ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र सी॑मादि॒त्यो अ॑सृजद्विध॒र्ताँ ऋ॒तं सिन्ध॑वो॒ वरु॑णस्य यन्ति। न श्रा॑म्यन्ति॒ न वि मु॑चन्त्ये॒ते वयो॒ न प॑प्तू रघु॒या परि॑ज्मन्॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सी॒म् । आ॒दि॒त्यः । अ॒सृ॒ज॒त् । वि॒ऽध॒र्ता । ऋ॒तम् । सिन्ध॑वः । वरु॑णस्य । य॒न्ति॒ । न । श्रा॒म्य॒न्ति॒ । न । वि । मु॒च॒न्ति॒ । ए॒ते । वयः॑ । न । प॒प्तुः॒ । र॒घु॒ऽया । परि॑ऽज्मन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सीमादित्यो असृजद्विधर्ताँ ऋतं सिन्धवो वरुणस्य यन्ति। न श्राम्यन्ति न वि मुचन्त्येते वयो न पप्तू रघुया परिज्मन्॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सीम्। आदित्यः। असृजत्। विऽधर्ता। ऋतम्। सिन्धवः। वरुणस्य। यन्ति। न। श्राम्यन्ति। न। वि। मुचन्ति। एते। वयः। न। पप्तुः। रघुऽया। परिऽज्मन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
इदं जगत्कीदृशमित्याह।
अन्वयः
हे मनुष्या यतो विधर्त्तादित्यः सीमृतमसृजत्तस्माद्वरुणस्य सकाशात् सिन्धवो यन्ति न श्राम्यन्ति न विमुचन्त्येते वयो न रघुया परिज्मन् प्रपप्तुस्तथा यूयमपि वर्त्तध्वम् ॥४॥
पदार्थः
(प्र) (सीम्) सर्वतः (आदित्यः) सूर्य्यः (असृजत्) सृजति (विधर्त्ता) विविधानां लोकानां धारकः (तम्) उदकम् (सिन्धवः) नद्यः (वरुणस्य) मेघस्य। वरुण इति पदनामसु निघं० ५। ६ (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (न) (श्राम्यन्ति) स्थिरा भवन्ति (न) (वि) (मुचन्ति) उपरमन्ति (एते) (वयः) पक्षिणः (न) इव (पप्तुः) पतन्ति (रघुया) रघवः क्षिप्रं गन्तारः। अत्र सुपां सुलुगिति जसः स्थाने याजादेशः (परिज्मन्) परितः सर्वतो वर्त्तमानायां भूमौ ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। इदञ्जगद्वायुवज्जलवत्सर्वमस्थिरं यथा नद्यश्चलन्ति भौममुदकमुपरि गच्छति तत्र चलति पुनर्भूमाववपतत्येवं जीवानां गतिरस्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
यह जगत् कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो जिस कारण (विधर्त्ता) अनेक प्रकार के लोकों का धारण करनेवाला (आदित्यः) सूर्य (सीम्) सब ओर से (तम्) जल को (असृजत्) उत्पन्न करता है इससे (वरुणस्य) मेघ के सम्बन्ध से (सिन्धवः) नदियाँ (यन्ति) चलतीं प्राप्त होतीं (न) (श्राम्यन्ति) स्थिर नहीं होतीं (न,मुचन्ति) अपने चलन रूप कार्य को नहीं छोड़तीं किन्तु (एते) ये नदी आदि जलाशय (वयः) पक्षियों के (न) तुल्य (रघुया) शीघ्रगामी (परिज्मन्) सब ओर से वर्त्तमान भूमि पर (प्र,पप्तुः) अच्छे प्रकार गिरते चलते हैं वैसे तुम लोग भी सब ओर व्यवहार सिध्यर्थ चलना फिरना आदि व्यवहार करो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह सब जगत् वायु और जल के तुल्य चलायमान है। जैसे नदियाँ चलतीं पृथिवी का जल ऊपर जाता वहाँ भी चलायमान होता फिर भूमि पर गिरता। इस प्रकार जीवों की संसार में गति है ॥४॥
विषय
वृष्टिरूप कर्म
पदार्थ
१. (आदित्यः) = वह सूर्यसम दीप्त (विधर्ता) = सबका धारण करनेवाला प्रभु (सीम्) = सर्वतः (ऋतम्) = [Rain water] वृष्टिजल को (प्रासृजत्) = खूब ही बरसाता है । इस वृष्टिजल से ही (वरुणस्य) = उस सब कष्टों का निवारण करनेवाले प्रभु की (सिन्धवः) = ये नदियाँ (यन्ति) = प्रवाहित होती हैं। वृष्टिजल से नदियाँ वह चलती हैं । २. (एते) = ये नदियाँ (न श्राम्यन्ति) = न तो थक ही जाती हैं, (न विमुचन्ति) = न ही अपने प्रवाहरूप कर्म को छोड़ देती हैं । ये तो (वयः न) = आकाश में उड़नेवाले पक्षियों के समान (रघुया) = तीव्र गतिवाली होती हुई (परिज्मन्) = इस पृथ्वी पर चारों ओर (पप्तू) = गतिवाली होती हैं। इन नदियों के प्रवहण से ही हमारे लिए जल की प्राप्ति सम्भव होती है। अन्यथा यह सब पानी समुद्र में पहुँचा हुआ हमारे लिए दुर्लभ ही हो जाता।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के वृष्टिरूप कर्म से नदियाँ प्रवाहित होती हैं और हमारे लिए जलप्राप्ति सम्भव होती है। इस वृष्टिरूप-कर्म द्वारा ही प्रभु हमारा धारण कर रहे हैं ।
विषय
प्रभु से रक्षादि की प्रार्थना ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( विधर्त्ता ) विविध रश्मियों से जल को धारण करने वाला होकर ( ऋतं प्र असृजत् ) जल को वृष्टिरूप में उत्पन्न करता है, फिर भी ( ऋतं प्र असृजत् ) उत्तम रूप से अन्न को उत्पन्न करता है। और ( वरुणस्य सिन्धवः यन्ति ) मेघ की जल धाराएं बहती हैं और समुद्र को जानेवाली जल की ( सिन्धवः ) नदियां बहती हैं । ( न श्राम्यन्ति न विमुचन्ति ) वे कभी न थकती हैं, न चलने से रुक सकती हैं इसी प्रकार ( आदित्यः ) समस्त संसार को अपने भीतर लेलेने वाला, अदिति, अखण्ड, प्रकृति का शासक परमेश्वर, ( ऋतम् ) ‘ऋत’ इस गतिशील, व्यक्त संसार को ( प्र असृजत् ) बहुत ही खूबी से बनाता है। वह स्वयं ( विधर्त्ता ) इस को विशेष रूप से और विविध उपायों से धारण कर रहा है । ( वरुणस्य ) सर्वश्रेष्ठ उस प्रभु के शासन में ही ये ( सिन्धवः ) जल धाराओं के समान बन्धन में बंधे जीवगण ( ऋतम् ) अन्न, जीवन ( यन्ति ) प्राप्त करते हैं । ( एते न श्राम्यन्ति ) ये कभी नहीं थकते । ( न विमुचन्ति ) कभी मुक्त नहीं होते। क्योंकि अन्नादि भोग में लगे रहते हैं। वे ( रघुया ) वेग से जाने वाले ( वयः न ) पक्षियों के समान ( परिज्मन् ) इस भू लोक पर ही ( पप्तुः ) ऊपर नीचे विचरते रहते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो वा ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्द:— १, ३, ६, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ७,११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, १० भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे सर्व जग वायू व जलाप्रमाणे चलायमान आहे. जशा नद्या प्रवाहित होतात, पृथ्वीवरील जल वर जाते, तेथेही चलायमान होते व पुन्हा पृथ्वीवर येते त्याप्रमाणे जीवांची संसारात गती आहे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Aditya, the sun, sustainer of the regions of the world, creates the waters all round and then the streams of Varuna, the cloud, shower down and flow. They tire not, nor ever stop. Like flying birds they flow all round on the earth at their top speed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The nature of the moving world is narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man! the sun-world holds various planets and creates water on all side. Because of the clouds the rivers flow and never stop their work. These rivers and other water tanks etc., move fast like birds. You should also emulate it for proper dealings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The whole universe is in commotion because of the air and water. The rivers flow; then again that water goes up in the sky from the earth, which again comes down in the form of rainwater. All the souls have the same circle of living.
Foot Notes
(विधर्त्ता) विविधानां लोकानां धारकः = Holders of various planets. (वरुणस्य ) मेघस्य = Clouds (वय:) पक्षिणः = Birds. (रघुया ) रघवः क्षिप्र गन्तार: = Fast movers.
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