सोम के सेचन से (ओजः कृष्व) = आप हमारे में ओजस्विता का सम्पादन करिये और (त्वे अपि संगृभाय) = हमें अपने में ग्रहण करने की कृपा करिये । हम आपकी गोद में उसी प्रकार आ सकें जैसे कि पुत्र पिता की गोद में आता है। [३] आप हमारे लिये उसी प्रकार होइये (यथा) = जैसे कि (इनः) = स्वामी होते हुए आप (केनिपानाम्) = मेधावियों के (वृधे) = वर्धन के लिये होते हैं। हम भी इस सोम के रक्षण के द्वारा मेधावी हों और आपके प्रिय होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करें ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम [= वीर्य] हमारा रोगों से रक्षण करता है, हमें चेतना सम्पन्न व शक्तिशाली बनाता है। इसके द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। मेधावी बनकर वृद्धि को प्राप्त करते हैं।
विषय
प्रजा बलशाशी राजा को चाहें। वह उनकी वृद्धि करे।
भावार्थ
(एव) इसी प्रकार के (द्रोण-साचं) राष्ट्र की सेवा करने वाले (स-चेतसम्) उत्तम, ज्ञानी सहृदय (ऊर्जः स्कम्भम्) बल पराक्रम को स्तम्भवत् धारण करनेहारे पुरुष को (धरुणे) धारण करने वाले प्रमुख पद पर हे प्रजाजन ! तू (आ वृषायसे) आदरपूर्वक बलशाली की कामना कर। हे राजन् ! तू (ओजः कृष्व) बल वीर्य सम्पादन कर (त्वे) तू अपने में ही हमें (सं गृभाय) अच्छी प्रकार ग्रहण कर, सब को धारण कर। (यथा) जिस प्रकार तू (केनिपानां इनः) सुखमय, आनन्द रस का पान करने वाले विद्वानों का स्वामी होकर (वृधे) हमारी वृद्धि के लिये (अपि असः) समर्थ हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एव) अत एव यतस्त्वम् (धरुणे-आवृषायसे) संसारस्य राष्ट्रस्य वा धारणनिमित्तं बलं प्रसारयसि, तस्मात् त्वाम् (द्रोणसाचम्) द्रवन्ति कर्मकरणाय प्राणिनः प्रजाजनाश्च यस्मिन् तस्य संसारस्य राष्ट्रस्य वा साचयितारं गमयितारं चालयितारम् “सचति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (सचेतसम्) सर्वज्ञं सदा सावधानं वा (ऊर्जः स्कम्भम्) बलस्य बलवतश्चाधारभूतम् (पतिम्) पालकं त्वां परमात्मानं राजानं वा वयमुपास्महे सेवामहे वेति शेषः (संगृभाय) त्वमस्मान् स्वस्मिन् स्वाधारे वा सम्यक् गृहाण (ओजः कृष्व) अस्मासु-अध्यात्मबलं साहसं वा सम्पादय (त्वे अपि) वयं त्वयि-आश्रिताः स्मः (यथा केनिपानां वृधे-इनः-असः) यतो हि त्वमस्माकं मेधाविनां स्तोतॄणां प्रशंसकानां वा “केनिपः-मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] वृद्धये-ईश्वरः-स्वामी “इन ईश्वरनाम” [निघ० २।२३] असि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus do solar radiations transmit the presence of Indra, lord protector and ruler pervasive in the world of humanity, all aware, the pillar of universal energy, strength and power. Thus do we exalt and celebrate Indra. O lord, you are the shower of power and generosity in the all-sustaining world of yours. Pray create and give us the strength of life, hold us in your power and presence for our promotion and progress since you are the ultimate lord and master of the dedicated aspirants for light.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा जगाचा संचालक व सर्वज्ञ, बलाचा आधार व आमचा रक्षक स्वामी आहे. आम्हाला त्याची उपासना केली पाहिजे व राजा राष्ट्राचा संचालक, प्रत्येक गतिविधीत सावधान, सैन्य इत्यादी बल ठेवणारा व प्रजापालक असला पाहिजे. ॥४॥
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