ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 9
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - वरुणः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
परा॑ ऋ॒णा सा॑वी॒रध॒ मत्कृ॑तानि॒ माहं रा॑जन्न॒न्यकृ॑तेन भोजम्। अव्यु॑ष्टा॒ इन्नु भूय॑सीरु॒षास॒ आ नो॑ जी॒वान्व॑रुण॒ तासु॑ शाधि॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । ऋ॒णा । सा॒वीः॒ । अध॑ । मत्ऽकृ॑तानि । मा । अ॒हम् । रा॒ज॒न् । अ॒न्यऽकृ॑तेन । भो॒ज॒म् । अवि॑ऽउष्टाः । इत् । नु । भूय॑सीः । उ॒षसः॑ । आ । नः॒ । जी॒वान् । व॒रु॒ण॒ । तासु॑ । शा॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परा ऋणा सावीरध मत्कृतानि माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्। अव्युष्टा इन्नु भूयसीरुषास आ नो जीवान्वरुण तासु शाधि॥
स्वर रहित पद पाठपरा। ऋणा। सावीः। अध। मत्ऽकृतानि। मा। अहम्। राजन्। अन्यऽकृतेन। भोजम्। अविऽउष्टाः। इत्। नु। भूयसीः। उषसः। आ। नः। जीवान्। वरुण। तासु। शाधि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह।
अन्वयः
हे वरुण राजन्नीश्वर त्वं मत्कृतानि परा णा सावीः। यतोऽहमन्यकृतेन मा भोजमध त्वं या भूयसीरुषासोऽव्युष्टाः सन्ति ताः स्विन्नु नो जीवानाशाधि ॥९॥
पदार्थः
(परा) पराणि (णा) णानि (सावीः) सुनु (अध) अथ (मत्कृतानि) मया कृतानि मत्कृतानि (मा) (अहम्) (राजन्) सर्वत्र प्रकाशमान (अन्यकृतेन) अन्येन कृतेन (भोजम्) भुञ्जेः। अत्र विकरणव्यत्ययेन शबटोऽभावश्च (अव्युष्टाः) अविषु रक्षणादिषूष्टाः कारितनिवासाः (इत्) (नु) सद्यः (भूयसीः) बह्वीः (उषासः) उषसो दिनानि। अत्राऽन्येषामपीत्युपधादीर्घः (आ) (नः) अस्मान् (जीवान्) (वरुण) सर्वोत्कृष्टजगदीश्वर (तासु) उष:सु (शाधि) शिक्षस्व ॥९॥
भावार्थः
यथेश्वरो येन यादृशं कर्म क्रियते तस्मै तादृशं फलं ददाति वेदद्वारा सर्वान् शिक्षते तथैव विद्वद्भिरप्यनुष्ठेयम् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वरुण) सर्वोत्कृष्ट (राजन्) सर्वत्र प्रकाशमान जगदीश्वर आप (मत्कृतानि) मेरे लिये (परा) उत्तम (णा) णों को (सावीः) सिद्ध चुकते कीजिये जिससे (अहम्) मैं (अन्यकृतेन) अन्य ने किये से (मा,भोजम्) न भोगूँ (अध) और अनन्तर आप जो (भूयसीः) बहुत (उषासः) दिन (अव्युष्टाः) रक्षादि में निवास को प्राप्त हैं (तासु) उन दिनों में (इत्) ही (नः) हम (जीवान्) जीवों को (आ,शाधि) अच्छे प्रकार शिक्षित कीजिये ॥९॥
भावार्थ
जैसे ईश्वर जिसने जैसा कर्म किया है, उसको वैसा फल देता है, वेद द्वारा सबको शिक्षा करता, वैसे ही विद्वानों को अनुष्ठान करना चाहिये ॥९॥
विषय
'आत्मना भुजमश्नुताम्'
पदार्थ
१. हम छोटे होते हैं- असहाय होते हैं। माता-पिता कष्ट उठाकर हमारा पालन करते हैं। उनका हमारे पर एक ऋण चढ़ जाता है। अब हम अबोध बालकों को आचार्य ज्ञान देकर सुबोध बनाते हैं। इन आचार्यों, ऋषियों का हमारे पर दूसरा ऋण होता है। वायु आदि देवों का भी हमारे पर ऋण है— क्योंकि ये ही हमारे स्वास्थ्य के लिए निरन्तर क्रियाशील हैं। इस प्रकार हम अपने ऊपर इन ऋणों का भार लादे हुए हैं। हे (वरुण) = वरुण ! (अध) = अब (मत्कृतानि) = मेरे से पैदा कर लिये गये इन (ऋण) = ऋणों को (पर आ सावीः) = हमारे से दूर करिए हे राजन् ब्रह्माण्ड के शासक प्रभो ! (अहम्) = मैं (अन्यकृतेन) = दूसरे से उत्पन्न किये गये धनों से (मा भोजम्) = अपना पालन करनेवाला न होऊँ। दूसरों की कमाई पर जीऊँ। अपनी कमाई पर जीनेवाला ही श्रेष्ठ है। पिता की कमाई पर जीनेवाला मध्यम है— मामा की कमाई पर जीनेवाला अधम तथा श्वसुर की कमाई पर जीनेवाला अधमाधम है। सब ऋणों को उतार कर ही मैं अपने जीवन को सुन्दर बना पाता हूँ । २. जब तक ये ऋण उतर नहीं जाते तब तक (भूयसी: उषासः) = ये बहुत से उषाकाल (इत् नु) = निश्चय से (अव्युष्टाः) = उदय होते हुए भी मेरे लिए अनुदित से ही हैं- ऋणों का भार मेरे प्रसाद को समाप्तसा कर देता है । हे (वरुण) = मेरे ऋणों के बन्धन को दूर करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमें (तासु) = उन उषाओं में (जीवान्) = उज्जीवित करते हुए (आशाधि) = समन्तात् शासित करिए। आपके दिये हुए ज्ञान के प्रकाश से हम ऋणों को दूर करने के मार्ग पर चलें और प्रकाशमय जीवनवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम वरुण के व्रतों में चलते हुए ऋणों को दूर करनेवाले हों तथा अपने पोषण के लिए औरों पर निर्भर न हों। 'आत्मना भुजमश्नुताम्' ।
विषय
प्रभु से रक्षादि की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( राजन) राजन् ! ( ऋणानि ) ऋण जिनको ( मत्कृतानि ) मैंने किया या जो मुझ पर अन्यों द्वारा किये हुए प्रमाणित किये गये हों उनको (परा सावीः) दूर कर, उनको उतरवाने की व्यवस्था कर । और ( अहं ) मैं प्रजाजन ( अन्यकृतेन ) दूसरे के किये से, दूसरे की कमाई से ( मा भोजम् ) भोग न करूं । ( नु ) क्योंकि हमारी ( भूयसीः ) बहुत सी ( उषासः ) प्रभात वेलाएं ( अव्युष्टाः इत् ) ऋण की चिन्ता से ऐसी होती है जैसी मानों वे प्रभात वेलाएं हुई ही न हों । हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ ! ( तासु ) उन दुःख चिन्ता की घड़ियों में ही (नः) हम ( जीवान् ) जीवों को (आ शाधि) शिक्षित कर । प्रजा में राजा ऐसी व्यवस्था करे कि कोई किसी का ऋणी न हो । सब अपने परिश्रम का भोग प्राप्त करें । ऋण की चिन्ता में दिनों का सुख नष्ट न करें । राजा ऋणापहारियों को दण्डित करके शिक्षा दे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो वा ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्द:— १, ३, ६, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ७,११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, १० भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याने जसे कर्म केलेले असेल तसे फळ ईश्वर त्याला देतो, वेदाद्वारे सर्वांना शिक्षण देतो, तसे विद्वानांनी अनुष्ठान करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Varuna, lord of light and law, acquit me of the highest liabilities, and obligations undertaken by me. Never let me live on the fruits of others’ labour. And in the many days of light not yet come, in which you would be there to protect us, teach us, all the living souls, to live the way we should.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(A learned person prays) O the Supreme and all shining God ! clear my good debts (acts), so that I may not suffer for other's (misdeeds), and enjoy your protective cover for long and educate others also on those lines.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Almighty God imparts results in accordance with his performed acts. The learned persons should act in such a way that people get Vedic teachings.
Foot Notes
(पस) पराणि। = Nice. (ऋण) ऋणानि = Results or acts or Debts accumulated. (भोजम् ) भुञ्जे: = Undergo. (अव्युष्टा:) अविषु रक्षणादिषूष्टा: कारितनिवासाः = Protective covers. (उषासः) उपसो दिनानि । अत्राऽन्येषामपीत्युपधादीर्घः । = Days spare of life. (शाधि ) शिक्षस्व। = Teach.
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