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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒ष्ठामा॒ रथ॑: सु॒यमा॒ हरी॑ ते मि॒म्यक्ष॒ वज्रो॑ नृपते॒ गभ॑स्तौ । शीभं॑ राजन्त्सु॒पथा या॑ह्य॒र्वाङ्वर्धा॑म ते प॒पुषो॒ वृष्ण्या॑नि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽस्थामा॑ । रथः॑ । सु॒ऽयमा॑ । हरी॒ इति॑ । ते॒ । मि॒म्यक्ष॑ । वज्रः॑ । नृ॒ऽप॒ते॒ । गभ॑स्तौ । शीभ॑म् । रा॒ज॒न् । सु॒ऽपथा॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । वर्धा॑म । ते॒ । प॒पुषः॑ । वृष्ण्या॑नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुष्ठामा रथ: सुयमा हरी ते मिम्यक्ष वज्रो नृपते गभस्तौ । शीभं राजन्त्सुपथा याह्यर्वाङ्वर्धाम ते पपुषो वृष्ण्यानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽस्थामा । रथः । सुऽयमा । हरी इति । ते । मिम्यक्ष । वज्रः । नृऽपते । गभस्तौ । शीभम् । राजन् । सुऽपथा । आ । याहि । अर्वाङ् । वर्धाम । ते । पपुषः । वृष्ण्यानि ॥ १०.४४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नृपते राजन्) हे मुमुक्षुजनों के पालक ! सर्वत्र राजमान परमात्मन् ! या प्रजाजनों के पालक राजन् ! तथा गतिशक्तियों के पालक धारक विद्युत् पदार्थ ! कलायन्त्र में प्रकाशमान ! (ते) तेरा (रथः) रमणयोग्य मोक्ष या गमनशील यान अथवा गतिपिञ्जर (सुष्ठामा) सुखस्थान, सुरक्षितस्थितिमान्, सुव्यवस्थित (हरी सुयमा) दुःखापहरण और सुखाहरणकर्ता, दया और प्रसाद, सेनाविभाग और सभाविभाग, तथा शुष्क और आर्द्र धाराएँ, सुनियम से प्रवर्तमान (गभस्तौ वज्रः-मिम्यक्ष) बाहु में-संसारवहनबल में, या भुजा में तथा नियन्त्रण में ओज या शस्त्र अथवा वर्जनबल प्राप्त  हो (सुपथा-शीभम्-अर्वाङ्-आ याहि) सुमार्ग से-ध्यान से, गतिमार्ग से, तारमार्ग के द्वारा शीघ्र हमारी ओर इस घर में प्राप्त हो (पपुषः-ते वृष्ण्यानि वर्धाम) उपासनारसपानकर्ता के, सोम्यानन्द-रसपानकर्ता के, द्रवपदार्थपानकर्ता के तेरे बलों को अपने में बढ़ावें ॥२॥

    भावार्थ

    मुमुक्षुओं का पालक परमात्मा अपनी कृपा और प्रसाद से उपासकों के अन्दर अध्यात्ममार्ग द्वारा प्राप्त होता है। एवं प्रजा का पालक राजा अपने सेनाविभाग और सभाविभाग के द्वारा प्रजाओं का हित चाहता हुआ यानादि द्वारा उनमें प्राप्त होता है। इसी प्रकार गतिशक्तियों का रक्षक अपनी दो धाराओं के द्वारा किसी कलायन्त्र में उपयुक्त और प्रयुक्त होता है ॥२॥

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    विषय

    सुसुष्ठामा रथः

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के 'स्वपति' से ही कहते हैं कि तेरा (रथः) = शरीररूप रथ (सुष्ठामा) = शोभनावस्थान हो, इसका एक-एक अंग सुबद्ध हो, अर्थात् यह शरीररूप रथ सुगठित हो । (ते) = तेरे (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय सब अश्व (सुयमा) = उत्तमता से नियमित हों, वश में हों । हे (नृपते) = आगे बढ़नेवालों के (स्वामिन्) = मुखिया ते गभस्तौ तेरी बाहु में (वज्रः) = क्रियाशीलता रूप वज्र (मिम्यक्ष) = संहत हो । अर्थात् तू दृढ़तापूर्वक क्रियाशील बने, अकर्मण्य न हो। [२] हे (राजन्) = अपने जीवन को resnleted व्यवस्थित करनेवाले और अतएव अपने जीवन को दीप्त बनानेवाले जीव ! तू (सुपथा) = उत्तम मार्ग से (शीभम्) = शीघ्र (अर्वाड्) = हमारे सामने अथवा अन्दर हृदय के प्रदेश में (आयाहि) = आनेवाला हो । जीवन को व्यवस्थित बनाना ही प्रभु की ओर चलना है। [३] प्रभु कहते हैं कि (पपुषः) = सोम का पान करनेवाले (ते) = तेरे (वृष्ण्यानि) = बलों को (वर्धाम) = हम बढ़ाते हैं। सोमपान से ही शक्ति का वर्धन होता है । सशक्त होकर ही हम प्रभु-दर्शन के योग्य बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा शरीरूप रथ सुदृढ़ हो, इन्द्रियाश्व संयत हों, हाथों में क्रियाशीलता हो, सुपथ से प्रभु की ओर चलें और सोम के रक्षण के द्वारा शक्तिशाली बनें।

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    विषय

    राजा का रथ और सैन्य दृढ़ हों, प्रजा संयमी हों। समस्त सैन्य उसके हाथ में हो।

    भावार्थ

    हे (नृपते) मनुष्यों के पालक ! राजन् ! (ते रथः सुस्थामा) तेरा रथ सुखपूर्वक ठहरने वाला, वा उत्तम बैठने के स्थान से युक्त हो, तेरा रथारोही बल युद्ध में खूब टिकने वाला हो। (ते हरी सु-यमा) तेरे दोनों अश्व सुख से नियन्त्रित हों, तेरे अधीन प्रजास्थ स्त्री पुरुष लोग उत्तम संयमी, सुप्रबद्ध रहें। (ते गभस्तौ) तेरी बाहु में (वज्रः मिम्यक्ष) वज्र, शस्त्र-बल रहे, शस्त्र बल तेरे हाथ के नीचे हो। हे (राजन्) देदीप्यमान ! राजन् ! तू (शीभं) शीघ्र ही (सुपथा अर्वाङ् याहि) उत्तम मार्ग से, उत्तम अश्व पर चढ़ कर जाया कर। हम (ते पपुषः) तुझ सर्वपालक, सर्वपोषक के (वृष्ण्यानि वर्धाम) बलों को बढ़ावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नृपते राजन्) हे मुमुक्षुजनानां पालक ! “नरो ह वै देवविशः” [जै० १।८९] प्रजाजनानां पालक ! “प्रजा वै नरः” [ऐ० २।२४] नयनशक्तीनां पालक विद्युत्पदार्थ ! संसारे राजमान ! राष्ट्रे राजमान ! गतिमत्सु कलायन्त्रेषु राजमान ! (ते) तव (रथः) रमणयोग्यो मोक्षः, गमनशीलं यानम्, गतिपञ्जरो वा (सुष्ठामा) सुखस्थानः, सुरक्षास्थितिमान्, सुव्यवस्थितो वा (हरी सुयमा) दुःखापहरण-सुखाहरणकर्त्तारौ, दयाप्रसादौ, सेनासभाविभागौ, नयनानयनधर्मौ शुष्कार्द्रधारामयौ वा सुनियमेन प्रवर्तमानौ (गभस्तौ वज्रः-मिम्यक्ष) बाहौ संसारवहनबले, भुजे, नियन्त्रणे, ओजः “वज्रो वा ओजः” [श० ८।४।१।२०] शस्त्रं वा, वर्जनबलं वा प्राप्तं भवेत् (सुपथा शीभम्-अर्वाङ्-आयाहि) सुमार्गेण, ध्यानेन, गतिमार्गेण तन्त्रीमार्गेण वा शीघ्रमस्मदभिमुखम्, अत्रत्यं गृहं प्राप्तो भव (पपुषः ते वृष्ण्यानि वर्धाम) उपासनारसपानकर्त्तुः सोम्यानन्दरसपानकर्त्तुः द्रवपदार्थपान-कर्त्तुस्तव बलानि स्वस्मिन् वर्धयामः ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Stable, strong and perfectly directed is your chariot, controlled and accurate your dual powers of motion. O refulgent ruler and protector of the people, in your hands you hold the controls of the thunder power of force and justice. Pray come at the fastest by the safest and straightest path to us right here. We celebrate and exalt your powers and generosity, and you love to protect and promote your celebrants.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मुमुक्षूंचा पालक परमात्मा आपल्या कृपाप्रसादाने उपासकांना अध्यात्म मार्गाद्वारे प्राप्त होतो. प्रजेचा पालक राजा आपला सेनाविभाग व सभाविभागाद्वारे प्रजेचे हित पाहत यानांद्वारे त्यांना भेटतो. याच प्रकारे गतिशक्तीचा रक्षक (विद्युत) आपल्या दोन धारांद्वारे एखाद्या कलायंत्रात प्रयुक्त होतो. ॥२॥

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